लोकमंथन (23) लोक परम्पराओं में पर्यावरण और जल संरक्षण

पार्थसारथि थपलियाल।
(गोहाटी लोकमंथन 21 से 24 सितंबर)
24 सितंबर 2022 को एक महत्वपूर्ण सत्र भारतीय लोक परम्पराओं में पर्यावरण और जल संरक्षण पर केंद्रित था। जल सृष्टि के पंच महाभूत तत्वों में से एक है। वैसे तो धरती का 70 प्रतिशत भाग जल से ही भरा है लेकिन यह पीने योग्य नही है। जिस तरह से वैश्विक तापमान (Global warming) बढ़ रहा है उससे यह लगता है कि ध्रुवों पर जो ग्लेसियर हैं उनके पिघलने से पर्यावरणीय संकट और पेय जल संकट उपस्थित होगा। इस विषय पर चिंतन मनन और मंथन के लिए इस सत्र के संभागी थे- श्री चन्द्रशेखर सिंह, श्री हर्ष चौहान और सच्चिदानंद भारती।

श्री चंद्रशेखर सिंह कृषि में नए प्रयोग के माध्यम से पैदावार बढ़ाने वाले प्रगतिशील कृषक हैं। कृषि का आधुनिकीकरण करना और उससे अन्य कृषकों को जोड़ने की प्रवृति ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार का हकदार बनाया। लोकमंथन 2022 में उन्हें दत्त चित्त से सुनना उनके अनुभव को सम्मान देना था।

पर्यावरण और जल संरक्षण को लेकर उनकी चिंता समझी जा सकती थी। उन्होंने कहा जनसंख्या वृद्धि और आधुनिक जीवनशैली में आये परिवर्तन ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है। मांग और आपूर्ति तथा बाजारवाद ने न्याये उपभोक्ताव को जन्म दिया है। धरती का तापमान निरंतर बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों की मान्यता है कि सन 2050 तक धरती का तापमान 4-5 डिग्री तक बढ़ जाएगा। घरों में आधुनिक उपकरण, वाहन और शौक के कारण पानी की खपत बढ़ गई है। कृषि पैदावार बढ़ाने के लिए सिंचित क्षेत्र जिस तरह बढ़ता गया, लोगों ने बोरवेल के माध्यम से धरती के अंदर का पानी निकाल कर ज़मीन को शुष्क बना दिया है। हमें खेती के तौर तरीकों में बदलाव लाने की आवश्यकता है। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि एक किलो धान की पैदावार पैदा करने के लिए 3000 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए आवश्यक है कि कृषि में नई तकनीक अपनाई जाय जिससे कम से कम पानी से अधिक पैदावार प्राप्त की जा सके।

अब से 30-40 साल पहले हम पाते थे कि 130-150 साल पुराने पेड़ भी हरे भरे और छायादार होते थे। आजकल पेड़ों की उम्र 30-40 साल होने लगी है। अनुसंधान करने पर पता चला कि पेड़ों की जड़ों को पर्याप्त पानी नही मिल रहा। पानी मिले भी तो कहां से? हमनें ज़मीन को बोरवेल खोद खोद कर सूखा कर दिया। ज़मीन का पानी 500-600 फीट गहरा चला गया। धरती छलनी की तरह हो गई। यही नही ज्यादा पैदावार लेने के लिए हमनें खेतों में जिस तरह रासायनिक खादों का उपयोग किया उससे कालांतर में खेतों की उर्वरा शक्ति कमजोर हो गई।

गॉवों में तालाब/कुएं होते थे। उनका रख रखाव ठीक ढंग से न होने के कारण वर्षभर चलने वाला पानी नवंबर दिसंबर तक ही खत्म होने लगा। अत्यधिक औद्योगीकरण होने से कई तरह के घातक रासायनिक नदी नालों से कुओं में मिल जाने से कुएं बेकार हो गये। इस कारण आस पास के खेत भी बर्बाद हो गए। जो खेत रासायनिकों से दुष्प्रभावित हो गए उनसे पैदा होने वाली सब्जियां य्या अन्य अनाज बीमारी के कारण हो गए हैं। प्रदूषित पानी तालाबों अथवा नदियों में मिल जाने से मछली और अन्य जलीय जंतुओं का जीना मुश्किल हो गया है।

सार्वजनिक स्थानों में छायादार या फलदार पेड़ पनपने की परंपरा खत्म हो रही है। अब लोग सरकार पर निर्भर हो गए हैं। जब तक समाज को वैदिक परंपरा से जीने का तरीका न समझाया जाय तब तक पर्यावरण को बचाना कठिन है। आम, पीपल, नीम, बरगद आदि पेड़ों की पूजा जो पहले होती थी उज़के महत्व को कोई समझना नही चाहता। इन्ही पेड़ों से हमें प्राणवायु मिलती है, उस परंपरा को जीवित रखे बिना जीवन का दीर्घायु होना कठिन है। हम पर्यावरण और जल संरक्षण का महत्व समझें।

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