बॉम्बे हाई कोर्ट की चूक: बच्चों की सुरक्षा या दरिंदों की रक्षा?

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,22 मार्च।
नागपुर बेंच की जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला द्वारा दिया गया हालिया फैसला पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया है। यह विवादास्पद निर्णय एक 12 वर्षीय बच्ची के यौन शोषण के मामले में आया, जिसमें आरोपी को यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (POCSO) अधिनियम के तहत बरी कर दिया गया। अदालत ने माना कि कपड़ों के ऊपर से बच्ची के स्तनों को छूना “यौन उत्पीड़न” की श्रेणी में नहीं आता, क्योंकि इसमें “त्वचा से त्वचा” संपर्क नहीं था। हालांकि, आरोपी को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 354 के तहत दोषी ठहराया गया, जो अपेक्षाकृत हल्का अपराध है।

इस फैसले ने कानूनी विशेषज्ञों को झकझोर कर रख दिया है और आम जनता को भी गहरी चिंता में डाल दिया है। यह सवाल उठता है कि जब न्यायिक व्यवस्था इतने स्पष्ट उल्लंघनों में भी हमारे बच्चों की रक्षा नहीं कर सकती, तो हमारी बेटियां कैसे सुरक्षित रहेंगी? यह निर्णय केवल एक कानूनी भूल नहीं, बल्कि न्याय का घोर अपमान, जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना और नाबालिगों की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है।

जस्टिस गनेडीवाला का फैसला यौन शोषण की एक गलत और खतरनाक परिभाषा पर आधारित है। उनके अनुसार, POCSO अधिनियम के तहत किसी कृत्य को “यौन उत्पीड़न” माना जाने के लिए “त्वचा से त्वचा” संपर्क आवश्यक है। यह न केवल कानून की सीमित व्याख्या है, बल्कि बाल यौन शोषण की वास्तविकता से पूरी तरह अनभिज्ञ दृष्टिकोण भी है।

POCSO अधिनियम स्पष्ट रूप से कहता है कि किसी भी तरह का यौन शोषण तब माना जाएगा जब बच्चे के साथ शारीरिक संपर्क हो, चाहे वह निजी अंगों को छूने तक सीमित हो या अन्य प्रकार के शारीरिक उत्पीड़न से जुड़ा हो। “स्किन-टू-स्किन” की यह नई शर्त जोड़कर, न्यायाधीश ने जबरन छेड़छाड़ को एक हल्के अपराध की श्रेणी में डाल दिया, जो किसी बच्चे के शरीर की स्वायत्तता और गरिमा का घोर उल्लंघन है।

यह फैसला अब इस खतरनाक संदेश को जन्म देता है कि कोई अपराधी बच्चे को गलत तरीके से छूकर भी बच सकता है, बशर्ते उसने सीधे उसकी त्वचा को न छुआ हो। यह सुझाव देना कि यौन उत्पीड़न केवल तभी गंभीर माना जाएगा जब उसमें त्वचा का सीधा संपर्क हो, न केवल घृणित है, बल्कि बेहद चिंताजनक भी। यह मान्यता बच्चों के मानसिक और शारीरिक आघात को कमतर आंके जाने का संकेत देती है।

इस फैसले का सबसे भयावह पहलू यह है कि यह समाज में यह संदेश देता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी बच्चे को उसके कपड़ों के ऊपर से गलत तरीके से छूता है, तो वह POCSO अधिनियम के तहत “यौन उत्पीड़न” नहीं माना जाएगा। यह निर्णय POCSO अधिनियम के मूल उद्देश्य के खिलाफ जाता है, जिसे बच्चों को यौन अपराधों से अधिकतम सुरक्षा देने के लिए बनाया गया था।

क्या हम इस फैसले के माध्यम से अपराधियों को यह बताने जा रहे हैं कि वे बिना सजा के बच सकते हैं, जब तक कि वे सीधे त्वचा को नहीं छूते? क्या हम बच्चों को यह संदेश देना चाहते हैं कि उनकी पीड़ा और दर्द को केवल तभी सुना जाएगा जब हमला और भी गंभीर हो? यह फैसला यौन उत्पीड़न को हल्का साबित करने की कोशिश करता है और अपराधियों को कानूनी दांव-पेंच के जरिए सजा से बचने का मौका देता है।

