खंडित परिवार, फलते-फूलते बाजार: भारत के संयुक्त परिवार संकट पर नीडोनॉमिक्स की दृष्टि

प्रोमदन मोहन गोयलनीडोनॉमिक्स के प्रणेता एवं पूर्व कुलपति

भारत सदियों से अपनी गहन सांस्कृतिक जड़ों, पारिवारिक मूल्यों और बहुपीढ़ी संबंधों के लिए जाना जाता रहा है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण रहा है संयुक्त परिवार प्रणाली, जिसने न केवल भावनात्मक स्थिरता और सामाजिक सुरक्षा दी, बल्कि आर्थिक विवेक और नैतिक मार्गदर्शन भी प्रदान किया। आज, जैसे-जैसे बाज़ार की ताकतें और व्यक्तिगत स्वार्थ हावी हो रहे हैं, यह पारंपरिक संरचना विखंडित हो रही है।

संयुक्त परिवार की महत्ता और वर्तमान परिदृश्य

संयुक्त परिवार न केवल जीवन की ज़रूरतों को साझा करता था, बल्कि बच्चों को मूल्यों की शिक्षा देने, बुजुर्गों को सम्मान देने और महिला सशक्तिकरण की मौन आधारशिला भी था। यह व्यवस्था भारतीय संस्कृति में “वसुधैव कुटुम्बकम्” के भाव को मूर्त रूप देती थी। लेकिन अब एकल परिवारों का चलन बढ़ रहा है — इसका कारण है महानगरीय जीवनशैली, व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा, और आत्मकेंद्रित सोच।

नीडोनॉमिक्स के अनुसार, यह विघटन केवल सामाजिक नहीं, अपितु आर्थिक भी है। जब परिवार छोटे होते हैं, तो संसाधनों की मांग बढ़ती है, अनावश्यक उपभोग को बढ़ावा मिलता है और सामाजिक पूंजी का क्षरण होता है। बाजार की ताकतें इस स्थिति का लाभ उठाकर उपभोगवाद को बढ़ावा देती हैं, जिससे व्यक्ति में लालच और असंतोष की भावना उत्पन्न होती है।

भावनात्मक पूंजी बनाम वित्तीय पूंजी

नीडोनॉमिक्स स्कूल ऑफ थॉट (  एनएसटी  ) यह मानता है कि किसी समाज की स्थिरता केवल सकल घरेलू उत्पाद  से नहीं, बल्कि भावनात्मक पूंजी से भी मापी जानी चाहिए। संयुक्त परिवारों में आपसी सहयोग, संवाद, और त्याग की भावना एक असली पूंजी होती है। इसके विपरीत, एकल परिवारों में अकेलापन, मानसिक तनाव और अवसाद जैसे संकट अधिक देखने को मिलते हैं।

आज जो लोग आर्थिक रूप से समृद्ध हैं, उनके पास जीवन की गुणवत्ता नहीं है — यह विडंबना हमारी सामाजिक प्राथमिकताओं के असंतुलन को दर्शाती है। संयुक्त परिवारों में समय, अनुभव और संसाधनों की साझेदारी होती थी, जो जीवन को समग्रता देती थी।

बाजार की भूमिका: उपभोग बनाम ज़रूरत

बाजार का मूल स्वभाव है अधिक से अधिक खपत को बढ़ावा देना। परंतु नीडोनॉमिक्स कहता है कि आर्थिक निर्णय ज़रूरत आधारित होने चाहिए, न कि चाहत आधारित। संयुक्त परिवारों में “साझा करना” एक नैतिक दायित्व था, जिससे खरीदारी सीमित रहती थी और संसाधनों की बर्बादी नहीं होती थी। आज, एकल परिवारों के कारण हर सदस्य को अलग-अलग संसाधनों की आवश्यकता होती है — चाहे वह वाहन हो, इलेक्ट्रॉनिक्स हो, या घरेलू सहायक उपकरण।

इस प्रवृत्ति के कारण पर्यावरण पर भी भार बढ़ा है। अधिक उत्पादन और उपभोग के चलते प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हुआ है। यदि नीडोनॉमिक्स की अवधारणा को अपनाया जाए, तो उपभोग को आवश्यकता के दायरे में सीमित किया जा सकता है और सतत विकास को बढ़ावा मिलेगा।

सांस्कृतिक क्षरण और नैतिक शिक्षा का संकट

संयुक्त परिवार शिक्षा के प्राकृतिक केंद्र थे, जहाँ बिना स्कूल जाए ही बच्चों को जीवन जीने की कला सिखाई जाती थी — जैसे संयम, सहिष्णुता, सेवा, और सम्मान। अब यह भूमिका केवल स्कूलों पर निर्भर हो गई है, जिनके पास यह क्षमता नहीं कि वे नैतिक शिक्षा को व्यवहार में बदल सकें।

