योगी आदित्यनाथ मोदी और शाह की मज़बूती हैं या मजबूरी?

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 22जुलाई। साल 2021 ख़त्म और यूपी विधानसभा चुनाव प्रचार शुरू होने को था.

अटकलें थीं कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच अनबन है.

तभी 21 नवंबर 2021 को दो तस्वीरें सामने आईं. एक में मोदी, योगी से कुछ कहते दिखे. दूसरे में कैमरे की तरफ़ पीठ किए हुए मोदी योगी के कंधे पर हाथ रखे हुए दिखे.

योगी आदित्यनाथ के सोशल मीडिया अकाउंट्स से इन तस्वीरों को साझा करते हुए लिखा गया- ”हम निकल पड़े हैं प्रण करके, अपना तन-मन अर्पण करके, जिद है एक सूर्य उगाना है, अंबर से ऊंचा जाना है…”

अगले ढाई साल में योगी दोबारा यूपी के सीएम बन गए और मोदी तीसरी बार पीएम. मगर जिस ‘अंबर से ऊंचे जाने’ और ‘सूर्य उगाने’ की बात मोदी और योगी की तस्वीरों के साथ लिखी गई थी, वो बस कवि की कल्पना ही रह गई.

2017 यूपी विधानसभा चुनाव में 312 सीटें जीतने वाली बीजेपी 2022 में 255 सीटें ही जीत पाई.

2019 लोकसभा चुनाव में यूपी की 62 सीटें जीतने वाली बीजेपी 2024 में 33 सीटों पर सिमट गई.

बीजेपी के इसी सियासी ढलान के साए में योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य के ताज़ा बयानों ने फिसलन बढ़ाई है.

योगी और केशव प्रसाद मौर्य
सवाल उठ रहा है कि 2024 चुनाव के बाद क्या मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी के सामने योगी आदित्यनाथ मज़बूती बन गए हैं या मजबूरी? योगी आदित्यनाथ के सामने क्या चुनौतियां हैं या वो ख़ुद किसी के लिए चुनौती हैं?

योगी आदित्यनाथ: विरोध से बीजेपी का स्टार प्रचारक बनने तक
नरेंद्र मोदी, अमित शाह के बाद संभवत: योगी आदित्यनाथ ही हैं, जिन्होंने बीते चुनावों में कई राज्यों में जाकर प्रचार किया.

बीजेपी के स्टार प्रचारकों की लिस्ट के शुरुआती नामों में योगी आदित्यनाथ का नाम आता है.

मगर बीजेपी में योगी की बनी इस जगह की शुरुआत ही एक बगावत से हुई थी.

कुछ साल पीछे चलते हैं. काला चश्मा, टाइट कपड़े वाले अजय सिंह बिष्ट यानी योगी आदित्यनाथ के कॉलेज वाले दिन.

शरत प्रधान और अतुल चंद्रा अपनी किताब ‘योगी आदित्यनाथ’ में लिखते हैं- अजय सिंह बिष्ट के एक जीजा चाहते थे कि वो एक वामपंथी पार्टी की स्टूडेंट विंग से जुड़ें मगर अजय एबीवीपी से जुड़े. ख़ूब मेहनत की मगर जब एबीवीपी ने अजय को उम्मीदवार नहीं बनाया तो विरोध की पहली चिंगारी दिखाई दी.

अजय बिष्ट उर्फ़ योगी एबीवीपी के ख़िलाफ़ ही निर्दलीय चुनाव लड़ गए. मगर जीत ना सके. ये योगी आदित्यनाथ की चुनावी राजनीति की पहली और इकलौती हार है.

26 साल की उम्र में पहली बार सांसद बनने से लेकर दूसरी बार यूपी का सीएम बनने तक, योगी आदित्यनाथ ख़ुद चुनाव कभी नहीं हारे हैं.

योगी और टकराव
अगर कभी पार्टी के भीतर ही योगी की बात ना सुनी जाए तो इसका असर चुनावी नतीजों में भी देखने को मिला.

