पुल के नीचे क्लासरूम: सौ दीपक, एक व्यक्ति द्वारा प्रज्वलित
समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,7 अप्रैल। दिल्ली की मेट्रो रेल की गूंज और शहरी आपाधापी के बीच, एक खामोश क्रांति जन्म ले रही है — ना किसी ऊँची इमारत में, ना किसी नामी स्कूल में, बल्कि एक कंक्रीट के पुल के नीचे, जहाँ चॉक की धूल उम्मीद बनकर उड़ती है, और रंगे हुए ब्लैकबोर्ड से टकराकर सपने गूंजते हैं।
हर सुबह, जब दिल्ली नींद से जागती है, राजेश कुमार शर्मा यमुना बैंक मेट्रो ब्रिज के नीचे खड़े होते हैं — केवल एक दुकानदार नहीं, बल्कि एक शिक्षक, मार्गदर्शक और परिवर्तन के एक विनम्र सेनानी के रूप में। फ्री स्कूल अंडर द ब्रिज के संस्थापक शर्मा पिछले आठ वर्षों से झुग्गियों में रहने वाले गरीब बच्चों को बिना किसी प्रचार, अनुदान या आधिकारिक अनुमति के पढ़ा रहे हैं। केवल संकल्प, कुछ समर्पित स्वयंसेवकों और शिक्षा की शक्ति में अटूट विश्वास के बल पर, उन्होंने 300 से अधिक बच्चों का भविष्य संवारा है।
उनकी यात्रा विशेषाधिकार से नहीं, बल्कि छूटे हुए अवसरों के दर्द से शुरू हुई थी। उत्तर प्रदेश के हाथरस में जन्मे शर्मा एक समय में इंजीनियर बनना चाहते थे, पर आर्थिक तंगी ने उनके सपनों को अधूरा छोड़ दिया। वही अधूरा सपना उनके भीतर आग बनकर जलता रहा — यह वादा कि गरीबी के कारण कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे।
आज वे दिल्ली के लक्ष्मी नगर में अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ रहते हैं और एक किराने की दुकान चला कर परिवार का भरण-पोषण करते हैं। लेकिन उनका दिल सबसे अधिक धड़कता है उस पुल के नीचे, जहाँ उनकी चॉक लगी उंगलियाँ अक्षर और समीकरण बच्चों के जीवन में उकेरती हैं — उन बच्चों के जीवन में, जिन्होंने किताब को कभी छुआ तक नहीं था।
यह “स्कूल” बेहद सादा है — ग्रे दीवारों पर पेंट किए हुए पाँच ब्लैकबोर्ड, ज़मीन पर बिछे हुए कुछ पुराने चटाई, और ऊपर से गुजरती मेट्रो की लगातार आवाज़। फिर भी, इन्हीं सीमित साधनों में हर दिन एक चमत्कार घटित होता है।
स्कूल दो शिफ्टों में चलता है: सुबह 9 से 11 बजे तक करीब 120 लड़के पढ़ने आते हैं, उत्साह और जिज्ञासा से भरे हुए। दोपहर 2 से 4:30 बजे के बीच करीब 180 लड़कियों की बारी होती है, जिनकी हँसी और पाठ की आवाज़ें माहौल को जीवंत बना देती हैं। ये बच्चे 4 से 14 वर्ष की उम्र के हैं और आस-पास की झुग्गियों और मजदूर बस्तियों से आते हैं।
और ये सब अकेले नहीं करते शर्मा। सात समर्पित स्वयंसेवकों की एक टीम — जिनमें कॉलेज छात्र, पेशेवर और गृहिणियाँ शामिल हैं — अपनी फुर्सत का समय निकालकर हिंदी, अंग्रेज़ी, गणित और विज्ञान जैसे विषय पढ़ाते हैं। ये मिलकर एक ऐसा माहौल बनाते हैं जहाँ संघर्ष के बीच भी सीखना संभव होता है।
