जातिगत राजनीति का अंत: समावेशी लोकतंत्र की ओर नीडोनॉमिक्स का मार्ग

प्रो. मदन मोहन गोयल, नीडोनॉमिक्स के प्रवर्तक एवं पूर्व कुलपति (तीन बार)

भारतीय लोकतंत्र अपनी विविधता, सह-अस्तित्व और समावेशिता के कारण विश्व में अद्वितीय है। लेकिन यह विडंबना है कि आज भी राजनीति में जाति सबसे बड़ा हथियार बनी हुई है। वोट बैंक की राजनीति ने जाति को सशक्तिकरण के नाम पर बार-बार इस्तेमाल किया है, जबकि वास्तव में इससे समाज में विभाजन गहराता है और लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती हैं। स्वतंत्रता के 75 वर्षों बाद भी यदि चुनावी रणनीतियाँ जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमती हैं, तो यह हमारे लोकतांत्रिक आदर्शों के लिए चिंता का विषय है।

ऐसे समय में नीडोनॉमिक्स विचारधारा राजनीति को नया दृष्टिकोण देती है। नीडोनॉमिक्स जरूरत को लालच पर प्राथमिकता देने की बात करती है और वास्तविक मानवीय आवश्यकताओं—शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और गरिमा—को राजनीति के केंद्र में रखने पर बल देती है। जातिगत राजनीति का अंत केवल नैतिक आग्रह नहीं, बल्कि लोकतंत्र की स्थिरता और विकास की अनिवार्यता है। समावेशी लोकतंत्र की ओर बढ़ते हुए नीडोनॉमिक्स हमें यह सिखाता है कि वोट बैंक की संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठकर जरूरतों पर आधारित राजनीति ही सच्चे सशक्तिकरण और साझा प्रगति का मार्ग है।

जातिसामाजिक संरचनाराजनीतिक हथियार नहीं

ऐतिहासिक रूप से जाति सामाजिक संगठन और श्रम विभाजन का एक ढांचा थी। समय के साथ यह एक ऐसी व्यवस्था में बदल गई जिसने संपूर्ण समुदायों को हाशिये पर धकेल दिया। आधुनिक भारत समानता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय की गारंटी देता है तथा ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों के उत्थान के लिए आरक्षण जैसी व्यवस्थाएँ करता है। लेकिन राजनीतिक दल इन व्यवस्थाओं को समावेशन की जगह चुनावी लाभ के लिए भुनाते हैं।

यह दृष्टिकोण दो तरह से हानिकारक है। पहला, यह पहचान-आधारित मतदान को प्रोत्साहित करता है जिससे नागरिक केवल वोट बैंक बनकर रह जाते हैं, न कि सशक्त व्यक्ति। दूसरा, यह उम्मीदवारों के गुणों और योग्यता पर आधारित मूल्यांकन को कमजोर करता है, जिससे लोकतांत्रिक जवाबदेही घटती है। जातिगत गणनाओं पर आधारित राजनीति अल्पकालिक लाभ के लिए दीर्घकालिक सामाजिक भलाई का बलिदान करती है।

नैतिक राजनीति के लिए मूव (MOVE) ढांचा

एक अधिक समावेशी लोकतंत्र बनाने के लिए राजनीति को MOVE ढांचे को अपनाना होगा—

  1. Morality (नैतिकता) – राजनीतिक कार्रवाई नैतिक सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होनी चाहिए। जाति के आधार पर लोगों को एकत्र होने के अधिकार से वंचित करना लोकतंत्र की नैतिक नींव को कमजोर करता है। इसके बजाय सरकारों को संवाद और समझ बढ़ाने वाले शांतिपूर्ण सम्मेलनों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
  2. Opulence (समृद्धि) – राजनीति में सच्ची समृद्धि धन या भीड़ जुटाने से नहीं, बल्कि विचारों की समृद्धि, समावेशिता और नीतिगत नवाचार से मापी जाती है। दृष्टि और बौद्धिकता पर आधारित नेतृत्व लोकतंत्र को मजबूत बनाता है।
  3. Victory (विजय) – चुनावी विजय विश्वास अर्जित करने, सुशासन और जनता की आवश्यकताओं के प्रति उत्तरदायित्व से प्राप्त होनी चाहिए, न कि जातिगत समीकरणों से। सेवा से प्राप्त विजय स्थायी होती है, जबकि वोट-बैंक से मिली विजय क्षणिक है।
  4. Empowerment (सशक्तिकरण) – वास्तविक सशक्तिकरण प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से आगे बढ़कर शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं और गरिमा तक पहुँच सुनिश्चित करने में है। राजनीतिक रणनीतियाँ पहचान-आधारित राजनीति से ऊपर उठकर मानव विकास को प्राथमिकता दें।