जानकारों के मुताबिक़- योगी का बीजेपी में रहते हुए ही पार्टी नेताओं से टकराव रहा है. वो अपने लोगों की सूची नेतृत्व के सामने रखकर टिकट मांगा करते. कई बार योगी ने बीजेपी के ख़िलाफ़ ही बाग़ी उम्मीदवारों को खड़ा किया और प्रचार भी किया. मगर वक़्त के साथ योगी का रुख़ नरम हुआ.

योगी बनाम बीजेपी के बड़े नेताओं का यही ‘टकराव’ लोकसभा चुनावी नतीजों के बाद एक बार फिर दबी ज़बान सामने आ रहा है.

इस टकराव की बात दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने मई 2024 में कही थी.

एक चुनावी सभा में केजरीवाल ने दावा किया था, ”अगर ये चुनाव जीत गए तो मेरे से लिखवा लो- दो महीने के अंदर उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बदल देंगे ये लोग. योगी आदित्यनाथ की राजनीति ख़त्म करेंगे, उनको भी निपटा देंगे.”

हालांकि कई जानकारों ने बीबीसी से कहा- यूपी उपचुनाव तक ऐसा होने की कोई उम्मीद नहीं है और बीजेपी इतना बड़ा ख़तरा नहीं उठाएगी.

मगर यहां ये समझना ज़रूरी है कि यूपी से दिल्ली तक योगी के लिए अपने विधायक, नेता, सहयोगी ही क्यों चुनौती बनते नज़र आते हैं?

योगी से क्यों नाराज़ हैं यूपी में अपने?
बीजेपी की सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) की नेता और एनडीए सरकार में मंत्री अनुप्रिया पटेल ने भी योगी आदित्यनाथ से अपनी शिकायत सार्वजनिक की थी.

अनुप्रिया ने कहा था कि सरकार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े लोगों को रोज़गार देने के मामले में भेदभाव कर रही है.

योगी आदित्यनाथ की राजनीति में बुलडोज़र की ख़ास अहमियत है. चुनाव प्रचार के दौरान योगी की रैलियों में कई जगहों पर बुलडोजर भी खड़े किए गए थे.

इसी पर निषाद पार्टी के नेता संजय निषाद ने भी 16 जुलाई को कहा, ”अगर बुलडोज़र बेघर और ग़रीब लोगों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल होगा तो एकजुट होकर ये लोग हमें चुनाव में हरवा देंगे.”

जानकारों का कहना है कि दिल्ली से इशारे के बिना ये सब संभव नहीं और ये योगी के ख़िलाफ़ ज़मीन तैयार की जा रही है.

योगी के विधायकों, नेताओं का ‘दर्द’
योगी सरकार में मंत्री-नेता बनाम अधिकारी की लड़ाई को एक वाकये से समझिए.
योगी सरकार के एक मंत्री अधिकारियों के साथ बैठक ले रहे थे. एक शहर के मेयर ने मंत्री से कहा- ऑनलाइन जुड़े अधिकारियों ने अपना कैमरा तक नहीं खोला है, कोई अनुशासन नहीं है.

इस पर मंत्री ने कहा- आप अपना काम बताइए, काम हो जाएगा. अधिकारियों को छोड़ दीजिए.

ये इकलौता वाकया नहीं है.

लोकसभा चुनावी नतीजे आने के बाद ऐसी कई ख़बरें सामने आईं, जहां बीजेपी नेताओं की ओर से कहा गया कि अधिकारियों की चल रही है और पार्टी कार्यकर्ता परेशान किए जा रहे हैं.

क्या सच में ऐसा है? यही समझने के लिए बीबीसी ने योगी सरकार के दो विधायकों से बात की.

पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बीजेपी विधायक ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया, ”प्रदेश बीजेपी में आपसी मतभेद पिछली लोकसभा चुनावों के टिकट बँटवारे के समय ही सामने आ गए थे जब योगी आदित्यनाथ और केंद्रीय नेतृत्व के बीच उम्मीदवारों पर एकमत होने पर एक लंबे समय तक अनिश्चितता बनी रही थी.”

यूपी में बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के बीच कुछ दरार आने की बात पर दो बार से पार्टी टिकट पर चुनाव जीतने वाले एक वरिष्ठ विधायक ने बीबीसी को बताया, ”पिछले तीन-चार सालों के दौरान कई विधायकों में इस बात को लेकर थोड़ा असंतोष बढ़ा है कि नौकरशाही को ज़्यादा तरजीह दी जा रही है. मिसाल के तौर पर अपने चुनाव क्षेत्र में भी विधायकों को अफ़सरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं, तब भी आम लोगों के काम पूरे नहीं होते.”

क्या योगी ने वाक़ई अधिकारियों को ज़्यादा छूट दी है?
यूपी सरकार में एक अधिकारी ने बीबीसी हिंदी से कहा, ”पहले की सरकारों में कोई विधायक, सांसद शिकायत लेकर लखनऊ पहुंच जाता था तो ख़तरा बना रहता था. ट्रांसफर भी जल्दी जल्दी हो जाते थे. मगर योगी सरकार में ऐसा नहीं है.”

अधिकारी बोले, ”अब ऐसा हो गया है कि अगर कोई विधायक अड़ंगा डाल रहा है तो बीडीओ को अधिकार है कि वो अपना काम करे, अगर कोई शिकायत भी हुई और मामला गंभीर नहीं हुआ तो कार्रवाई नहीं की जाएगी.”

अगर ये सब करके योगी आदित्यनाथ को चुनौतियां मिल रही हैं तो वो ऐसा कर क्यों रहे हैं?

यूपी प्रशासन के एक अधिकारी ने पहचान छिपाए रखने की शर्त पर कहा, ”योगी जी को काम होते दिखने से मतलब है. अधिकारी बिजी दिखना चाहिए. चीज़ें आंकड़ों में चाहिए, काम करते हुए तस्वीरें भेजिए. वीडियो कॉलिंग करिए. अखिलेश की मशीनरी ये थी कि काम करिए, नतीजों में दिखेगा. योगी जी का ये है कि जनता के बीच काम होता भी दिखे.”

कानपुर में आठ पुलिसवालों को मारने वाले विकास दुबे का ‘एनकाउंटर’ हो, 2020 में हाथरस गैंगरेप-मर्डर केस में ज़िलाधिकारी को हटाने की मांग या फिर कुंभ मेले के दौरान हेलिकॉप्टर से फूल बरसाते यूपी पुलिस के बड़े अधिकारी. योगी और अधिकारियों के रिश्ते को आप ऐसे कई वाकयों से समझ सकते हैं.

‘द मॉन्क हू ट्रांसफोर्म्ड उत्तर प्रदेश’ किताब के लेखक शांतनु गुप्ता ने बीबीसी हिंदी से कहा, ”जो सख़्त प्रशासक होता है, उसके इर्द-गिर्द ये छवि बनती है. सुधार लाना मुश्किल होता है. कह देते हैं कि अफसरशाही है. अफसर काम नहीं करेगा तो कौन करेगा. पहले तीन-तीन महीने में अधिकारियों के ट्रांसफर हो जाते थे. अब लंबा वक्त मिलता है. अधिकारियों पर निगरानी रखी जाती है. उनको सुबह साढ़े सात बजे योगी का फोन आ जाता है.”

क्या मोदी मॉडल को अपना रहे हैं योगी?
एस जयशंकर, आरके सिंह, हरदीप पुरी, अश्विनी वैष्णव, अर्जुन मेघवाल जैसे कई बड़े नाम हैं जो पहले वरिष्ठ अधिकारी थे और बाद में मोदी कैबिनेट में जगह बना सके.

