संस्कृति – लोकमंथन (10)- आस्था और विज्ञान : अध्यक्षीय चिंतन

पार्थसारथि थपलियाल।
22 सितंबर 2022 को दोपहर के भोजन के बाद का सत्र आस्था और विज्ञान की परंपरा पर ज्ञान का अद्भुत संगम था। प्रोफेसर अभिराज राजेन्द्र मिश्र द्वारा सनातन संस्कृति में आस्था पक्ष की विवेचना और विदुषी डॉ. नीरजा गुप्ता द्वारा आस्था में समाहित विज्ञान की भारतीय दृष्टि ने एक नई चेतना प्रकट की। अनुसंधान की भारतीय परंपरा व्यष्टि और समष्टि के सहचर्य को लेकर है। दो प्रमुख विचारकों को को सुनने के बात श्रोताओं तक जो मुख्य बात पहुंची वह थी- आस्था अर्थात श्रद्धा या विश्वास। विश्वास हमारे अनुभवों से बढ़ता है जबकि आस्था हमारे संस्कारों के कारण स्थापित होती है। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में सत्र के अध्यक्ष प्रोफेसर सच्चिदानंद जोशी, जो भारतीय संस्कृति के ज्ञाता हैं, वर्तमान में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव हैं, वाक कला मर्मज्ञ हैं उन्होंने अध्यक्षीय उद्बोधन को नए संस्करण के रूप में प्रस्तुत किया। उनके शब्दो में उनका अनुभव, आस्था और विज्ञान पर एक नई सोच प्रस्तुत करता है।

डॉ. सच्चिदानंद जोशी का अध्यक्षीय संवाद-
आस्था के कई अन्य अर्थ भी हैं जैसे श्रद्धा, विश्वास और उससे आगे भक्ति। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि जहाँ विज्ञान समाप्त होता है वहां से आध्यात्म शुरू होता है।

डॉ. जोशी कुछ अनुभवों के साथ संवाद शैली में बताते हैं-
“मेरे पिताजी इंजीनियर थे। हम जोरा (मध्य प्रदेश) में शहर से कुछ दूरी पर कॉलोनी थी । उस समय मेरी माँ, मैं और मेरा भाई पिताजी के साथ जोरा में रहते थे। मेरी उम्र 4-5 वर्ष रही होगी। कभी रात बेरात तबियत खराब हो जाय, बुखार आ जाय, खांसी बढ़ जाए तो अदरक, लौंग, काली मिर्च तो रसोई में होती थी। माँ जानती थी कि काढ़ा पिलाने से राहत मिल जाएगी। काढ़ा बनाने के लिए तुलसी की पत्तियों की भी जरूरत होती। माँ कहती आंगन में तुलसी है, मैं पत्ती तोड़ कर लाती हूँ। बाहर सीतरिया बाबा चौकीदार थे, वे माँ को बाहर जाने से रोक देते। आप नही तोड़ पाएंगी। मैं लाता हूँ। सीतरिया बाबा आंगन में तुलसी के चौबारे के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाते और कहते तुलसी मैया आज बबुआ की तनिक तबियत ठीक नही। काढ़ा पिलाना है। रात ज्यादा हो गई। क्या आप मुझे 2-4 पत्तियां तोड़ने की अनुमति देंगी? कुछ देर हाथ जोड़े रखने के बाद जैसे अनुमति मिल गई हो, और बैठ कर तुलसी के पत्ते तोड़ कर ले आते।
आप बताइए कि यह आस्था है या विज्ञान?”

2. पिताजी का ट्रांसफर जबलपुर हो गया था। तब हम कुछ बड़ी कक्षाओं में आ गए थे। जबलपुर के निकट पन्ना है, जहां हीरे की खाने हैं। पन्ना में बहुत दर्शनीय मंदिर भी हैं। जब कभी कोई रिश्तेदार मिलने आते तो हम उन्हें घुमाने पन्ना ले जाते। एक बार कुछ मेहमान आये थे। उन्हें घुमाने के लिए पन्ना ले गए। सुबह करीब दस- साढ़े दस बजे पहुंचे होंगे। मंदिर नही खुले थे, जबकि मंदिर के पट खुलने का समय सुबह 8 बजे से दिन में 12 बजे तक और शाम को 4 बजे से 8 बजे तक होता था। इतने में पुजारी जी आते दिखाई दिए। उनसे मंदिर न खुलने का कारण पूछा तो कहने लगे- कल दीवाली थी, बहुत लोग दर्शन करने आये थे। महाराज (भगवान) देर से सोए थे। सोचा महाराज की नींद पूरी होने देते हैं।
आप बताइए यह आस्था है? विश्वास है? परंपरा है? या विज्ञान है? किस श्रेणी में रखेंगे इस बात को?

3. छत्तीसगढ़ को चावलों (धान) का कटोरा कहा जाता है। धान को बोने से और काटने तक लगभग साढ़े तीन माह का समय लगता है। एक बार कृषि वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया तो पता चला कि लगभग साढ़े आठ महीने किसान निठल्ले बैठे रहते हैं। उन्हें लगा कि इस दौरान अमुक अमुक फसलें बो कर अधिक पैदावार प्राप्त की जा सकती है। कृषि वैज्ञानिकों ने सरकार को बताया और उसके बाद किसानों के साथ बैठक आयोजित की गई। कृषि वैज्ञानिकों ने किसानों को अपना दृष्टिकोण समझाया कि साढ़े आठ महीनों में जब आप खाली बैठे रहते हैं, उस समय में आप किस तरह ज्यादा पैदावार प्राप्त कर ज्यादा रुपये कमा सकते हैं? किसानों ने कहा कौन कहता है कि हम निठल्ले बैठे रहते हैं। क्या हम अपनी रिश्तेदारी भी न निभाएं? हमारे व्रत, तीज- त्यौहार, खेले-मेले, लोकाचार इन्हें छोड़ दें? हम कभी खाली नही हैं। बिना सामाजिक रिश्तों को निभाये जीवन का क्या महत्व है?पैसा बड़ा है या खुशियां?

किसानों ने इससे भी बड़ी बात यह कही कि क्या हम एक फसल लेने के बाद धरती मैय्या को तनिक आराम भी न करने दें। साल भर धरती मैय्या की छाती पर डाल रेंगते रहें? हमें नही चाहिए ऐसा धन।

किसानों की बात पर गौर करें और सोचें कि यह आस्था है य्या विज्ञान!

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