सांसद के वेतन पर मुस्लिम संगठनों की वकालत? क्या सिब्बल-सिंघवी को हिंदुओं के खिलाफ हिंसा का बचाव करने का हक है?
पूनम शर्मा
कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी—दोनों वरिष्ठ वकील हैं, लेकिन साथ ही संसद के मौजूदा सदस्य भी हैं। वे न केवल सांसद का वेतन और अन्य सुविधाएं ले रहे हैं, बल्कि अब वे कोर्ट में सरकार द्वारा बनाए गए कानून के खिलाफ वकालत भी कर रहे हैं। और जिनके लिए लड़ रहे हैं, उन पर आरोप है कि उन्होंने बंगाल के मुर्शिदाबाद और भांगर में हिंदुओं पर हिंसा भड़काई, पुलिस पर हमला किया और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाया।
क्या सांसद कोर्ट में सरकार के खिलाफ केस लड़ सकते हैं?
इस सवाल का जवाब कानून में छिपा है। भारतीय अधिवक्ता अधिनियम, 1961 (Advocates Act, 1961) के अनुसार, अगर कोई व्यक्ति पूर्णकालिक (full-time) वेतनभोगी नौकरी में है, तो वह वकालत नहीं कर सकता। लेकिन सांसदों को “पूर्णकालिक सरकारी कर्मचारी” नहीं माना जाता, इसलिए तकनीकी रूप से वे वकालत कर सकते हैं।
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में स्पष्ट किया था कि सांसद वकील बने रह सकते हैं, लेकिन यह कानून की “मंशा” का दुरुपयोग भी हो सकता है, खासकर जब वे उसी सरकार के खिलाफ केस लड़ें जिससे उन्हें वेतन और संसद सदस्य होने का अधिकार मिलता है।
कपिल सिब्बल पिछले कुछ वर्षों से लगातार उन मामलों में मुस्लिम पक्ष की वकालत करते आ रहे हैं जिनमें राष्ट्रहित से टकराव रहा है:
बाबरी मस्जिद–राम जन्मभूमि विवाद: मुस्लिम पक्ष की वकालत की, कोर्ट से अपील की कि फैसला टाल दिया जाए।
तीन तलाक मामला: मुस्लिम पुरुषों के “धार्मिक अधिकार” की वकालत की, जबकि यह मामला मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का था।
अब 2025 संशोधन कानून: मुस्लिम संगठनों की ओर से सरकार के कानून को चुनौती दी जा रही है, जिनका बंगाल में हिंसक विरोध हुआ।
क्या एक सांसद का काम है कि वह बार-बार उन्हीं संगठनों की तरफ से खड़ा हो, जिन पर राष्ट्रविरोधी तत्वों से सहानुभूति रखने का आरोप है?
मुर्शिदाबाद और दक्षिण 24 परगना के भांगर इलाके में इस कानून के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन हुए। पुलिस पर हमला, गाड़ियों में आग, हिंदू दुकानों को लूटना और आग लगाना—ये सब किसी शांतिपूर्ण विरोध का हिस्सा नहीं हो सकते।
इन घटनाओं में जिन संगठनों के नाम सामने आए—ISM (Indian Secular Movement) और अन्य इस्लामी समूह—उनके समर्थन में अब सिब्बल और सिंघवी जैसे लोग खड़े हैं। यह समर्थन सिर्फ कानूनी नहीं, नैतिक भी है। जब आप कोर्ट में किसी पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो आप उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि और मंशा को भी वैधता प्रदान करते हैं।
सिब्बल और सिंघवी दोनों राज्यसभा सांसद हैं, और उनकी पार्टी को मुस्लिम वोटबैंक से उम्मीदें रही हैं। सवाल उठता है—क्या यह वकालत वास्तव में एक पेशेवर कर्तव्य है, या यह उस “सॉफ्ट सेक्युलरिज़्म” का हिस्सा है जिसमें हिंदुओं की हत्या और हिंदू आस्था पर हमला भी “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” कहा जाता है?
जब किसी संगठन के कार्यकर्ता पुलिस पर हमला करते हैं, हिंदू समुदाय की संपत्ति को नुकसान पहुँचाते हैं, और फिर सुप्रीम कोर्ट में उस संगठन की तरफ से सिब्बल खड़े होते हैं, तो यह देश के बहुसंख्यक समाज को यह संदेश देता है कि उनका दर्द न्यायिक प्रक्रिया में गौण है।
भारतीय बार काउंसिल के नियमों में स्पष्ट है कि कोई वकील सरकार के खिलाफ केस तभी लड़ सकता है जब वह सरकार का हिस्सा नहीं हो। हालांकि सांसद तकनीकी रूप से मंत्री नहीं होते, लेकिन क्या इससे उनका नैतिक दायित्व खत्म हो जाता है?
अगर एक शिक्षक वकालत नहीं कर सकता क्योंकि वह पूर्णकालिक नौकरी में है, तो क्या सांसद, जो देश की नीति-निर्माण प्रक्रिया का हिस्सा है, सरकार के बनाए कानून को कोर्ट में चुनौती दे सकता है?
जिस प्रकार से सिब्बल और सिंघवी बार-बार उन्हीं संगठनों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में खड़े होते हैं जिन पर देशविरोधी गतिविधियों का आरोप होता है, उससे न्यायपालिका की भी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते हैं।
अगर कोई आम नागरिक यह देखे कि जो सांसद संसद में कानून बनने में मौजूद रहे, वही कोर्ट में उस कानून को “गैर-संवैधानिक” बताने लगें, तो वह न्याय प्रणाली पर भरोसा कैसे करेगा?
कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे वरिष्ठ अधिवक्ताओं का बार-बार उन संगठनों के लिए खड़ा होना, जिनका नाम हिंदू विरोधी हिंसा में आता है, हमारे लोकतंत्र और सामाजिक संतुलन के लिए एक खतरा है।
यह बात समझनी होगी कि एक सांसद का नैतिक दायित्व सिर्फ कानून बनाने तक सीमित नहीं होता—उसे यह भी देखना होता है कि वह किसके लिए खड़ा हो रहा है।
क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि बार काउंसिल और सुप्रीम कोर्ट इस तरह के “कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट” मामलों में स्पष्ट दिशा-निर्देश दें?
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