अधिकारियों पर निर्भर रहने वाला मॉडल गुजरात में बतौर सीएम नरेंद्र मोदी ने भी अपनाया था. गुजरात के कई अधिकारियों को मोदी दिल्ली लेकर भी आए.

ऐसे में क्या योगी मोदी के तरीके को ही अपना रहे हैं?

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉ पंकज कुमार ने कहा, ”मोदी जब सीएम बने तो उनको लगा कि मंत्रियों पर निर्भर रहने से अच्छा है कि दो चार अपने चुने अधिकारियों के ज़रिए प्रशासन चलाऊं. वहीं से ये नौकरशाही केंद्रित राजनीतिक व्यवस्था चली. इससे पहले राजनीतिक कार्यकर्ता केंद्र में होते थे.”

मगर ऐसी व्यवस्था में अफ़सरों और कार्यकर्ताओं में टकराव की स्थिति बन जाती है क्या?

डॉ पंकज कुमार जवाब देते हैं, ”अधिकारी बेलगाम हो जाते हैं. कार्यकर्ता हाशिए पर चला जाता है. इन चुनावों में बीजेपी का जो कार्यकर्ता घर बैठा, उसके पीछे बहुत बड़ा कारण यही है कि अधिकारियों के भ्रष्टाचार पर तो रोक नहीं लगी. लेकिन कार्यकर्ता को एक रोटी खाने को नहीं मिली. कार्यकर्ताओं के आरोप एकदम सही हैं. जब नौकरशाही केंद्रित मॉडल होगा तो उसमें कार्यकर्ता की उपेक्षा होगी.”

हिंदुस्तान अखबार के संपादक रह चुके वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी ने कहा- ”अंदर के लोग बताते हैं कि रिश्वतखोरी बढ़ी है. हर रिश्वतखोर कहता है कि योगी जी का डंडा चल रहा है, इसलिए भाव बढ़ गए हैं.”

यूपी बीजेपी के कई नेता कार्यकर्ताओं की ऐसी ही उपेक्षा की बातें कह चुके हैं.

फिर मोदी और शाह वो रुख़ क्यों नहीं अपना रहे, जो अतीत में अपना चुके हैं.

योगी को हटाना बीजेपी के लिए आसान क्यों नहीं है?
बीते कुछ सालों में बीजेपी शासित राज्यों और इन नामों को याद कीजिए.

मध्य प्रदेश: शिवराज सिंह चौहान
हरियाणा: मनोहर लाल खट्टर
उत्तराखंड: त्रिवेंद्र सिंह रावत और तीरथ सिंह रावत
गुजरात: विजय रुपाणी
त्रिपुरा: बिप्लब देब
चुनाव से पहले या चुनाव के बाद बीजेपी ने अपने बड़े चेहरों को सीएम कुर्सी से दूर किया है.

दूसरे दलों की तरह बीजेपी आलाकमान कभी इस ख़ौफ़ में नहीं दिखी कि पार्टी टूट सकती है. इसी कारण बीजेपी उन नेताओं को भी सीएम बना सकी, जिनके नाम का किसी को अंदाज़ा भी नहीं था.

मगर यूपी के मामले में ऐसा नहीं होता है. इसकी क्या वजह है?

प्रोफ़ेसर डॉ पंकज कुमार ने कहा, ”योगी आदित्यनाथ बीजेपी की मजबूरी भी हैं और मज़बूती भी. आप योगी को हटाएंगे तो वो चुप नहीं बैठेंगे और बीजेपी का ही नुकसान करेंगे. मज़बूती इसलिए हैं कि दूसरे राज्यों में भी अगर मोदी के बाद सबसे ज़्यादा डिमांड किसी की आती है तो वो योगी हैं. योगी ने फायर ब्रांड हिंदू नेता की छवि को बहुत अच्छे से बनाया है.”

प्रोफ़ेसर पंकज कुमार कहते हैं, ”दूसरी वजह है नाथ संप्रदाय, जो पूरे देश में फैला है और योगी उसके महंत हैं. बीजेपी इसकी उपयोगिता को समझती है.”

