4 जुलाई 1942: नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज की कमान संभाली

अंग्रेजों से भारत की मुक्ति के सैन्य अभियान आरंभ

रमेश शर्मा
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने अंग्रेजों से भारत की मुक्ति के लिये सैन्य संघर्ष आरंभ किया और वर्मा के रास्ते भारत की ओर कूच किया । उन्होंने उत्तर पूर्व के अनेक भूभाग को मुक्त कराकर तिरंगा फहरा दिया था ।

भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिये जापान की सहायता से एक सशस्त्र सैन्य दल तैयार किया गया था । इसका नाम आजाद हिन्द फौज रखा गया । इसके गठन की योजना कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल ने बनाई थी । विदेशों में रह रहे भारतीयों को इससे जोड़ने के लिए “इण्डियन इण्डिपेंडेंस लीग” की स्थापना की । इसकी बैठक जून 1942 को बैंकाक में हुई । इस लीग का मुख्य कार्य आजाद हिन्द फौज केलिये सैनिक तैयार करना था ।वर्मा मलाया आदि स्थानों में भर्ती आरंभ हुई और केवल छै माह में सैनिकों की संख्या सोलह हजार तक पहुँच गई । लेकिन आज़ाद हिन्द फौज की भूमिका को लेकर जापान सरकार और मोहन सिंह के बीच में मतभेद हो गये और मोहन सिंह एवं निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिये गये। उन दिनों नेताजी सुभाषचन्द्र बोस बर्लिन में थे । वे अपनी संस्था इंडियन लीग के माध्यम से अंग्रेजों के विरुद्ध सैन्य अभियान की तैयारी कर रहे थे । उन्होंने इस लीग का गठन 1941 में किया था । इसी बीच आजाद हिन्द फौज के सैनिकों ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस से संपर्क किया । जर्मनी और जापान सरकारों ने उनकी सहायता की और अंततः नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने 4 जुलाई 1943 को दोनों संस्थाओं की बैठक बुलाई गई। जिसमें सर्वसम्मति से नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को को नेतृत्व सौंप दिया गया ।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर में बाकायदा एक सैन्य परेड के रूप में सभा का आयोजन किया । जिसे नेताजी सुभाषचन्द्र ने सुप्रीम कमाण्डर के रूप में सम्बोधित किया । नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने “दिल्ली चलो” का नारा दिया और जापानी सेना का सहयोग लेकर अंग्रेजी सत्ता पर धावा बोल दिया इसकी शुरुआत बर्मा से की । बर्मा को अब म्यांमार के नाम से जाना जाता है । आजाद हिन्द फौज ने रंगून पर अपना अधिकार कर लिया और भारत की ओर कूच कर दिया । 18 मार्च 1944 ई. को कोहिमा और इम्फ़ाल क्षेत्र में ब्रिटिश सेना से मोर्चा लिया और अंग्रेजों से मुक्त करा लिया । 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में भारत की स्वतंत्र सरकार का गठन किया । इसकी कमान नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने संभाली ।

इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष का पद नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने संभाला । वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता देने की घोषणा कर दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। नेताजी ने अंडमान का नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा । 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज फहराया और आगे बढ़े । 4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज धावा बोला और कोहिमा, पलेल आदि क्षेत्र अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। 6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम जारी एक प्रसारण में अपनी स्थिति स्पष्ठ की और आज़ाद हिन्द फौज द्वारा लड़ी जा रही इस निर्णायक लड़ाई की जीत के लिये सहयोग मांगा। अपने संदेश में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कहा “मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं।

22 सितम्बर 1944 को शहीदी दिवस मनाते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक शब्दों में कहा- “हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। यह स्वतन्त्रता की देवी की माँग है।

जून 1944 तक जापान की सहायता से आज़ाद हिन्द फ़ौज ने भारत की पूर्वी सीमा एवं बर्मा से युद्ध लड़ा किन्तु तभी अमेरिका के हस्तक्षेप से द्वितीय विश्व युद्ध का पासा पलट गया। जर्मनी और जापान ने हार स्वीकार करके समर्पण कर दिया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस विमान दुर्घटना के शिकार बने । आजाद हिन्द फौज के सैनिक और अधिकारी गिरफ़्तार कर लिये गये । लाल किले को विशेष जेल बनाकर रखा गया। वहीं नवम्बर 1945 राजद्रोह का मुकदमा चला और कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों एवं मेजर शाहवाज ख़ाँ पर राजद्रोह का आरोप में फाँसी की सजा सुनाई गई । इस निर्णय के विरुद्ध पूरे देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई । प्रदर्शन आरंभ हुये । एक नारा गूँजा “लाल क़िले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फ़ौज को छोड़ दो। उन्हीं दिनों अंग्रेज ने भारत को मुक्त करने का निर्णय हुआ और वायसराय वेवेल ने इनके मृत्युदण्ड से मुक्त कर रिहा करने की घोषणा कर दी।

आजाद हिन्द फौज के सेनानियों की संख्या के बारे में लेखकों में मतभेद हैं फिर भी आजाद हिन्द फौज में सैनिकों की संख्या लगभग चालीस हजार मानी जाती है । यह संख्या ब्रिटिश गुप्तचर रहे कर्नल जीडी एण्डरसन ने लिखी है। 18 अगस्त 1945 को हुई विमान दुर्घटना के बाद नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फौज पर विराम लगा । द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद रंगून और सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज के अधिकांश सेनानियों को मौत के घाट उतार दिया गया था । उनके नाम तक नहीं हैं । इतिहास लेखक केवल उन सेनानियों के नाम खोज सके जो भारत में बंदी बनाये गये थे।

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