पार्थसारथि थपलियाल।
भारत देवभूमि है। इस देवभूमि में सनातन संस्कृति के अनुसार जीवन जीने की परंपरा रही है। गाँव मे जनसामान्य भी जानता है कि चौमासे में हमारी जीवनशैली क्या होनी चाहिए। खान पान में कई भोज्य निषेध हैं कई ग्राह्य हैं। जैसे सावन मास में दुग्ध आहार कम करने की बात और मांसाहार न करने की बात समाज मानता रहा है। चौमासा में लोबिया, बैंगन, बेर, अचार, मूली, इमली, प्याज और लहसुन भी अग्राह्य बताये गए हैं। इस काल में विवाह संस्कार, चूड़ाकर्म संस्कार, गृहप्रवेश, आदि शुभ कार्य भी वर्जित होते हैं।
चौमासा शब्द चातुर्मास का देशज शब्द है। जिसका अर्थ है चार माह। खेती किसानी के लिए चातुर्मास की जीवन शैली अलग है जबकि साधुओं, सन्यासियों, संतो, मुनियों के संदर्भ में इसके अर्थ भिन्न हैं। कृषि कार्य मे लगे कृषक यदि चौमासे में मेहनत से निराई, गुड़ाई और सिंचाई में लापरवाही बरतेंगे तो उनकी सभी प्रकार खेती किसानी की मेहनत निरर्थक सिद्ध होगी। दूसरी ओर बरसात के दिनों में जगह जगह नदी नाले ऊफान पर होते हैं। कहीं बाढ़ आने का डर और कहीं बह जाने का भय भी रहता है। झाड़ियों के बढ जाने से मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। जंगली जानवर व कीट पतंगे भी हानि पहुंचा सकते हैं। इसलिए यह सनातन परंपरा है कि समाज का आध्यात्मिक गुरु, मार्ग दर्शन करने वाले साधु, संत, सन्यासी, मुनि आदि समाज में किसी स्थान पर रुक जाएं और समाज को साथ में लेकर सत्संग करे। ये चार महीने हैं श्रावण/सावन (सौंण), भाद्रपद (भादों), अश्वनी (आसोज/असूज), और कार्तिक। जैसे विदित है भारत में कुछ अंचलों में चांद्र मास से दिनों की गणना की परंपरा है जबकि कुछ अंचलों या प्रदेशों में सौर मास (सूर्य की गति) के अनुसार दिनों की गणना की जाती है। उत्तर भारत के अधिकांश प्रदेशों में पूर्णिमांत मास होता है जबकि दक्षिणी भाग में अमांत मास स्वीकारते हैं। शुक्ल पक्ष की तिथि के साथ सुदी और कृष्णपक्ष की तिथि के साथ वदी सूचित करने से यह पता चल जाता है कि तिथि शुक्लपक्ष की है या कृष्णपक्ष की। चातुर्मास की अवधि को भगवान विष्णु के क्षीरसागर में शयन के लिए चले जाते हैं। आषाढ़ शुक्लपक्ष एकादशी को भगवान सोने चले जाते हैं। इस तिथि को देव शयनी एकादशी कहते हैं। चार माह का यह काल कार्तिक माह की शुक्लपक्ष की एकादशी को तब पूरा होता है जब भगवान क्षीरसागर में अपनी नागों की शया से उठते हैं। इस दिन को देव उठनी एकादशी कहते हैं।
पुराने समय में चार माह का चातुर्मास होता था। धीरे धीरे वह चार पखवाड़ों का हो गया। इस चातुर्मास में सावन के महीने में सनातनी लोग भगवान शिव की आराधना करते हैं, शिवलिंग का दुग्ध या जलाभिषेक करते हैं। मंदिरों में चातुर्मास के लिए पांडाल लगाए जाते हैं। इन पांडालों में बड़े बड़े सत्संग आयोजित किये जाते हैं। चातुर्मास में धरती भी अपना रूप स्वरूप बदलती है, यह निर्माण काल भी है। निर्माण काल में तमोगुणी वृत्तियाँ प्रबल होती हैं। इसका प्रभाव मानव व्यवहार पर भी पड़ता है। सत्संग व्यक्ति को संयमित करता है इसलिए देव शयन काल में प्रभु नाम का जप, तप, पूजा, अर्चना, ध्यान, दान, व्रत, उपवास, सत्यनारायण कथा, भागवत कथा सत्संग आदि के माध्यम से सकारात्मक ऊर्जा का संचय करते हैं। सनातन संस्कृति में यह माना जाता है कि यह अवधि पुण्य अर्जन के लिए बहुत अनुकूल है। श्रावण माह को शिव आराधना का माह, भाद्रपद माह में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव, अश्वनी माह में पितृ पक्ष, नवरात्रि और कार्तिक माह में सूर्योपासना सभी अवसर ईश्वर से आशीर्वाद प्राप्ति के सुअवसर हैं।
हम भारत की इस महान परंपरा को समझें। तर्क कुतर्क में न उलझें। हमारे अपने कर्म ही हमारे लिए आशीर्वाद बनकर आते हैं।
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