भाई परमानन्द (8 दिसम्बर,1947/ पुण्यतिथि): बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी परमानन्द को शत्- शत् नमन

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 8दिसंबर। भाई परमानन्द भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी थे। भाई जी बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे। वे जहाँ आर्यसमाज और वैदिक धर्म के अनन्य प्रचारक थे, वहीं इतिहासकार, साहित्यमनीषी और शिक्षाविद् के रूप में भी उन्होंने ख्याति अर्जित की थी। सरदार भगत सिंह, सुखदेव, पण्डित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, करतार सिंह सराबा जैसे असंख्य राष्ट्रभक्त युवक उनसे प्रेरणा प्राप्त कर बलि-पथ के राही बने थे।
देशभक्ति, राजनीतिक दृढ़ता तथा स्वतन्त्र विचारक के रूप में भाई जी का नाम सदैव स्मरणीय रहेगा। आपने कठिन तथा संकटपूर्ण स्थितियों का डट कर सामना किया और कभी विचलित नहीं हुए। आपने हिंदी में भारत का इतिहास लिखा है। इतिहास लेखन में आप राजाओं, युद्धों तथा महापुरुषों के जीवनवृत्तों को ही प्रधानता देने के पक्ष में न थे। आप का स्पष्ट मत था कि इतिहास में जाति की भावनाओं, इच्छाओं, आकांक्षाओं, संस्कृति एवं सभ्यता को भी महत्व दिया जाना चाहिए।आपने अपनेजीवन के संस्मरण भी लिखे हैं जो युवकों के लिये आज भी प्रेरणा देने में सक्षम हैं।
भाईजी का जन्म 4 नवम्बर सन्1876 को जिला झेलम (अब पाकिस्तान में स्थित) के करियाला ग्राम के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिताजी का नाम भाई ताराचन्द्र था। इसी पावन कुल के भाई मतिदास ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए गुरु तेगबहादुरजी के साथ दिल्ली पहुँचकर औरंगजेब की चुनौती स्वीकार की थी। सन् 1902 में भाई परमानन्द ने पंजाब विश्व विद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की और लाहौर के दयानन्द एंग्लो महाविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हुए।
भारत की प्राचीन संस्कृति तथा वैदिक धर्म में आपकी रुचि देखकर महात्मा हंसराज ने आपको भारतीय संस्कृति का प्रचार करने के लिए अक्टूबर,सन् 1905 में अफ्रीका भेजा। डर्बन में भाई जी की गांधीजी से भेंट हुई। अफ्रीका में आप तत्कालीन प्रमुख क्रन्तिकारियों सरदार अजीत सिंह, सूफी अम्बा प्रसाद आदि के संर्पक में आए।
इन क्रान्तिकारी नेताओं से सम्बन्ध तथा कांतिकारी दल की कारवाही पुलिस की दृष्टि से छिप न सकी। अफ्रीका से भाई जी लन्दन चले गए। वहाँ उनदिनों श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा विनायक दामोदर सावरकर क्रान्तिकारी कार्यों में सक्रिय थे। भाई जी इन दोनों के सम्पर्क में आये।
भाई जी सन् 1907 में भारत लौट आये। दयानन्द वैदिक महाविद्यालय में पढ़ाने के साथ-साथ वे युवकों को क्रान्ति के लिए प्रेरित करने के कार्य में सक्रिय रहे। सरदार अजीत सिंह तथा लाला लाजपत राय से उनका निकट का सम्पर्क था। इसी दौरान लाहौर पुलिस उनके पीछे पड़ गयी। सन् 1910 में भाई जी को लाहौर में गिरफ्तार कर लिया गया। किन्तु शीघ्र ही उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया।
इसके पश्चात् भाई जी अमरीका चले गये। वहाँ उन्होंने प्रवासी भारतीयों में वैदिक (हिन्दू) धर्म का प्रचार किया। वहाँ मार्तनक उपनिवेश में आप की प्रख्यात क्रान्तिकारी लाला हरदयाल से भेंट हुई। भारत में क्रांति कराने के लिए प्रमुख कार्यकर्ताओं के दल को यहाँ संघटित किया जा रहा था।
लाला हरदयाल की प्रेरणा से आप भी इस दल में सम्मिलित हो गए। करतार सिंह सराबा, विष्णु गणेश पिंगले तथा अन्य युवकों ने उनकी प्रेरणा से अपना जीवन भारत की स्वाधीनता के लिए समर्पित करने का संकल्प लिया। 1913 में भारत लौटकर भाई जी पुन: लाहौर में युवकों को क्रान्ति की प्रेरणा देने के कार्य में सक्रिय हो गये।
भाई परमानन्द ने दक्षिण अमेरिका के कई ब्रिटिश उपनिवेशों का दौरा किया और लाला हरदयाल से सानफ्रैंसिस्को में पुनः मिले। गदरपार्टी के संस्थापकों में वे भी शामिल थे। सन् 1914 में एक व्याख्यान यात्रा के लिये वे लाला हरदयाल के साथ पोर्टलैण्ड गये तथा गदरपार्टी के लिये तवारिखे-हिन्द (भारत का इतिहास) नामक ग्रंथ की रचना की। भाई जी द्वारा लिखी पुस्तक “तवारीखे-हिन्द” तथा उनके लेख युवकों को सशस्त्र क्रान्ति के लिए प्रेरित करते थे।
