#विजयमनोहरतिवारी
समय बीत जाता है। अवसर चूक जाते हैं। दिशाएँ खो जाती हैं। लक्ष्य भटक जाते हैं। 2014 धूमधाम से बीता तो एक अवसर सामने था। स्पष्ट दिशा थी। लक्ष्य भी निर्धारित था। 2019 प्रचंड प्रभामंडल सहित बीता तो अवसर लंबित थे, दिशा स्पष्ट थी और लक्ष्य भी। अब 2024 भी बीत गया है। अनेक महत्वपूर्ण लक्ष्य अधूरे सपनों की भांति अधर में आ गए हैं, जो पहले ही पूरे हो सकते थे। बीते हुए समय की तुलना में अब समय कठिन है।
लोकतंत्र में मतदाता पाँच साल चलने लायक ऑक्सीजन ही देते हैं। इस बार सिलेंडर में छेद कर दिए। केवल पाँच वर्ष के लिए मिला वह अवसर कोई अमृत नहीं है कि कोई एक बार पी ले तो सदा ही बना रहे। हर बार सिद्ध करना होगा और वह सिद्धि पुन: केवल पाँच वर्ष के लिए लौटा लाएगी। किंतु सिद्धि के साथ सावधानियाँ आवश्यक हैं।
वैदिक काल से ही विशाल यज्ञों में बड़ी बाधाएँ और दुर्दांत बाधक घात लगाए रहे हैं। कथाएँ भरी पड़ी हैं। जितनी ऊर्जा यज्ञ में लगेगी, उसका एक बड़ा अंश इन बाधाओं से निपटने के लिए रखना होगा। तब जाकर यज्ञ अपने महान उद्देश्य के लिए पूर्णाहुति तक संपन्न होंगे। पाँच साल का समय पंख लगाकर उड़ जाता है और इसलिए लक्ष्य प्राप्ति के लिए हर साल, हर महीना, हर सप्ताह, हर दिन और हर घंटे का मूल्य है। समय अमूल्य है। जब वह बीत जाता है तो अवसर भी चूक जाते हैं। दिशाएँ भी खो जाती हैं। लक्ष्य भटक ही जाते हैं।
वटवृक्ष की कोई सौभाग्यशाली शाख आकाश चूमने लगे तो वह खुरदरी भूमि की अंधेरी गहराइयों में फैली निर्दोष जड़ों से यह नहीं कह सकती कि अब वह स्वयं सक्षम है और जड़ों पर निर्भर नहीं है। “अहं ब्रह्मास्मि’ भारतीय ज्ञान परंपरा के चार महावाक्यों में से एक है, जो उपनिषद काल के किसी ऋषि ने गहन एकांत में अनुभव किया। किंतु राजनीति बाहरी जगत की एक यात्रा है, जिसके रोड शो होते हैं। इस मार्ग पर कोई यह सोच भी नहीं कर सकता कि मैं ही ब्रह्म हूँ। मैं ही अंतिम सत्य हूँ और अब किसी पर निर्भर नहीं हूँ। केवल मतदाता ही मेरा भाग्यविधाता है। राजनीति के कैलेंडर पर 2024 ऐसी ही आमंत्रित दुर्घटनाओं का वर्ष बन गया है।
शायरों की शैली में कहें तो वोटर एक ऐसी बेवफा माशूक हैं, जो जेबें पूरी खाली करा लेती हैं, मुगालते ढेर भर देती हैं और आखिर में कहीं का नहीं छोड़तीं। आशिक हवा में इतराते घूमेंगे और एक दिन खुशबूदार लिबास पहनकर हाथ में फूल लिए बाग में लौटेंगे तो पाएंगे कि माशूक ने तो किसी और को ढूंढ लिया है। वह पेड़ के इर्दगिर्द दुश्मन के साथ गलबहियाँ डाले नाच रही है। मजे की बात है कि ज्यादातर आशिक ऐसे ही ठगे गए हैं। स्वयं को होशियार समझने और सामने वाले को खूब होशियार दिखाने वाले अनुभवी आशिकों का हाल भी एक दिन इस बेवफा वोटर ने ऐसा ही किया है। इन 75 सालों में माशूक की हसरतों की कोई इंतिहा नहीं रही, अनेक आशिक आए और गए। 2024 का साल आशिकी का यही पुराना सबक सिखा गया है।
एक दिन नींद उचट जाती है। सपने अधूरे छूट जाते हैं। सुबह हाथ मलने के सिवा कुछ हाथ नहीं लगता। जबकि सपनों को बुनने में सौ साल लगे थे। एक-एक ईंट जोड़कर सपनों के भव्य भवन खड़े किए थे कि कभी अवसर आया तो ऐसा राष्ट्र बनाएंगे। अवसर सबके पास आते हैं। भरपूर आते हैं, लगातार आते हैं। एक नहीं, दो बार आते हैं। मगर एक ही अवसर में राष्ट्र के आमूलचूल रूपांतरण के उदाहरण कितने हैं?
