समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,7 अप्रैल। उत्तर प्रदेश की सियासत में एक समय ऐसा था जब अखिलेश यादव को बदलाव का चेहरा माना जाता था — एक पढ़ा-लिखा, तकनीक-प्रेमी युवा नेता जो समाजवादी राजनीति को नई दिशा देगा। लेकिन अब वही अखिलेश यादव गहरी रणनीतिक उलझनों और संगठनात्मक असमंजस में फँसे नजर आ रहे हैं।
मुस्लिम वोट बैंक की लालसा , मौका या माया?अखिलेश यादव की राजनीति इतने समय से केवल एक ही ध्रुव पर फोकस दिख रही है — मुस्लिम वोट बैंक। चाहे वह नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में हो या मुस्लिम संगठनों से हाथ मिलाने, अखिलेश हर पलक से मुसलमानों के समर्थन में खड़े दिखते हैं। लेकिन यह ‘ओवर एक्सपोज़र’ अब उनके गैर-मुस्लिम विधायकों और सांसदों को असहज कर रहा है।
पार्टी में दो फाड़ अयोध्या बनाम आज़मगढ़ राम मंदिर बन जाने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति का केन्द्र अयोध्या हो गया है। ऐसे में जब सपा के वरिष्ठ नेता अवधेश प्रसाद जैसे लोग वहाँ जाकर रामलला के दर्शन करते हैं और अखिलेश यादव वहाँ न जाकर बचते हैं, तो एक साफ संदेश जाता है — पार्टी में वैचारिक विभाजन है। एक तरफ ‘सेक्युलरिज़्म’, दूसरी तरफ ‘हिंदू पहचान’।
समाजवादी पार्टी का नेतृत्व हमेशा यादव परिवार के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। आज भी सांसदों की सूची में रामगोपाल यादव, धर्मेंद्र यादव, डिंपल यादव जैसे नाम प्रमुख हैं। पार्टी के अंदर यह धारणा बनती जा रही है कि ‘जो यादव नहीं, वो नेतृत्व में नहीं’। ऐसे में ज़मीनी कार्यकर्ता और नेता खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं।
बीजेपी यह जानती है कि यदि सपा का चेहरा ‘मुस्लिम समर्थक’ बन जाता है, तो ओबीसी, गैर-यादव पिछड़ी जातियाँ और हिंदू वोटर्स बीजेपी की ओर स्वाभाविक रूप से झुकेंगे। यही कारण है कि बीजेपी बार-बार अखिलेश को मुस्लिम एजेंडे से जोड़ने की कोशिश करती है — ताकि उनकी पार्टी ‘नॉन-इंक्लूसिव’ दिखाई दें।
अब अखिलेश के सामने सवाल सिर्फ चुनावी नहीं, वैचारिक भी है। क्या वे सिर्फ मुस्लिम हितों के लिए बोलेंगे, या ओबीसी, दलित, महिला और युवा वर्ग को भी राजनीतिक एजेंडे में शामिल करेंगे? अगर वे इस संतुलन को नहीं साध पाए, तो सपा अगले चुनावों में हाशिए पर जा सकती है।
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