आरएसएस शताब्दी सरसंघचालक जी का संदेश : हिमालय की चेतावनी और पर्यावरणीय प्रज्ञा हेतु नीडोनॉमिक्स का मार्ग

प्रो. मदन मोहन गोयल, नीडोनॉमिक्स के प्रवर्तक एवं पूर्व कुलपति (तीन बार)

विजयदशमी 2 अक्टूबर के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का शताब्दी उत्सव केवल स्मरण का अवसर नहीं रहा, बल्कि यह समाज के लिए आत्मचिंतन का क्षण बन गया। सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी ने अपने विजयादशमी उद्बोधन में ऐसी चिंताएँ उठाईं जो संगठन की सीमाओं से परे हैं और मानवता के अस्तित्व को स्पर्श करती हैं। विशेषकर हिमालय के पर्यावरणीय संकट पर उनका जोर हमें प्रकृति के साथ अपने संबंधों पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य करता है।

नीडोनॉमिक्स स्कूल ऑफ थॉट ( एनएसटी) के दृष्टिकोण से यह संदेश केवल संरक्षण का नहीं, बल्कि उस असंतुलन को सुधारने का आह्वान है जो ग्रीडोनॉमिक्स—अर्थात् इच्छाओं, अपव्यय और शोषण की अर्थशास्त्र—के कारण उत्पन्न हुआ है। एशिया के “जल स्तंभ” कहे जाने वाले हिमालय आज इसलिए संकट में हैं क्योंकि विकास को विवेक के बजाय भौतिकवाद ने संचालित किया है। भागवत जी का आह्वान नीडोनॉमिक्स के मूल सिद्धांतों के साथ प्रतिध्वनित होता है—संतुलन के साथ जीना, आवश्यकताओं को वरीयता देना और लापरवाही की जगह जिम्मेदारी निभाना।

इस प्रकार आरएसएस का शताब्दी उत्सव सांस्कृतिक-आध्यात्मिक मूल्यों को पारिस्थितिक बुद्धिमत्ता से जोड़ने का अवसर प्रस्तुत करता है। यह स्मरण कराता है कि भारत की वास्तविक नेतृत्व क्षमता केवल आर्थिक वृद्धि में नहीं, बल्कि विश्व को एक सतत मार्ग दिखाने में है, जहाँ नीति और पारिस्थितिकी का संगम हो।

हिमालय : मानवता की जीवनरेखा

हिमालय को प्रायः “एशिया का जल टॉवर” कहा जाता है, जो पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया को जल आपूर्ति करता है। हिमालय से निकलने वाली प्रमुख नदियाँ भारत, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और अन्य देशों के करोड़ों लोगों का जीवन संवारती हैं। वे न केवल जीवनदायिनी जल का स्रोत हैं बल्कि भारत की पर्यावरणीय और सामरिक सुरक्षा के लिए भी एक रक्षक दीवार का कार्य करती हैं।

फिर भी, हाल के वर्षों में भौतिकवादी और उपभोक्तावादी दृष्टिकोण से प्रेरित अविवेकी विकास मॉडल ने इस नाजुक पारिस्थितिक तंत्र को गहराई से प्रभावित किया है। अनियंत्रित पर्यटन, वनों की अंधाधुंध कटाई, जलविद्युत परियोजनाएँ और जलवायु परिवर्तन से पिघलते ग्लेशियरों ने हिमालय को अभूतपूर्व संकट में डाल दिया है। भूस्खलन, बाढ़ और ग्लेशियर झील विस्फोट अब अपवाद नहीं, बल्कि नियमित आपदाएँ बनते जा रहे हैं।

ये केवल प्राकृतिक घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि मानव द्वारा किए गए गलत विकल्पों का परिणाम हैं। नीडोनॉमिक्स स्कूल ऑफ थॉट (NST) इन्हें ग्रीडोनॉमिक्स (लोभ की अर्थव्यवस्था) कहता है—जहाँ असीमित उपभोग, संसाधनों का दोहन और तात्कालिक लाभ दीर्घकालिक स्थिरता और सामूहिक कल्याण से ऊपर रखे जाते हैं।

नागपुर की स्मृतियाँ और चेतावनी का प्रतिध्वनन

मुझे 25 जनवरी 2024 को श्री भुजंग बोबाडे जी के साथ नागपुर स्थित आरएसएस मुख्यालय की अपनी यात्रा स्मरण है। वही स्मृति सरसंघचालक की चेतावनी को मेरे लिए और भी सजीव बना देती है। उसी स्थान पर इस वर्ष का विजयदशमी संदेश दिया गया था, इसलिए मैं उनके संदेश की गंभीरता को और गहराई से समझ सकता हूँ।

श्री मोहन जी का पारिस्थितिक जिम्मेदारी पर जोर केवल नैतिक अपील नहीं है—यह भारत और विश्व के लिए रणनीतिक अनिवार्यता है। हिमालय में हो रही आपदाएँ हमें केवल चेतावनी नहीं देतीं बल्कि विकास की अवधारणाओं को पारिस्थितिक मर्यादाओं के अनुरूप पुनः गढ़ने की चुनौती भी प्रस्तुत करती हैं।

