नई दिल्ली-क्या आपने कभी सोचा है कि कोई इंसान अपनी आस्था के लिए मौत को गले क्यों लगाता है? क्यों हज़ारों लोग, जिनके हाथों में न कोई तलवार थी, न कोई ढाल, एक मंदिर के भीतर ही कटते रहे… लेकिन फिर भी डटे रहे?
यह कहानी है 1323 ईस्वी की—जब तुगलक की म्लेच्छ सेना ने दक्षिण भारत के सबसे पवित्र वैष्णव तीर्थ श्रीरंगम पर धावा बोला। लेकिन यह सिर्फ एक हमले की कहानी नहीं है, यह एक ऐसी भक्ति की मिसाल है, जो मौत से भी नहीं डरी।
पंगुनी उत्सव चल रहा था। मंदिर दीपों से जगमगा रहा था, घंटियाँ बज रही थीं, मंत्रों की गूंज से आसमान भर गया था। लोग नाच रहे थे, गा रहे थे—ईश्वर की भक्ति में लीन। लेकिन किसी को नहीं पता था कि क्षितिज के उस पार मौत सरपट दौड़ रही है।
दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की सेना, जो मंदिरों को लूटने और संस्कृति को रौंदने के लिए कुख्यात थी, श्रीरंगम की ओर बढ़ रही थी। उनके लिए यह मंदिर सिर्फ सोने की मूर्तियों और धन का भंडार था—पर भक्तों के लिए यह जीवन का केंद्र था।
जब ख़बर फैली कि हमला होने वाला है, तब भी लोगों ने मंदिर नहीं छोड़ा। यह उनका घर था, उनका ईश्वर वहीं था। और फिर, जैसे ही तुगलक की सेना मंदिर में घुसी, नरसंहार शुरू हो गया।
12,000 वैष्णवों को मौत के घाट उतार दिया गया।
सोचिए, एक-एक करके पुजारी, भक्त, विद्वान, महिलाएं, बच्चे—all were killed—सिर्फ इसलिए कि वे ईश्वर की शरण नहीं छोड़ना चाहते थे। मंदिर के प्रांगण में खून बह रहा था, लेकिन कुछ लोग एक और लड़ाई लड़ रहे थे—भगवान रंगनाथ की मूर्ति को बचाने की लड़ाई।
श्री वैष्णव आचार्य पिल्लई लोकाचार्य और उनके शिष्यों ने जान हथेली पर रखकर भगवान की उत्सव मूर्ति को मंदिर से बाहर निकाल लिया। जंगलों से होते हुए वे तिरुपति की ओर भागे, ताकि भगवान के सम्मान को अपवित्र होने से बचाया जा सके।
और जो बचे, उन्होंने वह सब सहा जिसकी कल्पना भी रोंगटे खड़े कर देती है। इतिहास में इसे “पन्निरयिरमतिरुमुदी-तिरुत्तिना-कालभम” कहा गया है—यानि बारह हज़ार शहीदों का वो दिन।
मंदिर की दीवारों पर आज भी उस रात की छाया दर्ज है। लेकिन दुख की बात यह है कि यह घटना शायद ही किसी इतिहास की किताब में मिलेगी। क्योंकि वर्षों तक कुछ इतिहासकारों ने इन सच्चाइयों को दबा दिया। उन्होंने आक्रमणकारियों को उदार बताया और भक्तों के बलिदान को “छोटा धार्मिक संघर्ष” करार दे दिया।
लेकिन सच्चाई आज भी श्रीरंगम की हवा में बहती है। जब भी मंदिर की घंटियाँ बजती हैं, जब भी कोई पुजारी भगवान रंगनाथ का नाम लेता है, तो उसमें उन 12,000 आत्माओं की प्रतिध्वनि होती है। जिन्होंने मंदिर नहीं छोड़ा, अपनी आस्था नहीं छोड़ी… बस प्राण छोड़ दिए।
आज श्रीरंगम फिर से वैष्णव परंपरा का केंद्र है। लेकिन उसकी नींव में सिर्फ पत्थर नहीं हैं—वहाँ 12,000 आत्माएं हैं, जो आज भी मंदिर के हर कोने में गूंजती हैं।
यह सिर्फ इतिहास नहीं है, यह हमारी आत्मा की पुकार है।
इसे भूलें नहीं।
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