खड़गे के भाग्य से कैसे छींका टूटा

त्रिदीब रमण
 त्रिदीब रमण

तेरे मेरे दरम्यान अब कहने को भला रह क्या गया है

सुनता हूं सिर्फ सन्नाटों को, जब से तू घर से गया है’

सियासत सचमुच इत्तफाकों का पुलिंदा है। मल्लिकार्जुन खड़गे ने पहले भी कोशिश की थी कि गांधी परिवार उन्हें अध्यक्षीय जिम्मेदारी सौंप दे, पर तब सोनिया और राहुल के मन में बस एक ही नाम चल रहा था अशोक गहलोत का, गांधी परिवार के प्रति भक्ति कांग्रेस में एक मिसाल के तौर पर जानी जाती रही थी, पर गहलोत थोड़े बेवफा क्या हुए, खड़गे की सोई किस्मत जाग उठी। मुकुल वासिनक को चाहने वाले तब सोनिया दरबार में इस बात की पैरवी में जुटे थे कि एक दलित अध्यक्ष बनाने से देशभर में सकारात्मक संदेश जाएगा, ठीक उसी वक्त ए के एंटोनी ने सोनिया को सलाह दी कि ’अगर दलित अध्यक्ष ही बनाना है तो अपने मल्लिकार्जुन खड़गे क्या बुरे हैं?’ तीन बातें जो खड़गे के पक्ष में जा रही थी, गांधी परिवार के प्रति उनकी सच्ची वफादारी, उनका दलित होना और कर्नाटक में जारी गुटबाजी पर विराम लगना। इसके अलावा खड़गे के जी-23 के नेताओं से भी बेहद अच्छे ताल्लुकात हैं, सो उनके नामांकन के वक्त आनंद शर्मा से लेकर मनीश तिवारी तक की उपस्थिति दर्ज हुई। खड़गे के अन्य विपक्षी दलों के नेताओं से भी बेहद अच्छे ताल्लुकात हैं, जैसे शरद पवार और सीताराम येचुरी उनके अभिन्न मित्रों की सूची में शुमार होते हैं, राज्यसभा में भी वे विरोधी दल के नेता के तौर पर लोकप्रिय हैं। एक पद, एक नेता के उदयपुर के चिंतन शिविर की भावनाओं को धार देते हुए उन्होंने शनिवार को राज्यसभा के नेता विपक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

गांधी परिवार से निष्ठा नहीं बदली

खड़गे पिछले कई दशकों से कर्नाटक की राजनीति में सक्रिय रहे हैं, 2008 तक उन्होंने 9 विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की, वे 2 दफे लोकसभा में भी निरंतरता में जीत हासिल की। उनके बारे में कन्नड़ में मशहूर है ’सोली लद्दा सारादारा’ यानी एक अजेय नेता, जो कभी हारा नहीं।’ पर यह मिथक 2019 में टूट गया जब 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा, इससे पहले वह 2014 को लोकसभा चुनाव जीत चुके थे। पर जो दो बातें उनके खिलाफ जाती हैं, एक तो उनकी उम्र और उनका स्वास्थ्य,  वे 80 साल के हो गए हैं, उन्हें चलने के लिए भी सहारे की जरूरत पड़ जाती है, दूसरा अगर गहलोत अध्यक्ष बनते तो देश के ओबीसी वोटरों में इसका एक सकारात्मक संदेश जाता। गांधी परिवार के प्रति इनकी असीम भक्ति का एक नमूना देखिए, 2004 के दौर में जब एसएम कृष्णा को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा तो सबको उम्मीद थी कि उनके मंत्रिमंडल में नंबर दो खड़गे कर्नाटक के अगले मुख्यमंत्री बनेंगे, पर उनकी तमाम उम्मीदों को धत्ता बताते हुए हाईकमान ने कृष्णा की गद्दी पर धरम सिंह को बिठा दिया। पर खड़गे ने उफ् तक नहीं की, हालांकि उनके समर्थक चाहते थे कि वे दिल्ली जाकर हाईकमान के समक्ष अपना विरोध दर्ज कराएं, पर खड़गे ने ऐसा नहीं किया। यही कुछ बातें उनके हक में गई और गांधी परिवार ने 2014 में उन्हें लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बना दिया।