नीडोनॉमिक्सजरूरतों की अर्थशास्त्र से समावेशी राजनीति

नीडोनॉमिक्स विचारधारा इन मुद्दों का विश्लेषण करने के लिए एक अनोखा ढांचा प्रस्तुत करती है। नीडोनॉमिक्स जरूरत को लालच पर प्राथमिकता देती है और नैतिक, टिकाऊ तथा समावेशी आचरण का समर्थन करती है। राजनीति में लागू होने पर यह बहिष्कारी पहचान-आधारित राजनीति से हटकर वास्तविक मानवीय जरूरतों पर आधारित समावेशन को बढ़ावा देती है।

एक नीडोनॉमिक्स समर्थक के रूप में मेरा मानना है कि राजनीतिक विमर्श को जाति या धर्म के बजाय शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा जैसी मूलभूत जरूरतों को प्राथमिकता देनी चाहिए। जातिगत राजनीति वोट और सत्ता के लालच पर आधारित है; नीडोनॉमिक्स लोगों की जरूरतों और सार्वजनिक हित को प्राथमिकता देती है। मानव जरूरतों से जुड़ी राजनीति भारत को नैतिक, सहभागी और सशक्त लोकतंत्र की ओर ले जाएगी।

जातिगत “सशक्तिकरण” के खतरे

जातिगत सशक्तिकरण अक्सर गहरी असफलताओं को छुपाता है। केवल जाति आधारित राजनीतिक प्रतिनिधित्व सामाजिक-आर्थिक उत्थान की गारंटी नहीं देता। आरक्षण नीतियाँ, यद्यपि आवश्यक हैं, राजनीतिक संरक्षणवाद के लिए इस्तेमाल की जा सकती हैं, न कि वास्तविक प्रगति के लिए।

समुदायों को दबाने के बजाय सम्मेलनों को रचनात्मक संवाद और सामूहिक विकास के मंच बनाना ही सच्चा सशक्तिकरण है। जातिगत राजनीति समाज को विभाजित करती है, राष्ट्रीय एकता को कमजोर करती है और दीर्घकालिक विकास में बाधा डालती है।

तुष्टिकरण से वास्तविक जरूरतों की ओर

आगे का रास्ता तुष्टिकरण से हटकर वास्तविक जरूरतों को संबोधित करने में है। जरूरत-आधारित राजनीति को प्राथमिकता देनी चाहिए:

  • जाति-विशिष्ट छात्रवृत्ति की बजाय सर्वजन के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की सार्वभौमिक पहुँच।
  • जातिगत आरक्षण से इतर सभी के लिए रोजगार के अवसर।
  • वोट बैंक केंद्रित योजनाओं की जगह हर नागरिक के लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ।
  • सभी समुदायों को समान रूप से लाभान्वित करने वाला बुनियादी ढांचा विकास।

समावेशन की राजनीति की ओर

समावेशन का अर्थ जाति की वास्तविकताओं को नकारना नहीं है, बल्कि उन्हें पार करना है। राजनीतिक दलों को अल्पकालिक प्रलोभनों से बचना चाहिए और योग्यता, दृष्टि और सेवा पर आधारित नेतृत्व को प्रोत्साहित करना चाहिए। आंतरिक पार्टी लोकतंत्र, पारदर्शी उम्मीदवार चयन और मतदाताओं के प्रति जवाबदेही समावेशी शासन की ओर आवश्यक कदम हैं।

समावेशन केवल नैतिक कर्तव्य ही नहीं बल्कि व्यावहारिक आवश्यकता भी है। जो समाज समावेशन को अपनाते हैं वे अधिक स्थिर, सशक्त और टिकाऊ होते हैं। भारतीय राजनीति को यही मार्ग अपनाना चाहिए यदि वह नागरिकों को वास्तविक सशक्तिकरण देना चाहती है।

निष्कर्ष

सच्चा सशक्तिकरण तब उभरता है जब राजनीति वोट-बैंक की गणनाओं से आगे बढ़कर जनता की वास्तविक जरूरतों को संबोधित करती है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जाति सम्मेलनों पर लगाया गया प्रतिबंध जातिगत राजनीति को रचनात्मक रूप से संभालने में असफलता का लक्षण है। भारत को ऐसे रूपांतरकारी नेतृत्व की जरूरत है जो लालच पर जरूरत, बहिष्कार पर समावेशन और अवसरवाद पर नैतिकता को प्राथमिकता दे। नीडोनॉमिक्स इस दृष्टि को प्रस्तुत करती है—एक ऐसा ढांचा जो राजनीति को मानवीय जरूरतों, नैतिक शासन और समावेशी विकास में आधार देता है। अब समय आ गया है कि जातिगत राजनीति का अंत कर ऐसा लोकतंत्र अपनाया जाए जो सभी नागरिकों को सशक्त बनाए, गरिमा, समानता और साझा प्रगति सुनिश्चित करे। तभी भारत सच्चे, समावेशी लोकतंत्र का वादा पूरा कर सकेगा।

 

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