पश्चिमी देशों की तरह भारत में रिवॉल्वर चलाने की सीख कहां तक वाजिब ?

महात्मा गांधी के विचारों को आदर्श मानने वाले देश में हम कहाँ जा रहे हैं ? मध्यप्रदेश के स्कूली बच्चों को खुद पुलिस ही हिंसक मानसिकता की तरफ धकेल रही है। क्या ऐसा कर हम अपने नौनिहालों को वेस्टर्न (अमेरिकन) सोसायटी के बच्चों की तरह हिंसा के रास्ते पर ले जा रहे हैं। शनिवार को सीहोर पुलिस ने पुलिस बाल मित्र कार्यक्रम में कोतवाली थाने के भीतर सरकारी स्कूल की छात्राओं को बुलाया था। इस कार्यक्रम के तहत पुलिस को अपनी कार्यप्रणाली से बच्चों को वाकिफ कराना था। जिले के एडिशनल एसपी समीर यादव और टीआई संध्या मिश्रा ने छात्राओं को पुलिसिंग की जानकारी दी। इसके बाद छात्राओं को जो ट्रनिंग दी गई, वह नाबालिग छात्राओं और समाज के लिए घातक हो सकती है। पुलिसकर्मियों ने बकायदा रायफल और रिवॉल्वर कैसे चलाई जाती है, कितने कारतूस लोड किए जाते हैं, गोली की मारक क्षमता कितनी होती है, गोली चलाते वक्त पोजिशन क्या होना चाहिए आदि-आदि सिखाया। पुलिसिंग को समझना और समझाना तो अच्छी बात है लेकिन पुलिस की इस ट्रेनिंग के मायने क्या हैं। नाबालिग छात्राओं को सेल्फ डिफेंस के नाम पर आखिर यह कैसी ट्रेनिंग।

बच्चों के लिए काम करने वाले भोपाल के प्रशांत दुबे का कहना है कि बच्चों को ऐसी सीख हिंसा की तरफ धकेलती है। छात्राओं को हम सेल्फ डिफेंस के पाठ पढाते हैं लेकिन उनके साथ छेडछाड़ करने वालों को सीख क्यों नहीं दी जाती। एकलव्य भोपाल की अंजलि कहती हैं कि अमेरिका में बच्चों के मनोमस्तिष्क पर हिंसा होती है। अमेरिका में बच्चों की फायरिंग की घटनाएं बहुत आम बात है। थाने के भीतर स्कूली छात्राओं को इस तरह की ट्रेनिंग या जानकारी दी जाना बच्चों के भीतर हिंसा का भाव जगाती है। स्कूली बच्चियां इतनी भी समझदार नहीं होती। पुलिस की सीख के बाद यदि उन्हें घर में या कहीं और बंदूक या रिवॉल्वर मिलती है और कोई हालात बन जाए तो वे उसका इस्तेमाल कर सकती हैं। इससे उनका जीवन भी तबाह हो सकता है… पुलिस की सीख देश के बच्चों को हिंसा की तरफ मोड सकती है। अमेरिका की तर्ज पर हमारे स्कूली बच्चें भी कोई खतरनाक कदम उठा सकते हैं। ऐसे पुलिस बाल मित्र कार्यक्रम नौनिहालों के लिए खतरे की बडी घंटी साबित हो सकते हैं।

(पुष्पेन्द्र वैद्य, वरिष्ठ पत्रकार। ये लेखक के अपने विचार हैं)

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