पार्थसारथि थपलियाल
इन दिनों भारत में “स्व” शब्द को लेकर एक अभियान चल रहा है। स्व का अर्थ कोई उलझन भरा दर्शन नही है। इसका सीधा सा अर्थ है अपना। अपना वही जो अनादि काल से सनातन संस्कृति के माध्यम से हमें मिला। इसी को सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन पद्ध्यति के रूप में परिभाषित किया। इस परिभाषा में सनातन संस्कृति स्वतः समाहित है। संस्कृति के मूल आधार में धर्म के दस लक्षण मनुस्मृति के अनुसार इस प्रकार से हैं-
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥
दैनिक जीवन के आचार व्यवहार के विधि विधान सूत्र ग्रंथों में हैं। सूत्र साहित्य 3 प्रकार का होता है- स्मार्त सूत्र, श्रौत सूत्र, और धर्म सूत्र। स्मार्त सूत्र के अंतर्गत गृह्य सूत्र आते हैं। गृह्य सूत्र में विवाह संस्कार भी आता है। सनातन संस्कृति में विवाह का अर्थ है सात्विक तरीके से अपनी पत्नी बनाने के उद्देश्य से सुयोग्य कन्या का वरण कर अपने घर ले जाना।
आखिर क्या आवश्यकता है विवाह की? शास्त्रों में लिखा है कि मनुष्य के ऊपर 3 प्रकार के ऋण हैं- 1 देव ऋण, 2 ऋषि ऋण और 3. पितृ ऋण। देव ऋण यज्ञ कर्म से, ऋषि ऋण स्वाध्याय व सत्संग से और पितृ ऋण वंश वृद्धि से चुकाए जाते हैं। इसलिए विवाह केवल स्त्री पुरुष का मिलन मात्र नही है। पति-पत्नी में सुचिता, पवित्रता, और पारस्परिक निष्ठा का होना अतिआवश्यक है। इसलिए सनातन परम्परराओं में महासंकल्प, वेदी की प्रदक्षिणा (7 फेरे) हो जाने के बाद भी बिना वामांगी हुए विवाह अधूरा ही रहता है। इसलिए सप्त पदीय (7 वचन) स्वीकार होने पर ही वधु वर के वाम भाग में बैठती है। तभी वह अपने पति के साथ किसी भी यज्ञकर्म में साथ देने के लिए सुपात्र बनती है। पत्नी को अर्धांगिनी अर्थात पुरुष (पति) का आधा अंग। भगवान शिव को भी इसीलिए अर्द्धनारीश्वर कहा जाता है।
इस पोस्ट को लिखने के पीछे “द हिन्दू” अखबार की वह कटिंग है जो मुझे सोशल मीडिया में पढ़ने को मिली। उसमें न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ का एक वक्तव्य प्रकाशित है कि “एक विवाहित महिला को अपनी योनेच्छाओं की संतुष्टि अपनी पसंद के अनुसार कर सकती है। विवाह कर देने मात्र से विवाहित महिला की यह स्वीकृति नही होती है कि वह वैवाहिक संबंध के अलावा बाहर किसी से यौन संबंध नही रखेगी या इस कार्य के लिए उसे पति की अनुमति लेनी पड़े। कोई पत्नी किसी पुरुष के यौन संपदा नही होती।”
इस वक्तव्य के स्रोत को जानने की इच्छा मुझे गूगल पर ले गई। वहाँ नेशनल हेराल्ड में सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच में इसी प्रकार का प्रकरण चर्चाओं में था। तब आश्वस्त हुआ कि कोर्ट की अवमानना का विषय नही है। लेकिन इस वक्तव्य ने मेरे मन मे कई प्रश्नों को जन्म दे दिया। जैसे-
1.क्या कोर्ट ऑफ जुडिकेचर संविधान में वर्णित कार्यक्षेत्र के बाहर सांस्कृतिक पक्षों पर भी बिन मांगे सलाह देने का अधिकार रखता है?
2. क्या व्यभिचार शब्द को सदाचार के रूप में व्याख्यायित कर दिया गया है?
3. क्या सनातन संस्कृति के संस्कारों को यह वक्तव्य दूषित नही करता?
4. क्या उक्त वक्तव्य से वर्णसंकर संताने नही होंगी?
5. क्या माननीय न्यायमूर्ति इस बात से जानकार हैं कि वर्णसंकर संतान अपने पूर्वजों को पिंडदान देने का अधिकार नही रखती? 6. क्या जारकर्म को विधिक मान्यता है?
जिन महाशय नें सनातन शास्त्रों का अध्ययन नही किया वे कृपया इन बातों को गांठ बांध लें। विवाह के फेरे हो जाने के बाद वामांग होने की एक प्रक्रिया सूत्र गर्न्थो और कर्मकांड में निर्धारित है। वधु कहती है हमने अग्नि को साक्षी मानकर अपने श्रेष्ठजनों के सामने पति पत्नी के रूप में होना स्वीकार किया है। लेकिन पत्नी की पूर्णता तभी है जब वह पति के वाम भाग में बैठने की अधिकारिणी होती है। मैं आपके वामभाग में तभी बैठूँगी जब मेरे 7 वचन स्वीकार कर लो। वामांग होने का अर्थ है पुरुष का आधा अंग होना। यज्ञ में इसीलिए पत्नी की आवश्यकता होती है। इस सप्तपदीय में सातवां श्लोक है-
परस्त्रियं मातृ समा समीक्ष्य, स्नेहं सदा चेन्मयि कांत कुर्यात।
वामंगयामि तदा त्वदीयं, ब्रूते वच: सप्तम मंत्र कन्या।।
अर्थात आपको मेरे अलावा अन्य स्त्रियों को माँ के समान मानना होगा और प्रिय अपना स्नेह मेरे साथ ही बांटना होगा।
इसी प्रकार वर भी अपना वचन रखता है-
यथा पवित्र चित्तेन पातिव्रत्य त्वया धृतं
तथैव पालयिस्यामि पत्नीव्रत अहम ध्रुवं।।
अर्थात जिस प्रकार आपने पतिव्रत को धारण किया उसी प्रकार मैं भी पत्नीव्रता होने के ध्रुव प्रतिज्ञा जैसे पालन करूंगा।
यह भारत का स्व है जिसमें मर्यादाएं परम्परराओं से स्थापित हैं। इसके लिए न पुलिस की जरूरत न किसी और एजेंसी की। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि कुछ लोग बिना भारतीय संस्कृति को जाने मर्यादा विहीन समाज की रचना में लगे हैं। उन्हें चाहिए कि वे भारतीय संस्कृति का अध्ययन करें तभी कुछ वक्तव्य दें।
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