नाथ संप्रदाय, जाति और योगी आदित्यनाथ
“हिंदू ध्यावे देहुरा, मुसलमान मसीत… जोगी ध्यावे परम पद, जहां देहुरा ना मसीत.”

योगी आदित्यनाथ जिस गोरखपुर मंदिर के महंत भी हैं, उसके बाहर यही लाइन लिखी है.

इसका मतलब है- हिंदू मंदिर और मुसलमान मस्जिद का ध्यान करते हैं, पर योगी उस परमपद का ध्यान करते हैं, वे मंदिर या मस्जिद में उसे नहीं ढूंढते.

इस छवि की जड़ें नाथ संप्रदाय से योगी के रिश्ते से शुरू होती हैं.

योगी आदित्यनाथ ने फरवरी 1994 में नाथ संप्रदाय के सबसे प्रमुख मठ गोरखनाथ मंदिर के उत्तराधिकारी के रूप में अपने गुरु महंत अवैद्यनाथ से दीक्षा ली थी.

इस मठ को मानने वाले लोगों की संख्या भी काफी ज़्यादा है.

नवीन जोशी ने बीबीसी हिंदी से कहा, ”बाकी नेताओं और योगी आदित्यनाथ में फ़र्क ये है कि योगी के पास गोरखमठ के कारण अपना एक बड़ा निजी आधार है. सीएम बनने के बाद योगी ने अपनी हिंदू युवा वाहिनी को शांत करवा दिया था. इधर वो फिर सक्रिय हो रही है. योगी अपने तेवर दिखाने के लिए इसका इस्तेमाल कर सकते हैं.”

बीजेपी से जुड़े सूत्रों ने बीबीसी हिंदी को बताया, ”गोरखनाथ मठ के महंत को हटाने से हिंदुत्व वाला सिग्नल गलत चला जाएगा. जब राजनीति हिंदुत्व वाली है तो आपको बड़े मठ का ध्यान रखना होगा. योगी की ख़ुद की छवि भी हिंदुत्व वाली है.”

नवीन जोशी बोले, ”योगी युवा हैं. राजनीतिक प्रभाव के अलावा योगी के पास धार्मिक प्रभाव भी है. बीजेपी ने ख़ुद दूसरे राज्यों में योगी का इस्तेमाल किया है. योगी की डिमांड पूर्वोत्तर से भी आई थी. ये बात सही है कि 2024 के चुनावी नतीजों से योगी कमजोर हुए हैं.”

योगी आदित्यनाथ ठाकुर जाति से आते हैं.

जानकार कहते हैं कि योगी की लोकप्रियता उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश के ठाकुरों में काफी बढ़ चुकी है. उत्तर भारत में इनकी संख्या ठीक ठाक है. इसे खोने का भी बीजेपी को डर है. इन वजहों से योगी को हटाना आसान नहीं है.

मोदी-शाह और बीजेपी के सामने क्या चुनौतियां हैं?
ऐसे हालात जहां योगी का कद बढ़ने की संभावनाएं हैं और पार्टी को भी कमज़ोर होने से बचाना है, तब मोदी और शाह की अगुआई वाली बीजेपी के सामने क्या चुनौतियां हैं?

बीजेपी पर नज़र रखने वाले सूत्रों ने बीबीसी से कहा- ”मोदी, शाह और योगी तीनों के लिए एक ही चुनौती आ रही है. ये वो समय है, जहां बीजेपी का कमज़ोर होना दिख रहा है. लोकसभा चुनाव ने भी स्पष्टता के साथ इसको सामने ला दिया है. पार्टी के कमज़ोर होने पर जिसकी लोकप्रियता ज़्यादा होगी, वो भी नीचे आ जाएगी.”