एक ऐसे समाज में, जहां बच्चों की सुरक्षा हमेशा खतरे में रहती है, इस तरह की कानूनी चूक की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। हमारी न्याय प्रणाली का आधार विश्वास है—विश्वास कि यह हमारे समाज के सबसे कमजोर वर्गों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा। यदि अदालतें इस तरह के स्पष्ट मामलों में भी बच्चों की रक्षा नहीं कर सकतीं, तो हम कैसे भरोसा करें कि हमारी बेटियां सुरक्षित हैं?

हमारी बेटियां केवल ऐसी वस्तुएं नहीं हैं, जिन्हें कोई भी जब चाहे छू सके। वे सम्मान, गरिमा और सुरक्षा की हकदार हैं। जब अदालतें इस तरह के मामलों को हल्के में लेती हैं, तो यह न केवल पीड़िता के दर्द और आघात को अनदेखा करता है, बल्कि अपराधियों को भी संकेत देता है कि वे आसानी से बच सकते हैं। यह फैसला केवल शारीरिक हमले की तकनीकी बारीकियों पर केंद्रित है, जबकि यौन उत्पीड़न का असली मुद्दा बच्चे की गरिमा और मानसिक आघात है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

यह फैसला स्वीकार्य नहीं है। अदालतों को ऐसे फैसलों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए, जो बच्चों की सुरक्षा को खतरे में डालते हैं। जस्टिस गनेडीवाला का यह फैसला POCSO अधिनियम की भावना और उद्देश्य के विपरीत जाता है। यह कानून इस उद्देश्य से बनाया गया था कि बच्चों के खिलाफ किसी भी प्रकार के यौन शोषण को कठोरता से दंडित किया जाए।

यदि इस फैसले को कायम रहने दिया गया, तो यह समाज और न्याय प्रणाली में यह खतरनाक संदेश देगा कि बाल यौन शोषण को तकनीकी आधार पर कमतर आंका जा सकता है। यह सिर्फ एक कानूनी भूल नहीं, बल्कि नैतिक विफलता भी है। हमारे बच्चों को इससे बेहतर सुरक्षा व्यवस्था की जरूरत है—ऐसी न्यायपालिका की जरूरत है जो अपराधियों को कठोर सजा दे और स्पष्ट संदेश दे कि बच्चों के खिलाफ किसी भी तरह के यौन अपराध को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

इस फैसले से यह स्पष्ट हो जाता है कि न्यायपालिका को बाल यौन शोषण से जुड़े मामलों में अपने दृष्टिकोण को सुधारने की आवश्यकता है। POCSO अधिनियम की व्याख्या उसी भावना से होनी चाहिए, जिससे यह कानून बना था—बच्चों को किसी भी तरह के यौन उत्पीड़न से पूरी तरह सुरक्षित रखने के लिए। कानून को अपराधियों के पक्ष में तोड़ा-मरोड़ा नहीं जाना चाहिए, खासकर तब, जब मामला इतना गंभीर हो।

साथ ही, न्यायिक प्रक्रिया को बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में अधिक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। न्यायाधीशों को बाल यौन शोषण के मानसिक और भावनात्मक प्रभावों को बेहतर ढंग से समझने के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, और उनके निर्णयों में बच्चों की सुरक्षा को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए।

हमारे बच्चों को एक ऐसी न्याय प्रणाली की जरूरत है, जो अपराधियों को बचने का अवसर न दे। जस्टिस गनेडीवाला का यह फैसला अस्वीकार्य है और इसे तुरंत पलटा जाना चाहिए। हमें अपनी न्यायपालिका से अधिक की मांग करनी चाहिए—एक ऐसी प्रणाली, जो सबसे कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा करे, न कि उन्हें कमजोर करे। अब समय आ गया है कि हम एक न्यायिक सुधार की मांग करें, जो बच्चों की सुरक्षा और भलाई को प्राथमिकता दे। इससे कम कुछ भी न्याय के लिए एक बड़ी हार और हमारी अगली पीढ़ी की सुरक्षा के प्रति विश्वासघात होगा।

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