*कुमार राकेश।
हिंदुस्तान में अति प्राचीन वैदिक काल से ही ऋषि-मुनियों का विशेष महत्व रहा है।
पृथ्वी उत्पत्ति के साथ हज़ारों साल पहले ‘ऋषि’, ‘मुनि’, ‘महर्षि’ और ‘ब्रह्मर्षि’ समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते रहे हैं ।
ये तपस्वी समाज अपने ज्ञान और तप के बल पर निष्काम भाव से समाज कल्याण का कार्य किया करते थे.लोगों को समस्याओं से मुक्ति दिलाते थे। उन्हें शांति व मुक्ति का मार्ग बतलाते थे.शांत व सफल जीने की कुंजी बताते थे.आज़ भी हिंदुस्तान में और विश्व के कई भागों में ऐसे मनीषियों का समग्र समाज कल्याण में योगदान है .रहता है .
हिंदुस्तान व विश्व के कई तीर्थ स्थलों, मंदिरों, जंगलों और पहाड़ों में ऐसे साधु-संत देखने को मिल जाते हैं.
ये वास्तव में हमारे पथ प्रदर्शक रहे हैं और आज़ भी है .लम्बी सूची हैं उन महापुरुषों की -जो ऋषि,मुनि ,साधु व संत की श्रेणी में आते हैं .
आइए,जानते हैं ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और संत के वास्तविक अर्थ क्या होते हैं –
#ऋषि :
ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति ‘ऋष’ है जिसका अर्थ ‘देखना’ या ‘दर्शन शक्ति’ होता है।
ऋषि अर्थात “दृष्टा” हिंदुस्तान के परंपरा में श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने (यानि यथावत समझ पाने) वाले जनों को कहा जाता है। वे व्यक्ति विशिष्ट जिन्होंने अपनी विलक्षण एकाग्रता के बल पर गहन ध्यान में विलक्षण शब्दों के दर्शन किये उनके गूढ़ अर्थों को जाना व मानव अथवा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये ध्यान में देखे गए शब्दों को लिखकर प्रकट किया। इसीलिये कहा गया –
“ऋषयो मन्त्र द्रष्टारः न तु कर्तारः।”
अर्थात् ऋषि तो मंत्र के देखनेवाले हैं नकि बनानेवाले अर्थात् बनानेवाला तो केवल एक परमात्मा ही है
#मुनि :
मुनि वह है जो मनन करे, भगवद्गीता में कहा है कि जिनका चित्त दु:ख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निश्चल बुद्धिवाले मुनि कहे जाते हैं। वैदिक ऋषि जंगल के कंदमूल खाकर जीवन निर्वाह करते थे। मुनि शास्त्रों की रचना करते हैं और समाज के कल्याण का रास्ता दिखाते हैं
#महर्षि :
ज्ञान और तप की उच्चतम सीमा पर पहुंचने वाले व्यक्ति को ‘महर्षि’ कहा जाता है
महर्षि मोह-माया से विरक्त होते हैं और परामात्मा को समर्पित हो जाते हैं
इससे ऊपर ऋषियों की एकमात्र कोटि ‘ब्रह्मर्षि’ की मानी जाती हैं। इससे नीचे वाली कोटि ‘राजर्षि’ की मानी जाती हैं। गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र ‘ब्रह्मर्षि’ थे
प्राचीन ग्रंथो के मुताबिक़ हर इंसान में 3 प्रकार के चक्षु होते हैं ‘ज्ञान चक्षु’, ‘दिव्य चक्षु’ और ‘परम चक्षु’
जिस इंसान का ‘ज्ञान चक्षु’ जाग्रत हो जाता हैउसे ‘ऋषि’ कहते हैं. जिसका ‘दिव्य चक्षु’ जाग्रत होता है उसे ‘महर्षि’ कहते हैं और जिसका ‘परम चक्षु’ जाग्रत हो जाता है उसे ‘ब्रह्मर्षि’ कहते हैं।
#साधु :-
साधु, संस्कृत शब्द है जिसका सामान्य अर्थ ‘सज्जन व्यक्ति’ से है। ऐसा व्यक्ति जो 6 विकार- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग कर देता है. इन सब चीज़ों का त्याग करने वाले व्यक्ति को ‘साधु’ की उपाधि दी जाती है.
लघुसिद्धान्तकौमुदी में कहा है-
‘साध्नोति परकार्यमिति साधुः’ (जो दूसरे का कार्य कर देता है, वह साधु है)
अथवा जो साधना करे वो ‘साधु’ कहा जाता है. साधु होने के लिए विद्वान होने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि साधना कोई भी कर सकता है.
साधु(सन्यासी) का मूल उद्देश्य समाज का पथप्रदर्शन करते हुए धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्त करना है। साधु सन्यासी गण साधना, तपस्या करते हुए वेदोक्त ज्ञान को जगत को देते है और अपने जीवन को त्याग और वैराग्य से जीते हुए ईश्वर भक्ति में विलीन हो जाते है।
#संत :
मत्स्यपुराण के अनुसार संत शब्द की निम्न परिभाषा है : ब्राह्मणा: श्रुतिशब्दाश्च देवानां व्यक्तमूर्तय:
सम्पूज्या ब्रह्मणा ह्येतास्तेन सन्तः प्रचक्षते॥
ब्राह्मण, ग्रंथ और वेदों के शब्द, ये देवताओं की निर्देशिका मूर्तियां हैं। जिनके अंतःकरण में इनके और ब्रह्म का संयोग बना रहता है, वह सन्त कहलाते हैं।
सनातन वैदिक हिंदू धर्म में सन्त उस व्यक्ति को कहते हैं जो सत्य आचरण करता है तथा आत्मज्ञानी है, इसलिए हर साधु और महात्मा ‘संत’ नहीं कहलाते हैं. इस प्रक्रिया में जो व्यक्ति संसार और अध्यात्म के बीच संतुलन बना लेता है, वह ‘संत’ कहलाता है
जैसे संत शिरोमणि गुरु रविदास, सन्त कबीरदास, संत तुलसी दास कई संत …
*कुमार राकेश
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