नीडोनॉमिक्स इस बात पर ज़ोर देता है कि किसी भी शिक्षा प्रणाली को केवल ज्ञान हस्तांतरण का माध्यम नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे आचरण और व्यवहार निर्माण की प्रक्रिया में बदलना चाहिए। यदि संयुक्त परिवार जैसी संरचनाएं नष्ट होती रहीं, तो नैतिक पीढ़ियों का निर्माण असंभव हो जाएगा।

नीडोनॉमिक्स का समाधान: पुनःसंधान और आध्यात्मिक पुनरुद्धार

नीडोनॉमिक्स केवल एक आर्थिक अवधारणा नहीं है, यह जीवन दर्शन है। यह हमें स्वयं को समझने, अपनी आवश्यकताओं की पहचान करने और सामूहिक भलाई के लिए जीने की प्रेरणा देता है। NST इस बात को मानता है कि भारत को केवल आर्थिक दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक रूप से भी विकसित होने की आवश्यकता है।

इसके लिए आवश्यक है:

1.     नीडोशिक्षा  का प्रसार: विद्यालयों और महाविद्यालयों में नीडोनॉमिक्स आधारित पाठ्यक्रम शुरू कर नैतिक और व्यवहारिक शिक्षा को बढ़ावा देना।

2.     सांस्कृतिक पुनरुत्थान: टीवी, सिनेमा और सोशल मीडिया को पारिवारिक मूल्यों के संवर्धन में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।

3.     नीडोवेलफेयर पॉलिसी: सरकार को ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जो संयुक्त परिवारों को सहयोग दे — जैसे कर में छूट, सामूहिक बीमा, और सामाजिक पहचान कार्ड।

4.     अंतरात्मा का जागरण: युवा पीढ़ी को आत्मपरीक्षण की शिक्षा दी जानी चाहिए, ताकि वे स्वयं की सीमाओं और ज़िम्मेदारियों को पहचान सकें।

आर्थिक खुशहाली का नया मापदंड

नीडोनॉमिक्स हमें यह सिखाता है कि आर्थिक समृद्धि तभी सार्थक है जब वह सामाजिक और पारिवारिक समरसता से जुड़ी हो। आर्थिक स्वतंत्रता के साथ भावनात्मक दायित्व भी जरूरी हैं। यदि भारत को “विकसित भारत” बनाना है, तो केवल स्टार्टअप्स, निवेश और उत्पादन से काम नहीं चलेगा — पारिवारिक एकता, मूल्यों की शिक्षा और सामाजिक जिम्मेदारी की आवश्यकता होगी।

निष्कर्ष

संयुक्त परिवार का विघटन केवल एक सामाजिक परिवर्तन नहीं है, यह एक सांस्कृतिक और आर्थिक संकट भी है। नीडोनॉमिक्स स्कूल ऑफ थॉट हमें इस संकट को समझने और हल खोजने का मार्ग देता है। यह हमें “मैं” से “हम” की ओर ले जाता है, उपभोग से आवश्यकता की ओर और लालच से संतोष की ओर। यही नयी सोच, नया भारत और नयी दुनिया बनाने का आधार हो सकती है। नीडोनॉमिक्स इस बात पर जोर देता है कि विकास का सही मापदंड केवल प्रति व्यक्ति आय नहीं, बल्कि प्रति व्यक्ति संतोष, सामाजिक एकता और नैतिक मूल्यों की स्थिरता है। यदि हम आर्थिक नीतियों और सामाजिक व्यवहार में नीडोनॉमिक्स को आत्मसात करें, तो हम ‘विकसित भारत’ के साथ-साथ ‘विवेकशील भारत’ की भी नींव रख सकते हैं। आज की युवा पीढ़ी को यह समझना होगा कि भौतिक सफलता तभी टिकाऊ है जब उसके साथ भावनात्मक और पारिवारिक जुड़ाव बना रहे। जीवन में ‘मिलकर चलने’ की भावना, जो कभी संयुक्त परिवारों की आत्मा थी, अब पुनः जागृत की जानी चाहिए — आधुनिकता के साथ मूल्यों का समन्वय यही समय की मांग है। यदि नीति निर्माता, शैक्षिक संस्थाएं, और आम नागरिक मिलकर नीडोनॉमिक्स को अपनाएं, तो हम न केवल आर्थिक दृष्टि से प्रगतिशील होंगे, बल्कि एक ऐसा समाज बना पाएंगे जहाँ सहयोग, सेवा, और संतुलन ही वास्तविक संपत्ति माने जाएंगे। यही भारत को आत्मनिर्भर, आत्मविह्वास से भरपूर और आत्मसंतुष्ट बनाने की दिशा है — जहाँ संयुक्त परिवार की भावना फिर से सामाजिक रीढ़ बन सकेगी। इसलिए अब समय आ गया है कि हम आधुनिक बाजार की अंधी दौड़ से हटकर विवेकपूर्ण उपभोग, सजीव संबंधों और साझा जिम्मेदारी की संस्कृति को पुनः स्थापित करें। यही नीडोनॉमिक्स की असली साधना है — जो भारत को फिर से उसके सांस्कृतिक गौरव के शिखर पर ले जा सकती है।

 

 

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