प्रोफ़ेसर पंकज कुमार कहते हैं, ”योगी आदित्यनाथ मोदी के लिए उतनी बड़ी चुनौती नहीं हैं, जितनी शाह के लिए हैं. मोदी को तो अब अपना वारिस तैयार करना है. ये बात सही है कि अमित शाह की पूरे देश में न उतनी अपील है न जाति के मामले में कोई बढ़त है. ”

संघ से दूरी और क़रीबी
बीते सालों में कई बार हुआ जब मोदी के संघ से दूरी बरतने की बातें कही गईं. इसी साल अप्रैल में 10 साल में पहली बार था, जब नरेंद्र मोदी ने नागपुर में रात गुज़ारी.

प्रोफ़ेसर पंकज कुमार बोले, ”अमित शाह को मोदी से माइनस कर दें तो उनका अपना कोई आभामंडल नहीं है. पर योगी का है.”

लोकसभा चुनाव में बीजेपी अकेले बहुमत हासिल नहीं कर सकी है. ये चुनावी नतीजा तब आया है, जब बीजेपी 400 पार के नारे के साथ मैदान में उतरी थी.

वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी बोले, ”बीजेपी को अकेले बहुमत ना मिलने से मोदी कमज़ोर हुए हैं. रणनीति शाह की थी, तो वो भी कमज़ोर हुए हैं. यूपी में ज़्यादा सीटें आई होतीं तो योगी भी बड़े बनकर उभरते. योगी की आकांक्षा पीएम बनने की है या मोदी के बाद नंबर दो बनने की है. अगर योगी को लगातार उभरने दिया तो वो आगे चुनौती बनेंगे.”

नवीन जोशी कहते हैं- ”मोदी शाह की स्थिति अभी ये है कि वो न योगी को निगल पा रहे हैं, न उगल पा रहे हैं. एक फांस की तरह योगी मोदी और शाह के गले में अटके हुए हैं.”

बीजेपी की उलझन
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने कई इतिहास रचे हैं. मगर लगातार 10 साल की सत्ता के बाद अब पार्टी के सामने कई चुनौतियां हैं.

बीजेपी कवर करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ने बीबीसी से कहा, ”सपा का मजबूत होना बीजेपी के लिए चुनौती बनता है. चंद्रशेखर आज़ाद भी जीते हैं. आगे जाकर जाटव वोट भी चंद्रशेखर के पास जा सकता है. दूसरा राहुल गांधी का ग्राफ एकदम से बढ़ा है. संसद टीवी पर राहुल के व्यूज़ मोदी से 20 गुणा ज़्यादा हैं. गूगल सर्च के डेटा में भी राहुल गांधी आगे हैं.”

वो बोले, ”बीजेपी के लिए बंगाल खिसक चुका है. असम खिसक रहा है. यूपी में दिक्कत है. महाराष्ट्र में लोगों का झुकाव उद्धव की तरफ चला गया है. हरियाणा में कांग्रेस ही फायदा उठाएगी. ”

मगर इन चुनावों से पहले यूपी में जो अटकलें लग रही हैं, उससे क्या संगठन और सरकार दोनों कमज़ोर हो सकते हैं.

योगी आदित्यनाथ पर किताब लिखने वाले शांतनु कहते हैं- ”थोड़ी बहुत खटपट हर जगह होती है. बीजेपी में कोई भी ये सोच सकता है कि वो सीएम बन सकता है. सपा में अखिलेश के अलावा कोई नहीं सोच सकता. जब ये गुंजाइश होती है तो महत्वकांक्षाएं होती हैं. 2014 में नरेंद्र मोदी को थाली में सजाकर सब नहीं मिला था. पूरी लॉबिंग की गई थी.”

केशव और योगी
योगी बनाम केशव प्रसाद मौर्य की अटकलों में बीजेपी क्या करेगी?

बीजेपी से जुड़े सूत्रों ने बताया- ”केशव प्रसाद मौर्य को हटाना अब आसान नहीं है. वो ओबीसी हैं. अब मौर्य को हटाया तो कहा जाएगा कि पिछड़े विरोधी हैं. वही संविधान विरोधी वाला नैरेटिव चला जा रहा है. हर दिन योगी को सावधानी से चलना होगा.”

