कारगिल विजय दिवस: कैसे भारतीय सेना के आगे पाकिस्तान हुआ पस्त

16 दिसंबर 1971 को पूर्वी पकिस्तान (अब बांग्लादेश) में पाकिस्तानी सेना ने 12 दिन की भीषण लड़ाई के बाद हथियार डाल दिए. दुनिया भर में युद्ध के इतिहास में ये सबसे तेज़ युद्ध था और ऐसा पहला युद्ध था जिस के परिणाम स्वरुप एक नए देश का जन्म हुआ. 16 दिसंबर को विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है. 1989 से ले कर आज तक जम्मू कश्मीर में भारत और पाकिस्तान के बीच एक छद्म युद्ध अनवरत रूप से चल रहा है पर 1971 में हुई अपनी शर्मनाक हार का बदला लें के मौके पकिस्तान हमेशा ढूँढता रहा है.

1999 में फरवरी के महीने से ही कारगिल सेक्टर में पाकिस्तान ने सर्दी के मौसम में खाली की जाने वाली चौकियों पर घुसपैठ कर के अपने सैनिक तैनात कर दिए. इसे दुश्मन ने ऑपरेशन बद्र का नाम दिया. लगभग 200 वर्ग किलोमीटर के इलाके में हुई घुसपैठ पूरी तैयारी के साथ की गयी थी और बड़े हथियार, राशन पानी और युद्ध सामग्री महीनों की तैयारी के बाद ऊपर पहुंचाई गयी थी. कितनी चौकियों पर दुश्मन का कब्ज़ा हो चुका था ये अनुमान लगाने में हमारी चूक हुई. 03 जुलाई 1972 को हुए शिमला समझौते के अंतर्गत युद्ध भारत और पकिस्तान के बीच विराम रेखा को नियंत्रण रेखा बना दिया गया था. दोनों देशों के बीच 740 किलोमीटर लंबा ये हिस्सा दुनिया में किन्ही भी दो देशों के बीच का सबसे गहन सैनिक जमाव वाला भाग है. चूंकि नियंत्रण रेखा की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता नहीं है इसलिए इसमें घुसपैठ करना आम बात है.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कश्मीर सेक्टर में में नियंत्रण रेखा के दोनों और गतिविधियाँ बहुत तेज़ हैं और जम्मू सेक्टर में भी आये दिन फायरिंग होती रहती है पर लद्दाख क्षेत्र में नियंत्रण रेखा पर हलचल कम है. इलाका भी दुर्गम है और जनसंख्या भी न के बराबर है और आतंकवाद का असर भी नहीं है. इस कारण सैन्य दृष्टि से इस इलाके का महत्त्व कम आंकना भी एक बड़ी गलती थी. श्रीनगर से लेह को जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 1D इस क्षेत्र में सीमा के बहुत नज़दीक से गुज़रता है और साथ लगी ऊँची पहाड़ियों पर यदि दुश्मन बैठ जाए तो लद्दाख का संपर्क कट सकता है, और हुआ भी यही. जब उन चौकियों से फायरिंग हुई तब हमें स्थिति की गंभीरता का पता चला. न केवल कब्ज़े वाला हिस्सा बल्कि पहाड़ी पर बैठ कर एक बड़े हिस्से को काट देने की क्षमता शत्रु के पास चली गयी. पाकिस्तान ने कोशिश की कि इस अभियान को कश्मीर का आतंरिक मामला कह के दबा दिया जाए. पर ऐसा हुआ नहीं.

03 मई को पाकिस्तानी घुसपैठ की खबर मिलते ही पता लगाने के लिए भेजे गए टोही दल के पाँच सैनिकों की बंदी बना कर ह्त्या कर दी गयी. 09 मई को पाकिस्तानी गोलाबारी में कारगिल स्थित हमारा बारूद भण्डार नष्ट हो गया और 10 मई तक द्रास, मश्कोह और काकसर सब-सेक्टरों में भी भारी घुसपैठ की रिपोर्ट आई. स्थिति को समझने में काफी वक़्त लगा और आने वाले पंद्रह दिनों में हमारी सेनायें युद्ध के लिए तैयार हो कर  कारगिल के लिए रवाना हो गयीं. 26 मई को भारतीय वायु सेना के हमले के साथ भारत पाकिस्तान के बीच चौथा युद्ध शुरू हो गया. पकिस्तान को इतनी भीषण जवाबी कार्रवाही का अंदाजा नहीं था. हाई एलटीट्यूड (अत्यधिक ऊंचा इलाका) लड़ाई आम इलाकों में लडे जाने वाले युद्धों से हर मायने में अलग है और मुश्किल भी. पर हमारे सैनिकों ने किसी भी चीज़ की परवाह न करते हुए अगले डेढ़ महीने में दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए.