अशोक चौधरी से राहुल की नाराज़गी

पिछले दिनों जब नीतीश दिल्ली में थे और यहां उनकी राहुल गांधी से वन-टू-वन मुलाकात होनी थी तो वे इस मुलाकात के क्रम में अपनी सरकार के मंत्री अशोक चौधरी को भी साथ लेकर गए। सनद रहे कि चौधरी पहले बिहार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हुआ करते थे, बाद में उन्होंने कांग्रेस छोड़ जदयू का दामन थाम लिया और नीतीश सरकार में मंत्री बन गए। तब यह बात राहुल को बेहद नागवार गुजरी थी। पर चौधरी ने नीतीश के समक्ष कायदे से यह तुर्रा उछाला था कि उनके राहुल से किंचित अब भी उतने ही मधुर संबंध हैं। सो, जैसे ही नीतीश राहुल से मिलने उनके कमरे में दाखिल हुए, राहुल के चेहरे की भाव-भंगिमाएं बदल गईं, उन्होंने तंज भरे लहजे में चौधरी से पूछा-’आजकल आप किस दल में हैं?’ चौधरी से कोई जवाब देते नहीं बना। मामले की नजाकत को भांपते नीतीश ने भी चौधरी को इस मीटिंग से आउट कर दिया और उन्होंने राहुल से वन-टू-वन बात की। सूत्रों की मानें तो मीटिंग की समाप्ति के बाद राहुल ने चौधरी के साथ शिष्टाचार के तहत कैद की जाने वाली तस्वीरों में भी आने से मना कर दिया।  सो, बाद में चौधरी ने राहुल के साथ इस शिष्टाचार मुलाकात की एक फोटो शेयर करते हुए ट्वीट किया। जब लोगों ने इस फोटो की हकीकत को खंगाला तो पता चला कि यह उनकी राहुल के साथ की एक पुरानी तस्वीर है, जिसमें दोनों सर्दियों के कपड़ों में नज़र आ रहे हैं।

क्या भगवा होने की तैयारी में हैं तिवारी

कांग्रेस के बागी गुट जी-23 के नेता मनीष तिवारी अपने गॉडफादर अहमद पटेल के आकस्मिक निधन के बाद से ही सियासी बियावां में अकेले भटक रहे हैं। एक वक्त चर्चा जोरों पर थी कि तिवारी ने आप से हाथ मिला लिए हैं और उनकी इन दिनों आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल से गहरी छन रही है। पर अपनी आदत और रणनीति के अनुसार ही केजरीवाल ने अपने व मनीष के गर्मजोशी भरे रिश्तों को ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया। क्योंकि केजरीवाल की यह सोची-समझी रणनीति है कि वे किसी भी नामचीन या बड़े नेता को आप में शामिल नहीं करना चाहते, जो शामिल भी हुए उन्हें किनारे कर दिया गया। चूंकि मनीष के हालिया दिनों के राजनैतिक गुरू कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भाजपा की ठौर पकड़ ली है सो लगातार यह कयास लगाए जा रहे हैं कि देर-सबेर तिवारी भी भाजपा का दामन थाम लेंगे। मनीष इस दफे लुधियाना से लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं, सो वे जानते हैं कि बिना कैप्टन की मदद से उनका यहां से चुनाव जीत पाना संभव नहीं है।

बेटे के लिए टिकट मांग रहे हैं कैप्टन

कैप्टन अमरिंदर सिंह अपनी नई नवेली पार्टी का भाजपा में विलय कर अपने बेटे समेत जबसे भगवा रंग में रंगे हैं, उनकी सियासी बेचैनियां नित्य नए आकार ले रही है। कैप्टन को लग रहा है कि भाजपा में उन्हें उतना भाव नहीं मिल रहा है, जितने की उन्हें अपेक्षा थी। पर कैप्टन ने अपनी भावनाओं से भाजपा शीर्ष को अवगत करा दिया है कि वे चाहते हैं कि आने वाले 2024 के चुनाव में उनके पुत्र रनिंदर सिंह को पटियाला लोकसभा सीट से भाजपा का टिकट मिले। पटियाला की मौजूदा सांसद परणीत कौर का भी कांग्रेस से मोहभंग हो चुका है, वह कैप्टन की पत्नी हैं, पर मिया-बीबी में लंबे समय से बन नहीं रही है। पर कैप्टन को उम्मीद है कि उनकी पत्नी उनसे अपने तमाम मतभेदों के बावजूद पटियाला की सीट अपने बेटे के लिए छोड़ देगी। भाजपा के लिए 24 में एक-एक लोकसभा सीट महत्व रखती है, वैसे भी पंजाब में उनके पास कोई बड़ा सिख चेहरा नहीं, सो यह भाजपा की भी मजबूरी है कि वह आने वाले चुनाव में पंजाब में कैप्टन पर ही दांव लगाएगी।

गहलोत का पत्ता कैसे कटा?

