संस्कृति- गोत्र, प्रवर, वेद आदि

पार्थसारथि थपलियाल।
गोत्र, प्रवर आदि शब्दों के बारे में एक जिज्ञासा किसी सनातनी ने भेजी है।

वैदिक संस्कृति में व्यक्ति की पहचान के लिए गोत्र, प्रवर, देवता, वेद, शाखा और सूत्र का ज्ञान होना आवश्यक था ताकि उसके मूल का पता चल जाए और उचित पहचान स्थापित की जा सके। उच्च वर्ग में इन सभी का उपयोग धार्मिक कार्यों में संकल्प के समय किया जाता था। इस कारण परिवार वाले भी अपने वंश के पूर्वपुरुषों के नाम से परिचित रहते थे। यथा- पिता, प्रपिता, पितामह, प्रपितामह, माता, प्रमाता, मातामही, प्रमातामही आदि। अपनी पहचान के लिए झूठ बोलना पाप माना जाता था इसलिए हर कोई अपनी जानकारी के अनुसार सच ही बोलता था। संशय की स्थिति में जोर देकर पूछे जाने पर व्यक्ति किसी जानकारी की सत्यता की पुष्टि के लिए सौगंध ले लेता, यथा- किसी देवी-देवता, माता, सरस्वती, गंगा, गीता या गायत्री की सौगंध ले लेता तो उसे प्रामाणिक सत्य मान लिया जाता था। झूठ बोलना भारतीय संस्कृति का स्वीकार्य अंग नही था। विदेशी आक्रांताओं के आने के बाद जिस तरह की बर्बरताएँ भारतीयों पर बरपाई गई उनसे मानवता टूट गई। आत्म रक्षा, स्वाभिमान, महिला एवं बाल सुरक्षा, धर्म रक्षा को बचाने के लिए लोगों ने झूठ बोलना शुरू किया। अन्यथा आदमी को अपना परिचय देने के लिए शपथ-पत्र देने की ज़रूरत नही होती थी अपना गोत्र, प्रवर, शाखा इत्यादि की मौखिक जानकारी ही पर्याप्त थी।
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी 20-30 सालों तक लोग अपना गोत्र अच्छी तरह से याद रखते थे और उसके महत्व को समझते थे। आइए लुप्त होती इस संस्कृति के बारे में कुछ जाने-
विभिन्न कुल परम्पराओं की मूल पहचान के छः बिंदु थे-
1 गोत्र- गोत्र का आशय उस ऋषि परंपरा से है जिससे व्यक्ति अपने वंश की उत्पत्ति मानता है।
वैदिक ज्ञान प्राचीन ऋषियों (वैज्ञानिकों) को ध्यानावस्था में प्राप्त हुआ। उन ऋषियों की संतानें अथवा उनके शिष्य उस ऋषि परंपरा के माने गए। यह ऋषि परंपरा ही गोत्र है। गोत्र के दो अर्थ और भी हैं- 1. गो का अर्थ है इंद्रियां और त्र का अर्थ है रक्षा करना। 2. गो का अर्थ है गाय। अर्थात गाय की रक्षा करने वाले। 3. गो का एक अर्थ पृथ्वी भी होता है।अर्थात पृथ्वी की रक्षा करना । प्राचीन काल मे आश्रमों में इन्द्रिय संयम आवश्यक था दूसरे- गुरुकुल में ऋषियों के पास गायें होती थी, शिष्य उनकी देखभाल और रक्षा भी करते थे। इसमें प्रमुखता गुरु की थी अतः उस परंपरा से निकले सभी लोग स्वयं को उस ऋषि परंपरा का होने के कारण स्वयं को उस ऋषि के गोत्र कहलाने लगे। बाद में जिन लोगों की वैदिक शिक्षा गुरुकुल में नही नही भी थी उन्होंने अपने कुल-गुरुओं के गोत्र को अपना लिया। आरंभ में चार ही गोत्र थे कालांतर में वे सात हो गए। ये सात गोत्र थे- वशिष्ठ, विश्वमित्र, भारद्वाज, कश्यप, गौतम, अत्रि, और जमदग्नि। विष्णु पुराण में इन्हें सप्त-ऋषि कहा गया है। इन्ही के नाम पर सात नक्षत्रों के समूह को सप्त ऋषि मंडल भी कहा गया है। बाद में अनेक ऋषियों के नाम से अन्य गोत्र अस्तित्व में आये।