भारत में क्रान्ति करने के उद्देश्य (तथाकथित ‘गदर षडयन्त्र’) से वे भारत लौट आये। उन्होने दावा किया था कि उनके साथ पाँच हजार क्रांतिकारी (गदरी) भारत आये थे। गदर क्रान्ति के नेताओं में वे भी थे। उनको पेशावर में क्रान्ति का नेतृत्व करने का जिम्मा दिया गया था।
25 फ़रवरी 1915 को लाहौर में गदरपार्टी के अन्य सदस्यों के साथ भाई जी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। उनके विरुद्ध अमरीका तथा इंग्लैण्ड में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने, करतार सिंह सराबा तथा अन्य अनेक युवकों को सशस्त्र क्रान्ति के लिए प्रेरितकरने,आपत्तिजनक साहित्य की रचना करने जैसे आरोप लगाकर फाँसी की सजा सुना दी गयी।
सजा का समाचार मिलते ही देशभर के लोग उद्विग्न हो उठे। अन्तत: भाई जी की फाँसी की सजा रद्द कर उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड देकर दिसम्बर, 1915 में अण्डमान (काला पानी) भेज दिया गया।
उधर भाई जी जेल में अमानवीय यातनाएँ सहन कर रहे थे. इधर उनकी धर्मपत्नी श्रीमती भाग्य सुधी धनाभाव के बावजूद पूर्ण स्वाभिमान और साहस के साथ अपने परिवार का पालन-पोषण कर रही थीं।
अण्डमान की काल कोठरी में भाई जी को गीता के उपदेशों ने सदैव कर्मठ बनाए रखा। जेल में श्रीमद्भगवद्गीता सम्बन्धी लिखे गये अंशों के आधार पर उन्होंने बाद में “मेरे अन्त समय का आश्रय” नामक ग्रन्थ की रचना की। राजनैतिक बंदियों को कठोर कारावास के विरुद्ध भाई जी ने दो महीने का भूख हड़ताल किया।
गाँधी जी को जब कालापानी में उन्हें अमानवीय यातनाएँ दिए जाने का समाचार मिला तो उन्होंने 19 नवम्बर 1919 के “यंग इंडिया” में एक लेख लिखकर यातनाओं की कठोर भर्त्सना की।उन्होंने भाई जी की रिहाई की भी माँग की। 20 अप्रैल 1,920 को भाई जी को कालापानी जेल से मुक्त कर दिया गया।
कालेपानी की कालकोठरी में पाँच वर्षों में भाई जी ने जो अमानवीय यातनाएँ सहन कीं, भाई जी द्वारा लिखित “मेरी आपबीती” पुस्तक में उनका वर्णन पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। प्रोफेसर धर्मवीर द्वारा लिखित “क्रान्तिकारी भाई परमानन्द” ग्रन्थ में भी इन यातनाओं का रोमांचकारी वर्णन दिया गया है।
जेल से मुक्त होकर भाई जी ने पुन: लाहौर को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। लाला लाजपतराय भाई जी के अनन्य मित्रों में थे। उन्होंने राष्ट्रीय विद्यापीठ (नेशनल कालेज) की स्थापना की तो उस का कार्यभार भाई जी को सौंपा गया। इसी कालेज में भगतसिंह व सुखदेव आदि पढ़ते थे। भाई जी ने उन्हें भी सशस्त्र क्रान्ति के यज्ञ में आहुतियाँ देने के लिए प्रेरित किया। भाई जी ने वीर बन्दा वैरागी पुस्तक की रचना की, जो पूरे देश में चर्चित रही।
कांग्रेस तथा गाँधीजी ने जब मुस्लिम तुष्टी करण की घातक नीति अपनाई तो भाई जी ने उसका कड़ा विरोध किया। यही कारण है कि वे कांग्रेस के आन्दोलनों से दूर रहे। वे जगह- जगह हिन्दू संगठन के महत्व पर बल देते थे। भाई जी ने “हिन्दू” पत्र का प्रकाशन कर देश को खण्डित करने के षड्यन्त्रों को उजागर किया।
भाईजी ने 1930 में ही यह भविष्यवाणी कर दी थी कि मुस्लिम नेताओं का अन्तिम उद्देश्य मातृ भूमि का विभाजन कर पाकिस्तानका निर्माणकरना है। भाई जी ने यह भी चेतावनी दी थी कि कांग्रेसी नेताओं पर विश्वास न करो, ये किसी दिन विश्वासघात कर देश का विभाजन करायेंगे।
बाद में आप हिंदू महासभा में सम्मिलित हो गए। महामना पंडित मदनमोहन मालवीय का निर्देश एवं सहयोग आपको बराबर मिला।सन्‌ 1933 में आप अखिलभारतीय हिंदूमहासभा के अजमेर अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए।
जब भाई जी की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई तथा भारत विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण की घोषणा हुई तो भाई जी के हृदय में एक ऐसी वेदना पनपी कि वे उससे उबर नहीं पाये तथा 8 दिसम्बर, सन् 1947 को उन्होंने इस संसार से विदा ले ली।

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