संस्कृति : लोकमंथन (16)- भारत में कृषि एवं खाद्य परम्पराएं -1

पार्थसारथि थपलियाल।
( हाल ही में 21 सितंबर से 24 सितंबर 2022 तक श्रीमंता शंकरदेव कलाक्षेत्र गोहाटी में प्रज्ञा प्रवाह द्वारा तीसरे लोकमंथन का आयोजन किया गया। प्रस्तुत है लोकमंथन की उल्लेखनीय गतिविधियों पर सारपूर्ण श्रृंखलाबद्ध प्रस्तुति)

23 सितंबर को “लोक परंपरा में कृषि एवं खाद्य” विषयक सत्र में तीन विशेषज्ञों के पैनल में प्रोफेसर बलदेवराज कंबोज, पार्थसारथि थपलियाल और श्री विष्णु मनोहर थे। सत्र का संचालन संवाद विधा के गुरु पंचनद शोध संस्थान के अध्यक्ष एवं प्रज्ञा प्रवाह के निदेशक प्रोफेसर बृज किशोर कुठियाला ने किया।

पार्थसारथि थपलियाल, उत्तराखंड के एक पारंपरिक सनातन परिवार से हैं। परम्पराओं की संस्कृति में पले बढ़े है। आकाशवाणी में कार्यक्रम अधिकारी रहे हैं। अनेक महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के प्रोड्यूसर रहे हैं। 5 पुस्तकें प्रकाशनाधीन है। सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र पत्रकार/लेखक हैं। भारतीय संस्कृति के जानकार हैं। आइए उनके व्याख्यान का सार जाने-

श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय में एक श्लोक है-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥

अर्थ – श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, सम्पर्क में आने वाले पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण प्रस्तुत कर देता है, मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार व्यवहार करने लग जाते हैं। यही बात भारतीय संस्कृति की लोक परंपरा में रही है।

मनुष्य को शरीर को पोषित करने के लिए संतुलित पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। इसके लिए 7 तत्व प्रमुख हैं- शर्करा (कार्बोहाइड्रेट), शक्तिवर्धक तत्व (प्रोटीन), वसा (चिकनाई), लवण (साल्ट), खनिज, और पौष्टिक तत्व। इन तत्वों की पूर्ति अनाज से, कंदमूल से, हरी सब्जियों से, दालों से, फलों से, तैलीय पदार्थों से, खनिजों और दुग्धाहार से करता रहा है। इसका विवरण प्राचीन खाद्यग्रंथ- पाकदर्पण, भोजन कुतूहल, नल पाक दर्पण, आयुर्वेद और चरक संहिता में है।

भारत मे भोजन करने की परंपरा सामाजिक संस्कारो, रीति-रिवाजों और आंचलिकता के साथ जुड़ा हुआ है। ऋतु के अनुसार आहार लेना भी एक परंपरा है। सर्दियों में तिल पापड़ी, उडद की दाल के लड्डू, गुड़, चना गर्मियों में सादा खाना, सावन में दूध शिवलिंग पर चढ़ाना, हरि सब्जी कम खाना, भाद्रपद में घी का अधिक उपयोग, कार्तिक पूर्णिमा को खीर खाना, मकर संक्रांति को खिचड़ी खाना, अन्नकूट, एकादशी और पूर्णिमा का व्रत रखना भी खाद्य परम्पराओं में शामिल हैं। उत्तराखंड के लोगों के आहार में दिन में चावल (दाल-भात) अवश्य होता है, मारवाड़ (राजस्थान) में चावल खास मौके पर ही बनाये जाते हैं। वहाँ सोगरा (बाजरी की रोटी), कैर-कुम्मटी, सांगरी, कढ़ी सामान्य भोजन है, बंगाल में माछ-भात प्रिय भोजन है। दक्षिण भारत में इडली, डोसा, सांभर, उत्तपम, चावल, रसम केले के पत्ते में बड़े स्वाद से खाये जाते हैं। गुजराती लोग दाल या सब्जी में मीठा जरूर डालते हैं। भारतीय समाज में बच्चे के गर्भावस्था से ही गर्भवती के आहार की तरफ बहुत ध्यान दिया जाता है। हरियाणा और राजस्थान में नव प्रसूता को दाल, सौंठ, गूंद और घी के लड्डू खिलाये जाते हैं। लगभग 40-45 दिन में एक प्रसूता 15 से 20 किलोग्राम घी खाती है।

भोजन की शुध्दता भारतीय संस्कृति की पहली पहचान है। सामूहिक भोज की व्यवस्था चुनी हुई जातियों के ही लोग करते थे। आहार उपयुक्त होना चाहिए। गीता में लिखा है-
युक्ताहार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु
युक्त स्वप्नावबोधस्य योगों भवति दुःखहा।।

घर मे भोजन तैयार करते समय मन, वचन और कर्म से स्वच्छता हों, किसी प्रकार का क्रोध न हो। पहली रोटी गाय की उसके बाद बुज़ुर्ग की, फिर बच्चे को खिलाना चाहिए, बच्चे के बाद सभी भोजन करें। आखरी रोटी कुत्ते की बनाये और उसे दें।

भोजन में षडरस कसैला, खट्टा, मीठा, नमकीन, तिक्त, कषाय और कटु रस ऋतुचर्या के अनुसार होने चाहिए । भोजन करते समय आवश्यक होने पर ही एक दो घूंट पानी पिएं। भोजन करने से पहले भोजन मंत्र बोलने की परंपरा है। यथा-
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महवीरब्रह्मागनो ब्रह्मणा हुतं
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना।।

फिर गौ ग्रास निकाल कर रखना। थाली के चारो ओर जल से लकीर बना देना। भोजन को नमस्कार कर भोजन ग्रहण करना। भोजन की आलोचना नही करनी चाहिए। भोजन करते समय बातें न करना। भोजन समाप्ति पर मंत्र बोलने की परंपरा रही है। जैसे-
अन्नाद भवन्ति भूतानि पर्जन्याद अन्न संभव
यज्ञाद भवति प्रजन्यो यज्ञ कर्म समुद्भव:।

खाद्य परंपरा में पथ्य, अपथ्य और कुपथ्य का ध्यान रखें। विरुद्ध भोजन से बचें जैसे-
दही में नमक डाल कर न खाएं
दूध के साथ दही, नमक, मूली, खरबूजा न खाएं
खीर के साथ खट्टी चीज न खाएं
उड़द की दाल के साथ दही और मूली न खाएं
मछली और दूध विरुद्ध आहार हैं।
केरला और छांछ भूलकर भी एक साथ न लें।
शहद और घी समान मात्रा में एक साथ विष का काम करते हैं। अलग अलग मात्रा में अमृत समान हैं।

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय।

Comments are closed.