भाव की नगरी बनाम परित्यक्ताओं की नगरी

अंशु सारडा’अन्वि’।
मेरी वृंदावन की यात्रा मात्र 2 दिन की थी पर वह अभी तक मेरे जेहन से बाहर नहीं निकल पा रही है। मंदिरों के अतिरिक्त वहां के शैतान बंदरों द्वारा चश्मा, मोबाइल, पर्स बिना किसी भय के ले जाना और फ्रूटी देने पर उसे वापिस करना, कोरोना को धता बताती भक्तों की भीड़ और उनका गुत्थमगुत्था होना, पंडित- पुजारियों के सदव्यवहार और दुर्व्यवहार दोनों की यादों के बाद एक दृश्य जो बारंबार और बार-बार आंखों में घूमता रहा वह था सफेद वस्त्र धारी विधवा महिलाओं का। गले में तुलसी की कंठी, माथे पर चंदन तिलक, झुकी हुई कमर, हाथ में भिक्षा पात्र तथा माला और मंदिरों के बाहर पंक्तिबद्ध बैठीं, चेहरे से सुंदर पर सफेद-फीकी चमक वाली वे महिलाएं हमारी सामाजिक व्यवस्था पर एक सफेद दाग की मानिंद नजर आ रही थीं। तीन जगहों से टेढ़ी पर सुंदर कुब्जा जो कृष्ण के इंतजार में बैठीं हों जैसी वे प्रतीत हो रहीं थीं। काला दाग इन्हें इसलिए नहीं कहा क्योंकि उसे छू लेने वाले के कालिख लगने का डर हो जाता है। यह तो सफेद दाग है जो कि समाज के ऊपर एक दागदार सवाल तो है पर बड़ी ही आसानी से नजरें चुरा कर, हवा में उछाल कर पीछे छोड़ देने वाला। ये महिलाएं अधिकांशतः उड़ीसा, पश्चिम बंगाल से संबंधित थीं। कुछ रिक्शा चालक और अन्य कार्यक्षेत्रों में लगे उन राज्यों के पुरुष भी हमें वहां मिलें। बहरहाल मैं यहां विधवा महिलाओं की ही बात कर रही हूं। कुछ बातें जब आपको कचोटती हैं या आपकी स्मृतियों में रहकर आपको परेशान करती हैं तो वे स्वत: ही आपकी लेखनी का विषय बन जाती हैं। कई बार स्वभाविक भी अस्वाभाविक लगता है और अस्वभाविक भी स्वाभाविक। यह विषय भी कुछ ऐसा ही था जिसे हमने स्वभाविक तौर पर स्वीकार कर लिया है। कारण जानने की यहां बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं थी कि वे यहां क्यों और कैसे आईं या उनकी जीवन यापन की प्रक्रिया किस प्रकार की होगी क्योंकि यह उन्हें देख कर ही पता चल जा रहा था।
कृष्ण की नगरी में रहकर कृष्ण भक्ति करना एक अलग बात है तथा भिक्षाटन और भजन आदि कर जीवन यापन करना एक दूसरी बात। कुछ महिलाएं पति की मौत के बाद परिवार वालों के रवैये से त्रस्त हो खुद यहां चली आईं तो कुछ को उनके परिवार वाले यहां छोड़ कर चले गएं। गरीबी और लाचारी से त्रस्त इन महिलाओं को दूर से देख कर ही अपना मुंह फेर लेना कायरता की बात हो सकती थी पर मेरा माननीय स्वभाव इस बात की इजाजत नहीं दे रहा था कि एक सभ्य पढ़े-लिखे समाज में हम अपने परिवार के बुजुर्गों के प्रति इतने निर्दयी और निर्मोही हो सकते हैं। क्या तन पर सफेद साड़ी का अर्थ जिंदगी से सब रंगों का उड़ जाना है? क्या दुनिया का बदरंग और बेरंग हो जाना है ? आखिर क्या कसूर है उनका? पति मृत्यु का अर्थ सामाजिक और पारिवारिक तिरस्कार या अवहेलना तो नहीं होता है। कृष्ण की नगरी में कृष्ण के खुद के वैधव्य को लेकर कुछ कहानियों का मिथकीय प्रचलन है पर उसका अर्थ उनको आज तक यूं इस रूप में चलाना नहीं। इन विधवाओं में पश्चिम बंगाल की महिलाओं का प्रतिशत अधिक होने का एक बड़ा कारण 500 वर्ष पूर्व चैतन्य महाप्रभु द्वारा विधवा विवाह की इजाजत ना होने के कारण उनकी खराब स्थिति को लेकर कृष्ण की भक्ति में उन्हें लगाने के सोद्देश्य से वृंदावन में लाकर बसाना भी रहा। उसके बाद से यह प्रथा बदस्तूर जारी है। न रहने का ठिकाना, न मूलभूत सुविधाएं। इन महिलाओं की दयनीय स्थिति को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले को संज्ञान लेते हुए उचित कार्यवाही का निर्देश दिया है। केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न योजनाएं प्रारंभ की गईं पर वे कितनी फलीभूत हुई इसकी एक झलक वृंदावन की गलियों में दिखाई पड़ जाती है। इसके साथ ही एक बड़ी समस्या इन महिलाओं के पास वैधानिक दस्तावेजों का न होना भी है जो कि इनको मिलने वाली सहायता राशि से भी इन्हें वंचित कर देता है। बृज की नगरी परित्क्यताओं की नगरी नहीं बल्कि भाव की नगरी बनी रहे तो बेहतर होगा। सिर्फ इन विधवा बुजुर्ग महिलाओं की ही बात क्यों करें। कितने बुजुर्ग यहां ऐसे रहते हैं जो कि अपने परिवार से दूर यहां जीवन व्यतीत कर रहे हैं सिर्फ बृज में मोक्ष की चाह में। इनके पास आर्थिक -सामाजिक संसाधनों की कोई कमी नहीं पर पारिवारिक क्लेशों के चलते इच्छानुसार यहां रहना उन्होंने अपनी अनिवार्यता बना ली है। समय बदलाव मांगता है और दोनों हाथ काम। भिक्षावृत्ति के काम से बेहतर होगा कि इन हाथों को हुनर का काम दिया जाए और उपयुक्त पारिश्रमिक भी। तन पर सफेद कपड़े का अर्थ जीवनोपयोगी आवश्यकताओं का खत्म हो जाना नहीं बल्कि एक बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी का एहसास है कि कहीं यह सफेद वस्त्र मानवीय मन के रंग न चुरा ले। कहने और लिखने की आवश्यकता से अधिक बड़ी आवश्यकता ठोस क़दम की है जो कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की एक राजकीय के साथ-साथ मानवीय जिम्मेदारी है। आशा है एक बेहतर विकल्प की, सही कदम की, सद्प्रयास की। माहेश्वर तिवारी की इन पंक्तियों के साथ इस लेख का अंत करना उचित होगा…
” मन का वृंदावन हो जाना कितना अच्छा है,
धुला- धुला दर्पण हो जाना कितना अच्छा है।”
अंशु सारडा’अन्वि’

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