ग्रीडोनॉमिक्स से नीडोनॉमिक्स तक

नीडोनॉमिक्स का प्रवर्तक होने के नाते मेरा दृढ़ विश्वास है कि मोहन जी द्वारा उठाई गई पर्यावरणीय चिंताओं का समाधान गीता-प्रेरित नीडोनॉमिक्स में है—यानी आवश्यकताओं की अर्थव्यवस्था, लालच और अतिरेक की नहीं। सामान्य विवेक और पर्यावरणीय नैतिकता पर आधारित नीडोनॉमिक्स ग्रीडोनॉमिक्स की शोषणकारी प्रवृत्तियों का विकल्प प्रदान करता है।

भगवद्गीता, जो नीडोनॉमिक्स की दार्शनिक नींव है, संतुलन, संयम और जिम्मेदारी का संदेश देती है। यह लोभ-प्रेरित इच्छाओं से विरक्ति और व्यापक कल्याण की चेतना के साथ कर्तव्यपरायण कर्म पर बल देती है। अर्थशास्त्र में इसे लागू करने का अर्थ है—जरूरतों को असीमित इच्छाओं से ऊपर रखना, दोहन की बजाय स्थिरता पर बल देना और स्वामित्व की बजाय संरक्षण को प्राथमिकता देना।

नीडोनॉमिक्स अंध उपभोक्तावाद की बजाय सचेत उपभोग (नीडो-उपभोग) को बढ़ावा देता है। यह नीति-निर्माताओं से ऐसी नीतियाँ बनाने का आग्रह करता है जो वास्तविक जरूरतों—शुद्ध जल, स्वच्छ वायु, खाद्य सुरक्षा, आश्रय, शिक्षा और स्वास्थ्य—को प्राथमिकता दें, न कि कृत्रिम इच्छाओं को जो बाज़ार और विज्ञापन द्वारा निर्मित होती हैं।

पुनर्संरेखण का आह्वान

आरएसएस की शताब्दी हमारे लिए प्राथमिकताओं को पुनर्संरेखित करने का ऐतिहासिक अवसर है। नीति-निर्माताओं, उद्योगों, समुदायों और व्यक्तियों को यह स्वीकार करना होगा कि पर्यावरणीय संकट आर्थिक विकल्पों से गहराई से जुड़े हुए हैं। यदि भारत नीडोनॉमिक्स को एक पर्यावरणीय और आर्थिक दर्शन के रूप में अपनाता है, तो यह विश्व को सतत समृद्धि के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित कर सकता है।

उद्योगों के लिए इसका अर्थ है हरित तकनीकों में निवेश, परिपत्र अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन और पारिस्थितिक पदचिह्नों को न्यूनतम करना। नीति-निर्माताओं के लिए इसका अर्थ है ऐसी विकास रणनीतियाँ बनाना जो विकास और स्थिरता में संतुलन बनाएँ। व्यक्तियों और समुदायों के लिए इसका अर्थ है—उपभोग में संयम, प्रकृति का सम्मान और सरल, जिम्मेदार और सजग जीवनशैली अपनाना।

नीडोनॉमिक्स की वैश्विक प्रासंगिकता

सरसंघचालक द्वारा उठाए गए मुद्दे केवल भारत तक सीमित नहीं हैं। जलवायु असंतुलन, पर्यावरणीय क्षरण और प्राकृतिक आपदाएँ वैश्विक घटनाएँ हैं। यूरोप और अमेरिका की जंगल की आग से लेकर अफ्रीका और एशिया की बाढ़ तक, ग्रीडोनॉमिक्स के परिणाम हर जगह स्पष्ट हैं।

नीडोनॉमिक्स इसलिए केवल एक भारतीय दर्शन नहीं बल्कि एक सार्वभौमिक ढाँचा है। यह वैश्विक नागरिकों को प्रकृति की सीमाओं के भीतर रहते हुए मानव गरिमा और अंतरपीढ़ी न्याय सुनिश्चित करने का मार्ग प्रदान करता है।

निष्कर्ष

आरएसएस की शताब्दी पर सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी का संदेश स्पष्ट है—पर्यावरणीय प्रज्ञा संयम की माँग करती है। मानवता का अस्तित्व तभी संभव है जब अर्थशास्त्र को नैतिकता से और आवश्यकताओं को प्रकृति से जोड़ा जाए। सरसंघचालक की वाणी और नीडोनॉमिक्स का जनादेश इस अनिवार्य सत्य पर एकत्रित होते हैं। समाधान अधिक उपभोग में नहीं बल्कि सचेत उपभोग (नीडो-कंजम्प्शन) में है; अंध शोषण में नहीं बल्कि जिम्मेदार संरक्षण में है। यदि हम इस आह्वान पर ध्यान दें, तो हिमालय मानवता की जीवनरेखा बने रह सकते हैं, न कि उसके लिए मृत्यु का चेतावनी संकेत। मार्ग स्पष्ट है—ग्रीडोनॉमिक्स से नीडोनॉमिक्स तक, दोहन से संरक्षण तक, अविवेकी विकास से जिम्मेदार संरक्षण तक—यही 21वीं सदी में पर्यावरणीय प्रज्ञा का मार्ग है।

 

  

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