डालडा: वनस्पति घी का इतिहास और बदलते भारत की कहानी

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,20 जनवरी।
भारत में वनस्पति घी का नाम लेते ही एक ब्रांड दिमाग में आता है – डालडा। 90 सालों का यह ब्रांड न केवल एक उत्पाद था, बल्कि भारतीय रसोई और समाज का हिस्सा भी बन गया। 20वीं सदी के मध्य से लेकर 90 के दशक तक, डालडा वनस्पति घी भारतीय घरों में पकवान बनाने का मुख्य आधार रहा। लेकिन समय के साथ बदलते खाद्य परिदृश्य, प्रतिस्पर्धा, और अफवाहों ने इस मशहूर ब्रांड को किनारे कर दिया।

डालडा का इतिहास

डालडा की शुरुआत 1937 में हिंदुस्तान यूनिलीवर ने की थी। यह नाम नीदरलैंड की कंपनी डाडा से प्रेरित था, जिसने भारत में वनस्पति घी का कारोबार शुरू किया। यूनिलीवर ने इसमें “एल” जोड़कर इसे भारतीय पहचान दी और यह डालडा बन गया। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौर में भी यह ब्रांड भारतीय रसोई का अभिन्न हिस्सा बन चुका था।

90 के दशक तक डालडा का दबदबा

90 के दशक तक डालडा भारत का नंबर वन वनस्पति घी ब्रांड बन गया। पराठा, समोसा, मिठाइयाँ, और जलेबियाँ, सबकुछ डालडा में ही बनता था। उस दौर के टीवी विज्ञापन “डालडा” की लोकप्रियता को और बढ़ावा देते थे। ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीन टीवी के दौर तक, डालडा ने अपने विज्ञापनों और गुणवत्ता से बाजार में अपनी मजबूत पकड़ बनाई।

अफवाहें और प्रतियोगिता का प्रभाव

90 के दशक के अंत में, बाजार में अन्य भारतीय कंपनियों ने वनस्पति घी के विकल्प पेश किए। मूंगफली, सूरजमुखी, तिल, और सोयाबीन के रिफाइंड ऑयल डालडा की तुलना में सस्ते और सेहतमंद विकल्प के रूप में उभरे। इसी दौरान अफवाहें फैलाई गईं कि डालडा के घी में चर्बी मिलाई जाती है। हालांकि, यह महज एक अफवाह थी, लेकिन इसका असर डालडा की लोकप्रियता पर पड़ा।

डालडा से रिफाइंड ऑयल तक का सफर

21वीं सदी की शुरुआत तक भारत में खाद्य तेल उद्योग में क्रांति आ गई। रिफाइंड ऑयल जैसे मूंगफली, सोयाबीन, और सूरजमुखी के तेल ने भारतीय किचन में अपनी जगह बना ली। कंपनियों ने ऐसे विज्ञापन बनाए जिनमें वनस्पति घी को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया गया। इसके परिणामस्वरूप, डालडा का बाजार धीरे-धीरे सिकुड़ने लगा।

डालडा की विरासत

डालडा केवल एक ब्रांड नहीं था, बल्कि यह भारतीय खाद्य परंपरा का हिस्सा था। 2003 में हिंदुस्तान यूनिलीवर ने इसे BUNGE LIMITED को बेच दिया। हालांकि, यह ब्रांड अब पहले जैसा प्रचलित नहीं है, लेकिन इसके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।

घी से जुड़ी नई बहस

आज घी और चर्बी को लेकर बहस छिड़ी हुई है। घी को पारंपरिक और स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है, जबकि चर्बी वाले उत्पादों को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ी है। डालडा इस बहस का हिस्सा नहीं है, लेकिन इसका ऐतिहासिक महत्व आज भी कायम है।

निष्कर्ष

डालडा का इतिहास भारतीय खाद्य संस्कृति का हिस्सा है। यह हमें न केवल बदलती तकनीकों और बाजार की मांगों को समझने में मदद करता है, बल्कि यह भी सिखाता है कि उपभोक्ताओं की धारणा और विश्वास एक ब्रांड की सफलता में कितना महत्वपूर्ण होता है। अफवाहों और बदलते दौर ने डालडा को भले ही पीछे धकेल दिया हो, लेकिन यह ब्रांड आज भी भारतीय इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बनाए हुए है।

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