संस्कृति-लोकमंथन (19)- लोक परंपरा में वाद्य संस्कृति

पार्थसारथि थपलियाल।

भारत में जीवन को सरल और सरस बनाये रखने के लिए सामवेद से लेकर आधुनिकतम संगीत तक निरंतर प्रयोग होते रहे। भगवान शिव को नटराज कहा जाता है। शिव जी ने नारद जी को संगीत की शिक्षा दी। भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र के माध्यम से नव रसों के बारे में बताया। इन नव रसों की उत्पत्ति में वाद्ययत्रों कई महत्वपूर्ण भूमिका होती है जो जीवन मे एक रसता या नीरसता को तोड़कर सरसता पैदा करते हैं।
23 सितंबर के दोपहर बाद के एक सत्र में लोक परंपरा में वाद्य संस्कृति विषय पर संवाद शैली में डॉ. संतोष कुमार, प्रोफेसर एस. ए. कृष्णय्या और डॉ. अश्वनि महेश दलवी के मध्य संवाद की भूमिका डॉ. दलवी ने स्थापित की। आइए आज बढ़ने से पहले इन महानुभावों का अति संक्षिप्त परिचय जान लें।
डॉ. अश्वनि महेश दलवी अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार हैं। संगीत इन्हें विरासत में मिला। अकाशवाणी के अनुमोदित कलाकार हैं। राजस्थान ललित कला अकादमी के अध्यक्ष हैं।
डॉ. संतोष कुमार सिक्किम विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं भारतीय शास्त्रीय संगीतकार और प्रतिष्ठित बांसुरी वादक हैं। सांगीत विषय पर इनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
प्रोफेसर एस. ए. कृष्णय्या अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लोक कलाकार, लेखक और दक्षिण भारतीय लोक कलाओं और आदिवासी संस्कृति के संरक्षक हैं। अब तक 7 पुस्तकें लिख चुके हैं।
लोक परंपरा में वाद्य संस्कृति विषय पर परिचयात्मक विवरण देते हुए डॉ. अश्वनि महेश दलवी ने बताया- लोक परंपरा में वाद्ययत्रों का बहुत महत्व है। हमारे जितने भी पौराणिक देवी देवता हैं उनके पास तीन पहचान अवश्य होती हैं। वे हैं- शस्त्र, वाहन और वाद्ययंत्र। हमारी लोक संस्कृति में वाद्य यंत्र संस्कारों के साथ जुड़े हुए हैं।
इस महत्वपूर्ण विषय पर डॉ. संतोष कुमार ने कहा लोक शब्द बहुत व्यापक है। हमारा आचार-व्यवहार, विचार और संस्कार मिलाकर लोक संस्कृति बनती है। वैदिक काल में जो मार्गी संगीत था उसमे भी वाद्य संगीत था और जो लोक संगीत है उसमें भी वाद्य संगीत है। उनमे थोड़ा थोड़ा अंतर भी है। मतंग ऋषि नें देसी संगीत के बारे में बताया कि जो भी जीव, जंतु, मानव आदि हैं उन्हें अपनी आंचलिक ध्वनियां अच्छी लगती हैं। उन्होंने ऐतिहासिक परिपेक्ष में सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में प्राप्त चिन्हों के माध्यम से सविस्तार जानकारी दी कि उस समय कौन कौन से वाद्ययंत्र थे। उन्होंने संगीत के 4 प्रकार के वाद्यों की जानकारी दी- घनवाद्य, सुषिर वाद्य, ततवाद्य और अनवद्ध वाद्य। ये सभी वाद्य आज हमारे संगीत को तरह तरह से सजा रहे हैं। मंदिरों में बजट नौपत शहनाई, विवाह आदि शुभ कार्यों में बजने वाले ढोल नगाड़े, युद्ध मे बजने वाली रणभेरी/दुंदभी, बांसुरी, ढोलक, सारंगी आदि सभी वाद्ययंत्र हमारे लोक जीवन से जुड़े हुए हैं।
प्रोफेसर एस. ए. कृष्णय्या से जब दक्षिण भारतीय लोक जीवन में लोक वाद्यों की जानकारी पर प्रश्न पूछा गया तो उन्होंने एतिहासिक पृष्ठभूमि में संगीत पर चर्चा की। दक्षिण भारतीय वाद्ययंत्रों में नादस्वरम, शंख, घंटी, वीणा, मुखवीणा, शहनाई, माउरी, पखावज, मृदंगम आदि अनेक लोकवाद्य हैं।
उन्होंने दक्षिण भारत के आदिवासी लोक वाद्यों की जानकारी दी और इन सूक्ष्म वाद्यों को बनाने में आदिवासी समाज की उस निपुणता को भी बताया कि वे लोग किस तरह से अपने संगीत वाद्य यंत्रों को बनाते हैं। दक्षिण भारत मे आदिवासी समुदाय द्वारा कठपुतली नृत्य में कलाकार श्रुति वाद्य का उपयोग करते हैं।
पौराणिक काल में यक्ष, किन्नर, गंदर्भ आदि लोग संगीत विधा में निपुण थे। इसी परंपरा में तालवाद्य, तंतुवाद्य, घनवाद्य और फूक वाद्य अस्तित्व में आये। इन वाद्यों के बजने से निकली धुनों से हर्ष या शोक, युद्ध या शांति का भी ज्ञान हो जाता हैं। सुखी जीवन के लिए तथा संस्कृति को बचाये रखने के लिए आवश्यक हैं।

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