रवि प्रताप दूबे
राष्ट्रीय जनता दल से राज्यसभा सांसद मनोज झा ने सदन में जब महिला आरक्षण पर भाषण दिया तो उन्होंने एक कविता पढ़ी जो “ठाकुर” पर निशाना साधती है।
1- अव्वल तो मुझे मनोज झा की तरह बोलने वाले लोग कभी पसंद नहीं आते, क्योंकि उनकी बातचीत और भाषण का लहजा हमेशा बहुत बनावटी होता है. जैसे योगेंद्र यादव को देखा है ना आपने. बेहद बनावटी. ये उस किस्म के लौंडे होते हैं जो स्कूल में डिबेट जीतने के लिए खास किस्म का लहजा आत्मसात कर लेते हैं. इनका लक्ष्य केवल लोगों को चमत्कृत करना होता है. जमीनी हकीकत से उनका कोई लेना-देना नहीं रहता. मनोज झा इसी बिरादरी से आते हैं.. नेता का भाषण बनावटी लहजे का नहीं होना चाहिये
2- बॉलिवुड जन्य तमाम पापों में से भी एक अहम् पाप का शिकार हमारा समाज जाने अनजाने में हो गया है.. जैसे हवस का “पुजारी” ही होता है , जैसे गुनाहों का “देवता” ही होता है, उसी तरह पंडितों को हमेशा षड्यंत्रकारी, वैश्य को लालची और ठाकुरों को क्रूर दिखाने में बॉलीवुड ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है. मनोज झा इसी साज़िश का हिस्सा और शिकार दोनों हैं
3- ठाकुर यानी क्षत्रिय समाज का भारत की सांस्कृतिक सभ्यता में जो योगदान है, वो ऐसे हजारों मनोज झाओ के बयान से कहीं ऊपर की चीज है. राजपूत समाज ने हर चुनौती का ना केवल डट कर मुकाबला किया बल्कि अनगिनत बार सर्वश्रेष्ठ सर्वोच्च बलिदान भी दिया है.
4- विपक्ष की सबसे बड़ी कमजोरी यही बंद एसी कमरे वाले सोफा सेट नेता है. NGO मार्का ये नेता बिना किसी जमीनी प्रतिस्पर्धा के सांसदी पा जाते हैं. इसीलिए कुछ अता पता नहीं होता, भाषण की डेट पता होते ही कविता और शेरो शायरी ढूंढने लगते हैं. ब्रूट के शार्ट वीडिओ में आने की तड़प ही ऐसी है कि झा हो या चतुर्वेदी या मोइत्रा, सब बेकरार रहते हैं.
5- जब आप पद के योग्य ना हो और आपको बिना किसी मेहनत क्व मिल जाये तो ज़्यादातर नेता बैठे-बैठे समाज को नुकसान पहुंचाया करते हैं. झा का कांड कुछ वैसा ही है
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