संस्कृति : लोकमंथन (13)- लोक परंपरा में शक्ति की अवधारणा

पार्थसारथि थपलियाल।
( हाल ही में 21 सितंबर से 24 सितंबर 2022 तक श्रीमंता शंकरदेव कलाक्षेत्र गोहाटी में प्रज्ञा प्रवाह द्वारा तीसरे लोकमंथन का आयोजन किया गया। प्रस्तुत है लोकमंथन की उल्लेखनीय गतिविधियों पर सारपूर्ण श्रृंखलाबद्ध प्रस्तुति)

23 सितंबर 2022 को प्रातः कालीन प्रमुख सत्र का विषय था “लोक परंपरा में शक्ति की अवधारणा”। आमंत्रित विशेषज्ञ थे- डॉ. सोनल मान सिंह, ओडिशी की सुविख्यात नृत्यांगना (पद्मविभूषण), माता पवित्रानंद कुमारी गिरी, महामंडलेश्वर किन्नर अखाड़ा, और श्री मनोज कुमार श्रीवास्तव, आई ए एस अधिकारी (सेवानिवृत्त), वे 37 पुस्तकों के लेखक भी हैं।

भारत में पौराणिक काल से ही वैष्णव, शैव और शाक्त परम्परा रही हैं। सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए आदिगुरु शंकराचार्य जी ने शस्त्र और शास्त्र की दिक्षाओं के लिए अखाड़ों के निर्माण किया। 2016 से पहले तक 13 अखाड़े ही थे। 2016 में उज्जैन कुम्भ के अवसर पर महामंडलेश्वर पवित्रानंद गिरी ने किन्नर अखाड़े की स्थापना की। इस सत्र में महामंडलेश्वर पवित्रा नंद गिरी महाराज ने अधिकतर समय अपनी किन्नर होने की संघर्ष गाथा को व्यक्त किया। अंत मे उन्होंने बताया कि भगवान शिव को अर्धनारीश्वर कहा जाता है। शिव जी ने पार्वती जी के साथ जो संबंध रखा वह स्त्री और पुरुष में समानता की प्रेरणा देता है।

मनोज कुमार श्रीवास्तव, शक्ति के प्रति श्रद्धावान-
श्री मनोज श्रीवास्तव ने भारत में लोक परंपरा में शाक्त की अवधारणा पर अपने विचार रखे। उन्होंने दुर्गासप्तशती के एक श्लोक को आधार बनाते हुए कहा- शक्ति की व्याप्ति लोक में भी है और विश्व में भी है। वह शक्ति ही विश्व का परिपालन करनेवाली है-
विश्वेश्वरी त्वं परिपासि विश्वं विश्वात्मिका धारयसीति विश्वं।।
वह शक्ति तीनों लोकों की संचालन शक्ति रखती है।
सर्वाबाधा प्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्।।

इसी शक्ति की महिमा दुर्गासप्तशती में व्यापकता से मिलती है। शुम्भ निशुम्भ से युद्ध के समय सभी देवता उस परमशक्ति का ही स्मरण करते हैं। देवता जब दैत्यों से अत्यधिक पीड़ित हो जाते हैं तो सभी मिलकर शक्ति की उपासना करते है और सभी देवताओं की सामुहिक शक्ति की हुंकार एक देवी को स्थापित कर अपने समस्त अस्त्र शस्त्र उस शक्ति को देते हैं, जो दैत्यों के वध करती है। यह शक्ति विभिन्न अवसरों पर भिन्न भिन्न रूपों में दुष्टों का संहार करती है। इनमें ब्राह्मणी, रुद्राणी, वैष्णवी, ऐन्द्री, कुमारी, वाराही, नारसिंही अम्बिका, काली आदि रूपों में प्रकट होती है। इसी देवी के 51 शक्ति पीठ हैं। देवी पार्वती के पिता दक्ष प्रजापति के यहां यज्ञ में शिव पार्वती को आमंत्रित नही किया गया था। पार्वती स्वेच्छा से यज्ञ में शामिल होने को गई। अपमान की स्थिति में पार्वती हवन कुंड में कूद गई। शिवजी वहां पहुंचे और पार्वती के जले शरीर को लेकर भागे। जहां देवी पार्वती के अंग गिरे थे। वहीं पर ये शक्ति पीठ हैं। उसी शक्ति को देवी, कामाख्या, त्रिपुर सुंदरी, हिंगलाज, महामाया और दुर्गा आदि नाम से भी जानते हैं।

डॉ. सोनल मानसिंह (पद्मविभूषण)-
सोनल मॉन सिंह जी ने अपनी बात अर्द्धनारीश्वर शब्द की विवेचना से की, कि शिव और पार्वती अर्थात पुरुष और स्त्री मिलकर एक पूर्ण इकाई बनते हैं। उन्होंने कहा कि अर्द्ध नर ईश्वरी शब्द ज्यादा उपयुक्त लगता है। शिव अर्द्धनारीश्वर और शक्ति अर्द्ध नर ईश्वरी भाव बनता है। उन्होंने अहमदाबाद के निकट एक आदिवासी गाँव मे 1980 में मनाए गए गरबा की कहानी सुनाई की महिषासुर वध की कहानी मंडप की चादर पर किस तरह चित्रित की गई थी। उस कहानी का अंत महिषासुर वध जैसा ही था। उन्होंने बताया कि गरबा का मूल शब्द गर्भ है। मानव देह के अंदर की चेतना के स्वरूप गरबा (मिट्टी का घड़ा) जिस पर छेद होते है और उसके अंदर जलता दिया रख दिया जाता है उसे लेकर नृतक मंडप में प्रवेश करते है और देवी की स्तुति या गीत गोल दायरे में गाते है। गरबा में साथी नृतकों के साथ ताली का समन्वय इसकी रोचकता को बढ़ाता है। जब इसी प्रकार का नृत्य डंडियों से खेला जाता है तब उसे रास या डांडिया कहते हैं। जिसमें राधा और कृष्ण की कहानी होती है।

डॉ. सोनल मान सिंह ने बताया मातृ शक्ति की पूजा अनेक देशों में की जाती है। उन्होंने आयरलैंड और दक्षिणी अमेरिकी देशों के बारे में जानकारी दी। शक्ति की पूजा से आशय है ऊर्जा की पूजा। पौराणिक ग्रंथों को पढ़ेंगे तो ज्ञान की देवी सरस्वती, धन की लक्ष्मी और शक्ति की देवी पार्वती/दुर्गा हमें सदा प्रेरणा देते हैं कि शक्ति के बिना जीवन अधूरा है। आदिगुरु शंकराचार्य ने अर्द्धनारीश्वर स्तोत्र में लिखा नमः शिवायै च नमः शिवाय।। पहले शक्ति को नमन उसके बाद शिव को नमन।। यह है शक्ति की महिमा।

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