वरिष्ठ पत्रकार सुमन गुप्ता ने बीबीसी हिंदी पॉडकास्ट में कहा, ”योगी आदित्यनाथ से ज़्यादा बीजेपी के लिए चुनौती है कि क्या वो सीएम बदलने के लिए हिम्मत जुटा पा रही है. यूपी में सत्ता परिवर्तन होने जा रहा है, ऐसा कुछ नहीं होगा.”

योगी के सामने क्या चुनौतियां हैं?
ऐसा नहीं है कि योगी आदित्यनाथ के सामने सिर्फ़ पार्टी से जुड़ी चुनौतियां हैं.

अपने काम करने के तरीकों, पत्रकारों पर की जाने वाली कार्रवाइयों, ‘बुलडोजर बाबा’ की छवि और मुसलमानों के प्रति अपने रुख़ को लेकर योगी आदित्यनाथ पर सवाल उठते रहे हैं.

मगर इन दिनों योगी के सामने सवाल अपनों ने ही खड़े किए हैं.

पत्रकार नवीन जोशी कहते हैं, ”दो चीजों ने योगी को नुकसान पहुंचाया है. अपराधियों को योगी ने मरवाया या जेलों में डलवा दिया. वो बहुत सारे लोग दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के बीच से आते थे. क़ानूनन ये लोग अपराधी थे मगर ये मतदाताओं के बीच लोकप्रिय होते थे. इनका प्रभाव था. फिर जो बुलडोजर चलाया गया, इससे नुकसान हुआ. ”

वो बोले, ”योगी का ये रहता है कि लल्लो चप्पो नहीं करना है. वो कहते हैं- आप इसको करके दिखाइए, ये होगा या नहीं होगा. इस तरह का बर्ताव योगी का बैठकों में रहता है. 2024 के बाद कमज़ोर हुए हैं तो ये नाराज़गी उभर रही है.

केंद्र में जिस तरह मोदी के साथ शाह दिखते हैं, यूपी में योगी के साथ कोई नेता नहीं दिखता है.

शांतनु गुप्ता बोले, ”योगी संगठन से परंपरागत तरीके से नहीं आते हैं. जैसे नरेंद्र मोदी या अमित शाह का है. योगी ने संगठन में ऐसी कोई भूमिका भी नहीं निभाई है. योगी ये सब अब कर रहे हैं.”

कुछ दिन पहले लखनऊ के अकबरनगर में लोगों के घरों पर बुलडोज़र चलाए गए थे. प्रशासन का कहना था कि अवैध निर्माण पर कार्रवाई की गई.

नवीन जोशी ने कहा- ”योगी दबाव में हैं. इसे दो बात से समझिए. पंत नगर में घरों को गिराने का फैसला वापस लिया गया. शिक्षकों को डिजिटल हाजिरी लगाने का फैसला वापस लिया.”

योगी के लिए अब आगे क्या?
ऐसी चुनौतियों के बीच योगी आदित्यनाथ के लिए आगे का सियासी सफर कैसा हो सकता है?

शांतनु गुप्ता कहते हैं- ”मुझे लगता नहीं कि इतने लोकप्रिय नेता को हटाकर बीजेपी आत्मघाती कदम उठाएगी. हो सकता है कुछ फेरबदल कर दिया जाए. इतनी बड़ी पार्टी है, केंद्र में सरकार है, कुछ ख्वाहिशों को मैनेज किया जाएगा. योगी ये समझते हैं कि आप पार्टी के ज़रिए ही सरकार बना सकते हैं तो वो ख़ुद में भी कुछ बदलाव करेंगे.”

अगस्त 2024 में यूपी की 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हो सकते हैं. 2022 में इन 10 सीटों पर सपा पांच और बीजेपी तीन सीटें जीत सकी थी.