सोनिया गांधी से अशोक गहलोत की पूर्व में हुई मुलाकात के साथ गांधी परिवार का एजेंडा तय हो गया था, सोनिया ने मान लिया था कि एक बार गहलोत कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित हो जाते हैं, उसके बाद वे सीएम की कुर्सी छोड़ देंगे और राजस्थान के अगले मुख्यमंत्री का फैसला वहां के विधायक एक गुप्त मतदान के जरिए करेंगे। तब तक प्रियंका वफादार अजय माकन परिदृश्य में अवतरित होते हैं और मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ विधायकों की रायशुमारी के लिए जयपुर पहुंच जाते हैं। बतौर आब्जर्वर माकन का विधायकों से ये कहना भारी पड़ जाता है कि ’विधायकों की राय दिल्ली पहुंचा दी जाएगी, पर नए सीएम का फैसला दिल्ली ही करेगा।’ गहलोत समर्थक विधायकों को लग गया कि यह सचिन पायलट को सीएम बनाने की चाल है, जिस पर वे भड़क गए और इतना बड़ा सियासी तमाशा घटित हो गया। पर कहते हैं कि स्वयं राहुल गांधी इस वक्त राजस्थान की बागडोर पायलट को देने को तैयार नहीं थे, पर प्रियंका समर्थकों के खेल से उनकी भावना भी चूर-चूर हो गई।

गहलोत का क्या होगा?

राजस्थान की मौजूदा सियासी हालात को देखते हुए गांधी परिवार के लिए वहां से गहलोत की रूखसती आसान नहीं होगी। वैसे भी गहलोत के ऊपर गांधी परिवार ने पहले से ही एक अहम जिम्मेदारी डाली हुई है कि उन्हें कांग्रेस को गुजरात का चुनाव लड़वाना है। ठीक उसी तर्ज पर जिस तरह छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल ने कांग्रेस को यूपी का चुनाव लड़वाया था और कहते हैं इस चुनाव के लिए तमाम फंडिंग का जुगाड़ भी उन्होंने ही किया था। गुजरात चुनाव को लेकर गहलोत काफी पहले से यहां सक्रिय थे, उन्होंने वहां के चुनावी प्रबंधन को मूर्त रूप देने के लिए अपने बेहद भरोसेमंद रघु शर्मा को आगे किया हुआ है। वैसे भी इस दफे के गुजरात चुनाव में कांग्रेस की हालत पतली है, सूत्र बताते हैं कि मौजूदा समय में वह गुजरात में आप के बाद तीसरे नंबर पर चल रही है। गुजरात चुनाव में आगे किए जाने लायक कोई बड़ा और भरोसेमंद चेहरा भी उसके पास नहीं है, गहलोत की सियासी जादू बिखेरने में सिद्दहस्ता है और राहुल ने भी इसी विश्वास के साथ उन्हें गुजरात की जिम्मेदारी सौंपी थी कि वे वहां कोई जादू चला सके। सो, लगता नहीं कि गुजरात चुनाव तक गांधी परिवार गहलोत को छेड़ने की हद तक जा सकता है।

और अंत में

कभी पीएम मोदी के ‘ब्लू आइड ब्यॉय’ में शुमार होने वाले नीति आयोग के पूर्व सीईओ अमिताभ कांत अब अपने लिए नई भूमिका की तलाश में हैं। हालांकि मोदी सरकार ने उन्हें अपनी ओर से जी-20 का नया शेरपा बना दिया है, पर कांत अपनी इस नई भूमिका से खुश नहीं बताए जा रहे हैं, सूत्रों की मानें तो कांत की दिली ख्वाहिश थी कि मोदी उन्हें कोई ऐसा पद दें जिसमें उन्हें कम से कम राज्य मंत्री का दर्जा मिल सके। अब संकेत मिल रहे हैं कि कांत कई बड़े कॉरपोरेट घरानों के संपर्क में हैं जहां वे अपने लिए कोई बड़ी जिम्मेदारी चाहते हैं। अगर उनकी मंशा सरकार तक अपनी यह बात पहुंचाने की है तो इसमें वे सफल हो गए हैं।

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