तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन का व्यापक इतिहास

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,15 मार्च।
द्रविड़ आंदोलन तमिलनाडु की राजनीति, समाज और सांस्कृतिक चेतना में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाला आंदोलन रहा है। यह आंदोलन मुख्य रूप से सामाजिक न्याय, ब्राह्मणवादी वर्चस्व के विरोध और द्रविड़ पहचान की रक्षा के लिए उभरा। इसकी जड़ें 20वीं शताब्दी की शुरुआत में पड़ीं और यह धीरे-धीरे तमिलनाडु की राजनीति की मुख्यधारा बन गया। इस लेख में हम इस ऐतिहासिक आंदोलन की उत्पत्ति, विकास और प्रभावों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में दक्षिण भारत में ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ असंतोष बढ़ने लगा। ब्रिटिश शासन के दौरान शिक्षा और नौकरियों में ब्राह्मणों का प्रभुत्व था, जिससे गैर-ब्राह्मण समुदायों में असमानता की भावना बढ़ी। इसी पृष्ठभूमि में जस्टिस पार्टी (1916) की स्थापना हुई, जिसने सामाजिक न्याय और ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती देने की मांग उठाई।

1925 में, ई.वी. रामास्वामी पेरियार (जिन्हें ‘पेरियार’ के नाम से जाना जाता है) ने आत्मसम्मान आंदोलन की शुरुआत की। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य समाज में जातिगत भेदभाव को खत्म करना, ब्राह्मणवादी परंपराओं को चुनौती देना और द्रविड़ पहचान को पुनर्जीवित करना था।

आत्मसम्मान आंदोलन के प्रमुख उद्देश्य:

  1. जाति-आधारित भेदभाव का उन्मूलन
  2. महिलाओं के अधिकारों और शिक्षा को बढ़ावा
  3. धार्मिक अंधविश्वासों का विरोध
  4. तमिल भाषा और संस्कृति का उत्थान
  5. हिंदी विरोध और तमिल भाषा की रक्षा

पेरियार ने हिंदू धार्मिक ग्रंथों, विशेष रूप से मनुस्मृति, के खिलाफ खुलकर आवाज उठाई और ब्राह्मणवादी समाज व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया। उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा शासित धार्मिक प्रथाओं और मंदिरों की परंपराओं का भी विरोध किया।

1944 में, पेरियार ने जस्टिस पार्टी को द्रविड़ कड़गम (Dravidar Kazhagam – DK) में बदल दिया। इस संगठन ने सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने के साथ-साथ राजनीतिक क्षेत्र में भी अपनी जड़ें मजबूत कीं। हालांकि, द्रविड़ कड़गम चुनावी राजनीति से दूर रहा, लेकिन इससे जुड़े कई नेता आगे चलकर तमिलनाडु की राजनीति के महत्वपूर्ण स्तंभ बने।

1950 के दशक में, सी.एन. अन्नादुरई ने पेरियार से अलग होकर द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (Dravida Munnetra Kazhagam – DMK) की स्थापना की। यह पार्टी द्रविड़ विचारधारा के आधार पर राजनीति में सक्रिय हुई और तमिल पहचान को आगे बढ़ाने का काम किया।

द्रविड़ आंदोलन ने हिंदी के अनिवार्य थोपने के खिलाफ व्यापक आंदोलन किए। 1965 में जब केंद्र सरकार ने हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में लागू करने की योजना बनाई, तो तमिलनाडु में जबरदस्त विरोध प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों के कारण केंद्र सरकार को अपनी नीति पर पुनर्विचार करना पड़ा और अंग्रेजी को भी आधिकारिक भाषा बनाए रखने का फैसला किया गया।

1967 में, डीएमके पहली बार तमिलनाडु की सत्ता में आई और कांग्रेस को राज्य की राजनीति से बाहर कर दिया। इसके बाद द्रविड़ पार्टियां राज्य की राजनीति में हावी रहीं। 1972 में, एम.जी. रामचंद्रन (एमजीआर) ने डीएमके से अलग होकर अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (AIADMK) की स्थापना की, जिसने बाद में कई बार सत्ता हासिल की।

  1. सामाजिक न्याय: पिछड़े वर्गों (OBC), अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिए आरक्षण और सामाजिक उत्थान की नीतियां बनाई गईं।
  2. राजनीतिक प्रभुत्व: कांग्रेस का प्रभाव खत्म हुआ और तमिलनाडु की राजनीति द्रविड़ पार्टियों (DMK और AIADMK) के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गई।
  3. तमिल पहचान: तमिल भाषा, साहित्य और संस्कृति को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया गया।
  4. शिक्षा और रोजगार: सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में गैर-ब्राह्मण समुदायों के लिए विशेष अवसर सुनिश्चित किए गए।

द्रविड़ आंदोलन ने तमिलनाडु को सामाजिक और राजनीतिक रूप से बदलने में अहम भूमिका निभाई। इसने न केवल ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती दी, बल्कि तमिल पहचान, सामाजिक न्याय और समानता के विचारों को भी मजबूत किया। आज भी, तमिलनाडु की राजनीति और समाज में इस आंदोलन की गूंज देखी जा सकती है, और इसकी विरासत आगे भी बनी रहेगी।

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