2. प्रवर- प्रवर शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ। सीधा मतलब यह था कि उस कुल का प्रवर्तक कौन था जिसने उनके आचरण के लिए कुछ नियम दिए और उनके आधार पर उन्हें उत्तम या मध्य श्रेणी का दर्जा दिया उसकी पहचान जनेऊ से होती थी। पांच धागों से निर्मित जनेऊ धारण करने वाले पंचप्रवर और तीन धागों वाले जनेऊ धारण करने वाले त्रिप्रवर कहलाये। पंचप्रवर वाले ज्यादा कुलीन माने जाते थे।
एक ही गोत्र में समय समय पर अनेक प्रवर्तक हुए। जैसे भगवान राम का कुल सूर्यवंशी है। इसी वंश में प्रतापी राजा रघु भी हुए उन्ही से रघुवंश शुरू हुआ। इशी कुल में प्रतापी राजा इक्ष्वाकु भी हुए उनके नाम से इक्ष्वाकु वंश चला। राजा रघु और इक्ष्वाकु अपने गोत्र के प्रवर्तक हुए।
3 वेद व वैदिक शाखा-
समाज व्यवस्था के आरंभ में लोग कम थे। सभी लोगों की वैदिक ज्ञान ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती थी। सभी लोग सभी वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) का अध्ययन करते थे। चार वेद पढ़ने वाले चतुर्वेदी, तीन वेद पढ़ने वाले त्रिवेदी, दो वेद पढ़ने वाले द्विवेदी और एक वेद पढनेवाले वेदी कहलाने लगे। अशुद्धता से बचने के लिए वेदों की शाखाओं तक उनके लिए नियत किये गए। जैसे शुक्ल यजुर्वेद या कृष्ण यजुर्वेद के अध्ययनकर्ता।
4. सूत्र- समाज का आकार बाद होता गया अध्ययन में कमी आने लगी तो ऋषियों ने विभिन्न गोत्रों के लिए वैदिक सूत्र निर्धारित किये ताकि वे सूत्रों का अध्ययन कर सकें। यथा पारस्कर सूत्र, बौधायन सूत्र, ब्रह्म सूत्र, कात्यान सूत्र, गोभिल सूत्र आदि।
5 देवता- प्रत्येक कुल का देवता भी निर्धारित होता था। इसी प्रकार कुल देवता, स्थान देवता, ईष्ट देवता भी कुल की रीति के अनुसार पूजे जाते रहे हैं। किसी ने विष्णु भगवान को, किसी ने कृष्ण को, किसी ने दुर्गा देवी किसी ने काली आदि को अपना कुल देवी /देवता माना।
6. शिखा और जनेऊ- प्रत्येक पुरुष के मुंडन संस्कार के समय सिर पर गौ खुर के समान साथन पर शिखा/चोटी रखना प्रत्येक सनातनी के लिए आवश्यक था। यह सनातनी होने की पहचान भी है।
शिखा बायीं ओर से बांधी जा रही है या दायीं ओर से इससे भी व्यक्ति के गोत्र की पहचान होती थी। इसी प्रकार जो लोग वैदिक नियम धर्म की पालना कर सकते थे उनके लिए जनेऊ धारण करना अनिवार्य था। जनेऊ के धागों की गिनती से व्यक्ति के प्रवर का ज्ञान हो सकता था। जनेऊ पर लगने वाली ब्रह्म गांठ में कितनी गांठें लगाई जा रही हैं उससे भी व्यक्ति के बारे में पता चल जाता था।
धार्मिक कार्यों में शिखा और सूत्र का बहुत अधिक महत्व होता है।
विवाह संस्कार के अवसर पर वंश परंपरा का परिचय में कन्या और वर पक्ष के पुरोहित मंगलाचरण के साथ और संकल्प के समय गोत्र आदि का विवरण उच्चारित किया जाता है। यह परंपरा अभी भी व्यवहार में है।

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