बिहार, वह जमीन जहाँ राजनीतिक प्रयोगों की फसल पहली बार उगाई जाती है और पूरे देश में उसकी गूँज होती है। जहाँ एक तरफ राज्य इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारियाँ शुरू कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की हालिया रैली ने एक बार फिर कांग्रेस की दशा और दिशा पर सवाल खड़ा कर दिया है।
बक्सर की रैली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखा हमला करते हुए कहा कि “नीतीश कभी हमारी गोद में बैठ जाते हैं और कभी मोदी के साथ हो जाते हैं। ये सिर्फ कुर्सी के लिए सब कर रहे हैं।” यह बयान जितना तीखा था, उतना ही आत्मविस्मृत भी। खड़गे शायद यह भूल गए कि नीतीश कुमार जब कांग्रेस के साथ महागठबंधन में थे, तब भी उन्होंने राजनीति में नैतिकता के नाम पर किसी खास उदाहरण का निर्माण नहीं किया था।नीतीश कुमार की राजनीति पर आलोचना करना आसान है, लेकिन उसके पीछे का तर्क भी समझना जरूरी है। वे किसी एक विचारधारा से बंधे नहीं रहे हैं, लेकिन बिहार जैसे जातीय और सामाजिक रूप से जटिल राज्य में यह एक राजनीतिक मजबूरी रही है। उनका बार-बार पाला बदलना, वास्तव में उसी राजनीति की उपज है जिसमें कांग्रेस कभी अग्रणी थी। खड़गे के यह निकलने का शोर सिर्फ इसलिए है क्योंकि वे इस सच्चाई से बाहर नहीं निकल पाए कि लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार, दोनों कांग्रेस की विफलताओं से ही उभरे नेता हैं?
नीतीश पर ‘मौकापरस्ती’ का आरोप करते हुए खड़गे को यह भी ध्यान देना चाहिए कि जब 2015 में कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा बनी थी, उस समय भी नेतृत्व नीतीश के ही हाथों में था। कांग्रेस बिहार में जूनियर पार्टनर होती हुई आज भी वही है।
खड़गे की यह बयानबाज़ी इस बात की गवाही देती है कि कांग्रेस आज भी अपने अस्तित्व को लेकर भ्रमित है। पार्टी बिहार में कितनी गंभीर है, यह इसी से स्पष्ट हो जाता है कि उसकी राज्य इकाई वर्षों से नेतृत्वविहीन या निष्क्रिय सी रही है। तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा और जदयू-बीजेपी गठबंधन की मजबूती के बीच कांग्रेस कहीं फिट होती नहीं दिख रही है। ऐसे में खड़गे का यह कहना कि “नीतीश सत्ता के लिए कहीं भी चले जाते हैं”, आत्मग्लानि से ज़्यादा कुछ नहीं लगता।
बिहार की जनता महंगाई, बेरोजगारी, कानून व्यवस्था और बाढ़-सूखा जैसी समस्याओं से जूझ रही है, लेकिन कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष कोई भी ठोस प्रस्ताव इन मुद्दों पर नहीं रखते। उनके भाषणों में न कोई रोडमैप होता है, न ही कोई वैकल्पिक दृष्टिकोण। केवल नीतीश और मोदी के ही को कोसना ही अगर चुनावी रणनीति है, तो कांग्रेस फिर से वही गलती दोहरा रही है जो वह 2014, 2019 और 2020 में कर चुकी .जदयू और बीजेपी एक बार फिर साथ हैं, और उनके संयुक्त वोट बैंक को देखते हुए यह गठबंधन ज़मीनी स्तर पर काफी मजबूत दिखता है। वहीं दूसरी तरफ, विपक्ष में स्पष्ट नेतृत्व की कमी है। खड़गे खुद एक ‘नाममात्र’ अध्यक्ष माने जाते हैं, जिनकी निर्णय क्षमता का विरोध हमेशा रहता आया है। बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव ही अब तक विपक्ष का प्रमुख चेहरा बने हुए हैं, और कांग्रेस एक ‘जोड़’ की भूमिका में रह गई है।
अगर कांग्रेस को बिहार में दोबारा प्रासंगिक बनना है, तो उसे नीतीश या मोदी पर आरोप लगाने से ज़्यादा आत्मचिंतन करना होगा। पार्टी को चाहिए कि वह अपनी ज़मीनी संरचना को मज़बूत करे, युवाओं और किसानों के लिए ठोस घोषणाएँ करे, और जातीय समीकरणों से परे जाकर विकास की राजनीति करे। खड़गे जैसे वरिष्ठ नेता अगर इस दिशा में पहल करें, तो कांग्रेस के लिए एक नई शुरुआत संभव हो सकती है। लेकिन अगर वे सिर्फ बयानबाज़ी करते रहे, तो पार्टी के लिए ‘गोद में बैठना’ एक मजबूरी नहीं, मज़ाक बन जाएगा।
बिहार की राजनीति आज निर्णायक मोड़ पर है। नीतीश कुमार ने बार-बार गठबंधन बदले, यह सच है। लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि दशकों से कांग्रेस ने जनता का विश्वास खोया है। मल्लिकार्जुन खड़गे को चाहिए कि वे अपने भाषणों में दूसरों पर कटाक्ष करने से पहले अपने संगठन की कमज़ोरियों पर ध्यान दें। क्योंकि अगर कांग्रेस खुद को नहीं बदलेगी, तो न तो उसे गोद में कोई बैठाएगा, न ही कुर्सी मिलने की कोई उम्मीद रहेगी।
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