सूत्रों के अनुसार एक हज़ार से भी अधिक पाकिस्तानी सैनिक मारे गए और इस से कम से कम दो गुना घायल हुए. मारे गए सैनिकों से मिले दस्तावजों से कारगिल की घुसपैठ और लड़ाई में पाकिस्तानी सेना का सीधा हाथ सामने आया. मीडिया ने इस युद्ध को जिस तरह से पेश किया उस से न केवल पाकिस्तान का सच दुनिया के सामने आया बल्कि अपना पूरा देश इस अभियान के समर्थन में एक हो गया. अमरीका और यूरोप के प्रभावशाली देशों ने पाकिस्तान पर राजनैतिक दबाव बनाया और 26 जुलाई को पाकिस्तानी सेना ने कब्जे वाला पूरा हिस्सा खाली कर दिया. वास्तव में ये एक बड़ी जीत थी पर इस युद्ध से हमारे लिए भी सबक कम नहीं थे. सेना की कार्यप्रणाली में बड़े बदलाव आये. नए हथियार और उपकरण खरीदे गए. ट्रेनिंग के तौर तरीके सुधारे गए और वायु सेना का असर पता चला. विवादित बोफोर्स तोपों ने युद्ध में अपनी क्षमता से लोहा मनवाया और भारतीय पैदल सैनिक और उनकी बहादुरी पूरे देश के दिलो दिमाग पर छा गए. हमारे नौजवान अधिकारियों ने विपरीत परिस्थितियों में जिस बहादुरी और देश प्रेम का परिचय दिया वो पूरे देश के नौजवानों के लिए आज भी मिसाल है. हम ने 527 सैनिकों को खोया और 1363 घायल हुए. वहीँ पाकिस्तान का भारी नुकसान हुआ. आधिकारिक तौर पर 700 के मारे जाने की पुष्टि कर पाकिस्तान ने युद्ध में मिली हार को कम आंकने की कोशिश की पर  बाद में उनके प्रधानमंत्री मियाँ नवाज़ शरीफ ने खुद 4000 सैनिकों के मारे जाने की बात स्वीकारी. परमाणु बम के इस्तेमाल करने की पाकिस्तान की धमकी नाकाम रही और अपने ही सैनिकों के शवों को स्वीकार न कर के पाकिस्तानी सेना की साख अपने ही लोगों में गिर गयी.

पाकिस्तानियों द्वारा हमारे अधिकारियों और सैनिकों की निर्मम ह्त्या को मीडिया ने ही दुनिया के सामने रखा और मानवाधिकार एजेंसियों के लिए इस युद्ध में पाकिस्तान का सच्चा चेहरा उजागर हुआ. हमारे रक्षा तंत्र को मीडिया की ताकत का पता चला और साथ ही युद्ध में राजनैतिक और आर्थिक दबाव का महत्त्व समझ आया. युद्ध की तैयारी में सूचना तंत्र के महत्त्व के साथ  और हमारी सूचना एजेंसियों में आपसी समन्वय की कमी पता चली. युद्ध के बाद सुब्रमन्यम कमेटी की रिपोर्ट ने कई कड़वे सच देश के सामने रखे. सेनाओं ने काफी हद तक इन सबकों पर अमल कर लिया है पर रक्षा मंत्रालय के तहत होने वाले आधुनिकीकरण के क्षेत्र में बहुत काम बाकी है. रक्षा सौदों और नए हथियारों और उपकरणों की खरीद फरोख्त की प्रक्रिया अभी भी बहुत जटिल है और नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों के चलते देश की सुरक्षा  व्यवस्था में नीतिगत कमियों को दूर किया जाना बाकी है. साथ ही सेना के तीनों अंगों में एकीकरण अभी तक नहीं हुआ है और सीडीएस जैसा अहम पद ब्यूरोक्रेसी में फंसा है. रक्षा और विदेश नीति में सेना के बड़े अधिकारियों की भूमिका अब भी नगण्य है और कई और मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देना आवश्यक है. कारगिल युद्ध ने हमारी आँखें खोलीं और न केवल हमारी बहादुरी बल्कि हमारी कमजोरियों से भी हमें रूबरू करवाया. वक्त है इन पर ध्यान देने का.

(कर्नल अमरदीप सिंह, सेना मैडल। ये लेखक के अपने विचार हैं)

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