शर्मा की शिक्षा पद्धति सिर्फ किताबों पर आधारित नहीं है। वे बच्चों को अनुशासन, आत्म-सम्मान और निरंतरता भी सिखाते हैं। वे कहते हैं, “शिक्षा पढ़ना-लिखना नहीं है, यह आत्मविश्वास है। यह बच्चों को यह विश्वास दिलाना है कि वे अपने हालात से कहीं अधिक हैं।”
बच्चे अपने नोटबुक खुद लाते हैं, लेकिन चॉक, डस्टर, पेन और पेंसिल का प्रबंध शर्मा खुद करते हैं। उनकी दुकान की आमदनी अक्सर इन ज़रूरतों में खर्च हो जाती है, लेकिन वे कभी शिकायत नहीं करते। उनका कहना है, “अगर मुझे मुनाफा और उद्देश्य में से चुनना पड़े, तो मैं हर बार उद्देश्य चुनूँगा।”
पहले जो माता-पिता शिक्षा के प्रति उदासीन थे, आज वे खुद बच्चों को भेजने के लिए प्रेरित करते हैं। दिहाड़ी मजदूरों और घरेलू कामगारों के मन में अब नए सपने जन्म ले रहे हैं — बेटे शिक्षक बनें, बेटियाँ स्टेथोस्कोप पहनें।
खुले में पढ़ाई करना आसान नहीं है — दिल्ली की झुलसाती गर्मी, बरसात की बौछारें, या हड्डियों को कंपा देने वाली सर्दियाँ। लेकिन पढ़ाई नहीं रुकती। अब मेट्रो की आवाज़ बच्चों के लिए पृष्ठभूमि संगीत बन चुकी है। जो कभी बाधा था, अब प्रतीक बन चुका है — जिजीविषा का। शर्मा कहते हैं, “अगर एक पुल हमें बारिश से बचा सकता है, तो शायद वह उनके भविष्य तक पहुँचने का पुल भी बन सकता है।”
इस स्कूल को न कोई सरकारी फंडिंग मिलती है, न कोई NGO इसे चलाता है। फिर भी इसका असर बच्चों के चेहरों की मुस्कान में, उनके सुधरे हुए हस्तलिपि में, उनके आत्मविश्वास में साफ दिखता है।
हर साल शर्मा के इस मॉडल से प्रेरित होकर देशभर में रेलवे स्टेशन, फुटपाथों पर ऐसे और स्कूल खुल रहे हैं — “दीवारों के बिना विद्यालय”, जो एक विचार से उपजे हैं। देश के अलग-अलग कोनों से लोग किताबें दान करते हैं, समय देते हैं। और इसी स्कूल के कुछ बच्चे अब सरकारी स्कूलों में भी पढ़ाई कर रहे हैं — उस आत्मविश्वास के साथ जो शर्मा ने उन्हें दिया।
शर्मा प्रचार नहीं चाहते। लेकिन एक सपना ज़रूर देखते हैं — एक स्थायी स्कूल बिल्डिंग, जहाँ किसी बच्चे को रेत पर बैठकर पढ़ना न पड़े।
जब दिन का आखिरी पाठ पूरा होता है, सूरज पीछे डूबता है और दुकान का शटर गिरता है, शर्मा चॉक समेटते हैं, चटाइयाँ लपेटते हैं और वापस अपनी किराने की दुकान की ओर चल देते हैं। एक और दिन का ज्ञान बच्चों के मन पर दर्ज हो चुका होता है। उनके चेहरे पर मुस्कान होती है — किसी कमाई की नहीं, बल्कि बाँटने की।
एक ऐसी दुनिया में जहाँ हर दिन डरावनी सुर्खियाँ बनती हैं, यमुना बैंक का यह पुल अपवाद है — यह कहानी है कि एक व्यक्ति, दृढ़ संकल्प और एक चॉक से भरे थैले के साथ, एक पूरी दुनिया बदल सकता है।
राजेश कुमार शर्मा के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, ना ही कोई केप। उनके पास सिर्फ ब्लैकबोर्ड और एक चॉक है। लेकिन सैकड़ों बच्चों के लिए, जो अब सपने देखते हैं — वे सुपरहीरो से कम नहीं, कुछ ज़्यादा हैं।
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