उफ़ ! यह कैसी होड़ है ? सब इतनी जल्दी में हैं जाने के लिए । कोई नहीं रुक रहा है । पिछले बरस कमल दीक्षित, राजकुमार केसवानी ,शिव अनुराग पटेरिया,प्रभु जोशी और महेंद्र गगन से जो सिलसिला शुरू हुआ ,तो शरद दत्त, राजुरकर राज,पुष्पेंद्र पाल सिंह और दिलीप ठाकुर तक जारी है । कुछ उमर में बड़े ,कुछ बराबरी के और बहुत से उमर में छोटे । मन अवसाद और हताशा के भाव से भरा हुआ है । जाना तो एक न एक दिन सबको है । कोई अमृत छक कर नही आता। लेकिन इस तरह जाने को मन कैसे स्वीकार करे ?
पिछले दिनों सोचा था कि अब किसी के जाने पर कोई शोकांजलि नही लिखूंगा । पर ऐसा कर न सका । रात को आंख बंद करता तो वे चेहरे आकर सवाल करते थे। कहते थे ,बस यहीं तक रिश्ता था । अभी तो हमें गए साल भर भी नही हुआ और तुमने सारी यादें डीलिट कर दीं। मैं अपराधी सा सुन लेता । नहीं रहा गया तो फिर यादों की घाटियों का विचरण आपसे साझा करने लगा ।
दस बारह बरस छोटे पुष्पेंद्र पाल सिंह की तो अभी त्रयोदशी भी नहीं हुई कि दिलीप ठाकुर की ख़बर आ गई। साल यदि ठीक ठीक याद है तो शायद जनवरी या फरवरी 1985 रही होगी । मैं नई दुनिया में सहायक संपादक था । काम का बोझ बहुत था । संपादकीय पन्ना, संपादक के नाम पत्र, भोपाल संस्करण, मध्य साप्ताहिक और रविवारीय स्तंभों की बड़ी ज़िम्मेदारी थी । मैं अक्सर अभय जी से कहता कि मुझे कुछ और नए साथी चाहिए । काम अधिक है और मैं गुणवत्ता के मान से न्याय नहीं कर पा रहा हूं । अभय जी सुनते और मुस्कुरा देते । कहते कुछ नही । धीरे धीरे मुझे उनकी मुस्कुराहट पर खीझ आने लगी । एक दिन अचानक उन्होंने रात को ऑफिस से घर जाते समय करीब दस बजे कहा कि कल सुबह नौ बजे आओ ।
अगले दिन सुबह जब मैं पहुंचा तो उन्होंने दो कप की चाय ट्रे का ऑर्डर दिया और मुझे ek फाइल पकड़ा दी । बोले, तुम पर काम अधिक था । वाकई । लेकिन मैं जल्दबाज़ी में कोई निर्णय नहीं करता । नई दुनिया की अपनी परंपरा है । तुम जानते ही हो । मैं दो महीने से भरोसे के और योग्य नौजवानों के बारे में जानकारी एकत्रित कर रहा था ।ये कुछ बायोडाटा हैं । इनमें से चार पांच छांट लो और उनके बारे में पता करके एक दिन मिलने के लिए बुला लो । मैने फाइल ली और अपनी डेस्क पर आ गया । फाइल से चार अच्छे नाम निकले । ये थे , दिलीप ठाकुर,यशवंत व्यास, रवींद्र शाह और भानु चौबे । एकाध नाम और था ।पर, इन चार लोगों को नई दुनिया परिवार का सदस्य बनाने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ । सभी एक से बढ़कर एक थे । दिलीप ठाकुर को मैं भोपाल डेस्क पर चाहता था । मगर उस पर गोपी जी ने वीटो कर दिया ।इस तरह दिलीप सिटी डेस्क पर गोपी जी के साथी बन गए। तबसे जितना भी दिलीप मेरे संपर्क में आए, मैनें उन्हें शिष्ट, मृदुभाषी और अच्छी भाषा का मालिक पाया । एक बार तो मैंने उनसे मज़ाक भी किया । कहा ,यार दिलीप कहां तुम पत्रकारिता में फंस गए । तुम इतने हैंडसम हो कि फ़िल्म संसार में जाकर क़िस्मत आज़माओ। दिलीप आंखों में आंखें डालकर मुस्कुरा दिए ।
बाद में पता चला कि राजेंद्र माथुर जी ने अभय जी को फरवरी में ही बता दिया था कि मुझे नवभारत टाइम्स के जयपुर संस्करण में ले रहे हैं । अभय जी ने मेरे नही रहने के बाद काम और गुणवत्ता पर उल्टा असर नहीं पड़े इस कारण ही वह फाइल मुझे सौंपी थी।तब तक तो मैं भी नही जानता था कि मुझे नव भारत टाइम्स जयपुर शुरू करने जाना है ।दिलीप के रूप में हमने एक शानदार इंसान और बेहतरीन पत्रकार को खो दिया । ऐसे पत्रकार आज दुर्लभ हैं । भाई दिलीप ठाकुर को श्रद्धांजलि ।
राजेश बादल
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