तब हमें तुर्की और इजरायल जैसे छोटे से देशों के बनने की मिसालें अवश्य देखनी चाहिए। तुर्की में कमाल मुस्तफा पाशा ने एक ही दशक के अवसर में प्राप्त सत्ता के हर दिन का जैसा उपयोग किया और आठ सौ सालों के सांस्कृतिक अतिक्रमण की सफाई करके अपने राष्ट्र को जैसा सेहतमंद बनाया, आधुनिक विश्व के इतिहास में वैसी दूसरी मिसाल नहीं है। इजरायल सामूहिक रूप से जागृत राष्ट्र चेतना का दूसरा बेमिसाल उदाहरण है। भारत के नेता और भारत का समाज दोनों से ही कुछ न कुछ सीख सकता है।
अगर राष्ट्र के निर्माण का कोई महास्वप्न सामने है तो पार्षद से लेकर सांसद तक, मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक की यात्राओं पर निकले प्रत्येक राजनीतिक कार्यकर्ता को कमाल मुस्तफा पाशा के व्यापक सुधारों का पाठ विस्तार से पढ़ाया जाना चाहिए। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एकनिष्ठ होने का वह अद्वितीय उदाहरण हैं। लोकतांत्रिक और बहुदलीय व्यवस्था में भी संसार के किसी भी सफल लीडर के सूत्रों को अपनी आवश्यकता अनुसार अनुकरण के लिए चुना जा सकता है और उसे आचरण में लिया जा सकता है। तब हमें खाने-कमाने, अपनों को निपटाने और येनकेन प्रकारेण स्वयं सत्ता में टिके रहने की घिसीपिटी और सस्ती परिपाटियों से मुक्त होना ही पड़ेगा।
दो तीन दशक तक लगातार बड़े पदों पर रहते हुए जो नेता 70 के आसपास की आयु में हैं, चिपके रहने के लिए उनके पास बहुत सक्रिय समय नहीं है। यह प्रकाश के निरंतर मंद पड़ने की बेला है। उन्हें उदारतापूर्वक अपने से आगे दूसरी और तीसरी पंक्ति के योग्य कार्यकर्ताओं और सक्षम नेताओं को आगे करने की जरूरत है। 50 साल आयु का कोई संभावनावान नेता उनका प्रतिस्पर्धी कभी नहीं हो सकता इसलिए उसे निपटाने का अर्थ एक संभावना को सदा के लिए समाप्त करना है। एक ऐसी संभावना को, जिसे अस्तित्व में लाने में एक लंबा समय लगा है, नष्ट करना दूसरे को निपटाना नहीं है, यह सामूहिक आत्मघात का पहला कदम है। एक तैयार फसल को कोई समझदार किसान कभी नष्ट नहीं करता।
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