उपासना स्थल क़ानून की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई आज, 1991 के विवादित कानून पर केंद्रित कई याचिकाएं लंबित

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली
,12 दिसंबर।

सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ गुरुवार को 1991 के उपासना स्थल क़ानून (प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करेगी। यह क़ानून धार्मिक स्थलों की स्थिति को 15 अगस्त 1947 के स्वरूप में बनाए रखने की बात करता है। इस मामले में कम से कम छह याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं, जिनमें अभी तक बहस शुरू नहीं हुई है।

सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में इन याचिकाओं पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया था। प्रमुख याचिकाकर्ता और बीजेपी नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने इस कानून को धर्मनिरपेक्षता और समानता के सिद्धांतों के खिलाफ बताते हुए इसे चुनौती दी है। वहीं, जमियत उलेमा-ए-हिंद, सीपीआई (एम), और कई एक्टिविस्ट्स ने इस कानून के पक्ष में याचिकाएं दाखिल की हैं।

1991 का उपासना स्थल क़ानून: क्या है इसमें?

1991 में नरसिम्हा राव सरकार द्वारा पारित यह क़ानून स्पष्ट करता है कि 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस स्वरूप में था, उसे बदला नहीं जा सकता। इसमें धार्मिक स्थलों की स्थिति बनाए रखने के लिए कुछ प्रमुख प्रावधान शामिल हैं:

  • सेक्शन 3:
    किसी भी धार्मिक स्थल के स्वरूप को बदलने की कोशिश करना कानूनन अपराध है।
  • सेक्शन 4(1):
    15 अगस्त 1947 को धार्मिक स्थल जिस स्थिति में थे, उन्हें उसी स्वरूप में रखना होगा।
  • सेक्शन 4(2):
    1947 के बाद किसी धार्मिक स्थल के स्वरूप में बदलाव को लेकर लंबित मामलों को खारिज कर दिया जाएगा।
  • सेक्शन 5:
    राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को इस कानून से अलग रखा गया है।

यह क़ानून ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा की शाही ईदगाह और देशभर के अन्य धार्मिक स्थलों पर लागू होता है।

1991 में क़ानून क्यों लाया गया?

1991 का उपासना स्थल क़ानून ऐसे समय में लाया गया जब अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन अपने चरम पर था। उस वक्त, देश में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ रहा था और कई धार्मिक स्थलों पर विवाद हो रहे थे। नरसिम्हा राव सरकार ने इसे सांप्रदायिक तनाव को कम करने और धार्मिक स्थलों की स्थिति को स्थिर बनाए रखने के उद्देश्य से लागू किया।

हालांकि, बीजेपी सहित कई संगठनों ने इस कानून का विरोध किया। उनका कहना था कि इससे हिंदू समुदाय के अधिकारों का हनन हो रहा है और ऐसे विवादों को नजरअंदाज किया जा रहा है जहां मस्जिदें मंदिरों को तोड़कर बनाई गई थीं।

कोर्ट में लंबित मामले

वर्तमान में कई राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में 10 से अधिक धार्मिक स्थलों के मामले अदालतों में लंबित हैं। इनमें दावा किया गया है कि कई मौजूदा मस्जिदें और स्मारक हिंदू मंदिरों को तोड़कर बनाए गए हैं। दूसरी ओर, मुस्लिम पक्ष का तर्क है कि इन मुकदमों को 1991 के क़ानून के तहत रद्द किया जाना चाहिए।

विवादित याचिकाएं और उनकी दलीलें

अश्विनी उपाध्याय और अन्य याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह क़ानून धर्मनिरपेक्षता और समानता जैसे संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। उनका तर्क है कि यह हिंदुओं को अन्याय का शिकार बनाता है और ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने के रास्ते बंद कर देता है।

दूसरी ओर, जमियत उलेमा-ए-हिंद, सीपीआई (एम), और कई अन्य संगठनों का कहना है कि यह क़ानून सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए जरूरी है। उनका तर्क है कि अगर इस कानून को रद्द किया गया, तो इससे धार्मिक विवाद और हिंसा को बढ़ावा मिलेगा।

सुप्रीम कोर्ट में आज की सुनवाई

आज की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट यह तय करेगा कि इस कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर आगे कैसे कार्रवाई की जाए। यह मामला न केवल संवैधानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इससे देश के धार्मिक और सामाजिक ताने-बाने पर भी गहरा प्रभाव पड़ सकता है।

अहम सवाल और संभावनाएं

  • क्या उपासना स्थल क़ानून को संवैधानिक घोषित किया जाएगा?
  • क्या सुप्रीम कोर्ट इस कानून में संशोधन की सिफारिश करेगा?
  • धार्मिक स्थलों के विवादों का समाधान कैसे निकलेगा?

यह देखना दिलचस्प होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर क्या रुख अपनाता है। यह मामला न केवल कानून और धर्म के बीच संतुलन का है, बल्कि भारत के धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सौहार्द की परीक्षा भी है।

 

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