ये सीटें हैं- फूलपुर, कटेहरी, करहल, मिल्कीपुर, मीरापुर, ग़ाज़ियाबाद, मझवां, सीसामऊ, खैर, कुंदरकी.

प्रोफेसर पंकज कुमार कहते हैं, ”जो उपचुनाव होने जा रहा है, इसी पर योगी का बहुत कुछ निर्भर करेगा. अमित शाह भी ताक में हैं कि कैसे योगी को हटाया जाए. उनको सही मौक़ा नहीं मिल पा रहा. अमित शाह की प्रबंधन की शक्तियां होंगी लेकिन जनता की नज़र में शाह कहीं खरे नहीं उतरते.”

अखिलेश के उभार से बढ़ती चुनौती
इन चुनावों में यूपी के अंदर अखिलेश यादव की सपा भी बड़ी पार्टी बनकर उभरी है.

पत्रकार नवीन जोशी कहते हैं, ”अगर इस चुनाव में योगी अपनी कुर्सी बचा ले गए तो वो ताकतवर बनकर उभरेंगे. सपा, कांग्रेस ने जैसा असर अपना इन चुनावों में दिखाया है, तब तक वो इस माहौल को बनाए रखेंगे- ऐसा होना मुश्किल ही है. इसकी तुलना में योगी ज़्यादा प्रभावशाली बीजेपी के अंदर हो जाएंगे. योगी मोदी से ज़्यादा शाह के लिए चुनौती बनेंगे.”

वो बोले, ”योगी ने पार्टी के अंदरूनी मामलों में कभी सार्वजनिक तौर पर इशारों में भी कुछ नहीं कहा है. जैसे मौर्य बोलते हैं, वैसे योगी नहीं बोलते हैं. ये बात उनके पक्ष में जाती है.”

यूपी, बिहार से चुनावों के दौरान ऐसे कई वीडियो वायरल हुए, जिनमें मतदाता ये कहते दिखे कि दिल्ली में मोदी, यूपी में योगी.

कई चुनाव कवर कर चुके एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ”एक साल पहले ज़मीन पर नैरेटिव चल रहा था कि पहले मोदी, फिर योगी. मगर अब पहले मोदी पर ही अड़चन आ गई है तो फिर योगी पर भी अड़चन आ जाएगी.”

बीजेपी से जुड़े सूत्र बताते हैं- ”यूपी में बीजेपी के अंदर साफ बँटवारा दिखता है. दोनों डिप्टी सीएम योगी के साथ नहीं हैं. बैठक में भी शामिल नहीं होते. बहुत सारे विधायकों के बीच योगी की बहुत अच्छी छवि अब नहीं है. योगी के साथ जो पार्टी नीचे आ ही रही है, योगी को हटाएंगे तो और नुकसान हो सकता है.”

कई सवालों वाला उत्तर प्रदेश
मई 2019 में बीजेपी के वरिष्ठ नेता रहे यशवंत सिन्हा ने दावा किया था कि 2002 दंगों के बाद तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी नरेंद्र मोदी को हटाना चाहते थे, मगर लाल कृष्ण आडवाणी ने ऐसा नहीं होने दिया.

साल बीते और 2013 में पीएम पद की रेस में आडवाणी मोदी से पिछड़ गए.

फिर 2014 में जब मोदी पीएम बने तो आडवाणी मार्गदर्शक मंडल में भेज दिए गए.

2017 में यूपी का सीएम कौन होगा, इस सवाल के जवाब में जब मनोज सिन्हा, केशव प्रसाद मौर्य का नाम सुनाई दे रहा था, तब मोदी, शाह के नेतृत्व में योगी आदित्यनाथ ने सीएम पद की शपथ ली.

इन बीते सालों में एक बड़ी आबादी की नज़र में मोदी के बाद योगी का कद ठहरता है.

राजनीति में अकसर इतिहास ख़ुद को दोहराता है. ये मामूली सी बात शायद कई नेताओं की बेचैनी बढ़ा सकती है. साभार- बीबीसी

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