पार्थसारथि थपलियाल
श्राद्ध का वास्तविक उद्देश्य श्राद्धपक्ष में अपने पूर्वजों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करना, उनकी पूजा करना, तर्पण देना, पंच ग्रास देना, ब्रह्मभोज/श्राद्ध भोज करवाना व दक्षिणा देना है। वैसे तो इस सीरीज के भाग 2 में भी बताया है कि जिस तिथि (शुक्ल पक्ष या कृष्णपक्ष) को किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है श्राद्धपक्ष में उसी तिथि को उस व्यक्ति का श्राद्ध मनाया जाएगा। इसके अलावा कुछ और संबंध है जिनके लिए शास्त्रों में श्राद्ध दिन निर्धारित हैं।
जिन लोगों की अकाल मृत्यु/अपमृत्यु हुई हो जैसे आत्महत्या, हत्या, सर्पदंश से, विषपान से, दुर्घटना से….उनका श्राद्ध मृत्यु वाली तिथि की बजाय चतुर्दशी को करना बताया गया है। पति के जीवित रहते हुए सुहागनमृत नारी का श्राद्ध नवमी के दिन निर्धारित है। नाना-नानी का श्राद्ध अश्वनी शुक्लपक्ष प्रतिपदा के दिन करना चाहिए। भले ही उनकी मृत्यु तिथि ज्ञात हो। अज्ञात तिथि के मृतकों का श्राद्ध पूर्णिमा या अमावस के दिन करना चाहिए। यदि किसी का श्राद्ध नही कर पाए, छूट गया तो अमावस को, अंतिम श्राद्ध या सर्व पितृ श्राद्ध के दिन यह कार्य किया जा सकता है।
श्राद्धपक्ष में पूर्णतः ब्रह्मश्चर्य का पालन करना चाहिए। बाल कटवाने, दाढ़ी बनवाना इस पक्ष में वर्जित है। मांस, मदिरा, लहसुन, प्याज का उपयोग न किया जाय।
श्राद्ध में वर्जित खाद्य- बासी भोजन, अरहर, राजमाह, मसूर, चना, बैंगन, गाजर,, कद्दू, हींग, कला जीरा, पीली सरसों। केले का फल और पत्ते भी उपयोग में न लाएं। पुरुष सफेद धोती पहने, महिलाएं बॉर्डर वाली साड़ी पहन सकती हैं।
संयुक्त परिवार में ज्येष्ठ भ्राता तर्पण देने का अधिकारी है। घर बंटवारे के बाद सभी अपने अपने घर में तर्पण देने के अधिकारी बन जाते हैं। जहाँ पुत्र न हो वहाँ पति के लिए पत्नी, या दूसरा भाई भी तर्पण दे सकता है। तर्पण में उपयोग आनेवाली वस्तुएं- जनेऊ, एक परात या बड़ी थाली जिसमें तर्पण किया जाएगा। एक अन्य बर्तन में जल मिश्रित दूध, गंगा जल, शहद, काले तिल, चावल और जौ, सफेद फूल जैसे चंपा के फूल, मालती, भृंगराज कमल आदि। धूप, दीप, सामयिक फल। तर्पण अभ्यासी पंडित से करवाएं अथवा तर्पण विधि से पढ़कर भी दे सकते हैं।
भोजन में गाय का घी उपयोग ला सकें तो उत्तम है। भोजन में खीर अवश्य हो। पंडित, बहन, बेटी, भानजा, भानजी आदि को भोजन के लिए आमंत्रित करें। अतिथियों को भोजन परोसने से पहले पंच ग्रास निकालें। पके हुए भोजन में से देवताओं के लिए, गाय के लिए, कुत्ते के लिए, कवे के लिए और चींटियों के लिए भोजन ग्रास (पत्ते में, दोने या पत्तल में) निकाल कर उन्हें (कौआ) आवाज देकर बुलायें।
देवताओं का हिस्सा छत में रख दें अथवा उसे भी गाय को खिला दें। चींटियों का ग्रास किसी खेत के किनारे रख सकते हैं। जिन भी लोगों को श्राद्ध का भोजन करवाया उन्हें दक्षिणा अवश्य दें। जाते हुए उन्हें फल भेंट करें। उसके बाद परिवार के लोग भोजन करें।
शास्त्रों में लिखा है कि जो लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध नही करते उन्हें पितृदोष लगता है। इसके लक्षण हैं-घर में अशांति, भाइयों में मनमुटाव और कलह, लड़ाई-झगड़ा, तनाव, दंपति का संबंध विच्छेद होना, आधि- व्याधि, संतान का मंदबुद्धि होना, विकलांग होना, सास बहू में झगड़ा, अहंकारपूर्ण जीवन, मान-प्रतिष्ठा गिरना, कोर्ट-कचहरी, वकील-पुलिस के फंदे में फंसे रहना, हर समय चिंताग्रस्त रहना, आदि आदि।
इन सबसे मुक्ति के लिए जीवन को सरल और सदाचारी बनाएं, अपने जीवित दादा-दादी, माता-पिता, और बड़े बुजुर्गों की सेवा करते रहें, उन्हें दुखी न करें, उनकी बात सुनें। ईश्वर को याद करते रहें। दीन दुखियों का सहारा बनें। पितृपक्ष में श्राद्ध करते रहें। पितृकृपा बनी रहेगी।
सनातन संस्कृति का व्यवहार सूत्र है-
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत।।
अर्थात जो व्यवहार हमें अपने साथ किया जाना पसंद नही वह व्यवहार दूसरों के साथ भी न करें।
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