संस्कृति : लोकमंथन (14)- भारत में धार्मिक यात्राओं और अन्नदान की लोक परंपरा-1

पार्थसारथि थपलियाल।
( हाल ही में 21 सितंबर से 24 सितंबर 2022 तक श्रीमंता शंकरदेव कलाक्षेत्र गोहाटी में प्रज्ञा प्रवाह द्वारा तीसरे लोकमंथन का आयोजन किया गया। प्रस्तुत है लोकमंथन की उल्लेखनीय गतिविधियों पर सारपूर्ण श्रृंखलाबद्ध प्रस्तुति)

23 सितंबर को दूसरे प्रमुख सत्र का विषय था- “भारत में धार्मिक यात्राओं और अन्नदान की लोक परंपरा”। विद्वान वक्ताओं के पैनल में प्रोफेसर वंदना ब्रह्मा, डॉ. पंकज सक्सेना और डॉ. मुकुंद दातार शामिल थे।

भारत शब्द का अर्थ है- ज्ञान में लीन या निरंतर ज्ञान मार्ग में आगे बढ़ते जाना। भारत ने जिस संस्कृति को अंगीकार किया उज़के नाम है सनातन संस्कृति। इस संस्कृति ने प्रत्येक प्राणी या वनस्पति में ईश्वर भाव रखा। ईश्वर सर्वत्र है। उसे अनुभव करें। यह अनुभव करने के लिए इस देव भूमि में जहां भी कोई पुण्य क्षेत्र है, तापसी क्षेत्र है, ऋषियों, मुनियों, महापुरुषों और पुण्य आत्माओं का क्षेत्र रहा हो, पुण्य सरिताओं और पर्वत श्रृंखलाओं का क्षेत्र रहा हो वे सभी स्थान तीर्थ स्थान हैं। इन तीर्थो की यात्रा युगों से होती रही है। सनातन संस्कृति नें धरती को माँ कहा। “माता भूमि पुत्रोहम पृथिव्या”। भारत में असंख्य तीर्थ स्थान हैं जहां आज भी लोग तीर्थ यात्रा के लिए जाते हैं।

51 शक्ति पीठ, 12 ज्योतिर्लिंग, 7 पुरी, सप्त सिंधु, चार धाम, बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, हरिद्वार, ऋषिकेश, उज्जैन, नासिक, अयोध्या, मथुरा, वृंदावन, गोकुल, काशी, गया, द्वारिका, पुष्कर, रामेश्वरम, जगन्नाथपुरी आदि आदि स्थानों को तीर्थ की श्रेणी में माना जाता है। श्रद्धालु इन स्थानों पर पैदल यात्रा कर पुण्य अर्जित करते रहे। इन यात्राओं के माध्यम से श्रद्धा, भक्ति और ज्ञान की वृद्धि ने मानवता को बढ़ावा दिया। पैदल यात्रा व्यक्ति में मानवीय भावों के अध्ययन की बहुत बड़ी पाठशाला है। इसीलिए सनातन संस्कृति में यात्राओं का बहुत महत्व है। इसी तरह अन्नदान करने की भारत में पुरानी परंपरा है। किसी भूखे प्यासे को भोजन कराना पुण्य कमाने का आधार माना जाता है। ककेवल अन्नदान ही नही। पुराने समय में दधीचि ऋषि, राजा शिवि, दानी कर्ण, राजा हरिश्चंद्र के नाम तो सुप्रसिध्द ही हैं। सीता जी द्वारा रावण को दी गई भिक्षा, द्रोपदी का अक्षयपात्र जैसे कितने उदाहरण हमारे पास है। गीता में एक श्लोक है-
दातव्यं इति यद् दानम दीयते अनुपकारिणे
देशे काले च पात्रे च तद दानम सात्विकम स्मृत्वं।
लोकमंथन के इस आयोजन में एक सत्र धार्मिक यात्राओं और अन्नदान की परंपराओं पर भी निर्धारित था। आइए कुछ कुछ विशेषज्ञों से हम भी कुछ ज्ञान दान ग्रहण कर लें।

डॉ. वंदना ब्रह्मा –
डॉ. वंदना ब्रह्मा कोकराझार महाविद्यालय में प्राचार्य हैं। 4 पुस्तकें लिख चुकी हैं। भारतीय संस्कृति का अच्छा गयं रखती हैं। विषय पर आने का सरल मार्ग उन्हें एक श्लोक के माध्यम से मिला-
दानेन भूतानि वशी भवन्ति, दानेन वैरानीपि यान्ति नाशं
परोपि बंधुत्व भुपैति दानेर दानम हि सर्वे व्यासनामि हन्ति।।

दान देने से सभी प्राणी वश में हो जाती है दान देने से वैर भाव खत्म हो जाता है, दान से शत्रु भी भाई बन जाते हैं और दान देने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।

भारत मे दान देने की परंपरा वैदिक काल से ही है। भारत में पुण्य कमाने के लिए, मोक्ष और पुनर्जन्म को ध्यान में रखकर दान दिया जाता है। भूदान, विद्यादान, गोदान, अन्नदान आदि कई दान दिए जाते हैं। दान सात्विक, राजसी और तामसी प्रकार के होते हैं। अन्नदान को जीवन दान की तरह देखा जाता है। उपनिषदों में कहा गया है अन्नम वे प्राण:।। वर्तमान समय में बाजारवाद और नवविचार नें मानवमूल्यों की संस्कृति को विकृत कर दिया है। बिना अतिथि को भोजन कराएं किसी भी घर में भोजन करने की रीति नही थी। आज कोई आदमी शहरी जीवन मे अतिथि से दूर भागता है। भोजन करने से पहले देवता के निमित, ऋषियों के निमित और गाय के लिए भोजन का कुछ भाग अलग रख दिया जाता था। एकादशी, पूर्णमासी या अन्य पर्वों पर भोजन करवाने की परंपरा थी। ब्रह्मभोज भी इसी प्रकार का एक आयोजन होता है।

डॉ. वंदना ब्रह्मा ने बताया कि मार्कण्डेय ऋषि, वशिष्ठ ऋषि, अत्रि ऋषि के आश्रम असम में थे। उन्होंने बताया कि असम के महापुरुष शंकर देव जी ने 1481 में सम्पूर्ण भारत की यात्रा की और यहां लौटकर उन्होंने वैष्णव संस्कृति को जन जन तक पहुंचाया।

क्रमशः 15

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