मृत्यु भी एक प्राण यज्ञ है !

*प्रस्तुति -कुमार राकेश

प्रत्येक व्यक्ति अलग इंद्रिय से मरता है। किसी की मौत आंख से होती है, तो आंख खुली रह जाती है—हंस आंख से उड़ा। किसी की मृत्यु कान से होती है। किसी की मृत्यु मुंह से होती है, तो मुंह खुला रह जाता है। अधिक लोगों की मृत्यु जननेंद्रिय से होती है, क्योंकि अधिक लोग जीवन में जननेंद्रिय के आसपास ही भटकते रहते हैं, उसके ऊपर नहीं जा पाते।

आपकी जिंदगी जिस इंद्रिय के पास जीयी गई है, उसी इंद्रिय से मौत होगी। औपचारिक रूप से हम मृतक को जब मरघट ले जाते हैं तो उसकी कपाल—क्रिया करते हैं, उसका सिर तोड़ते हैं। वह सिर्फ प्रतीक है। पर समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु उस तरह होती है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु सहस्रार से होती है। जननेंद्रिय सबसे नीचा द्वार है।

जैसे कोई अपने घर की नाली में से प्रवेश करके बाहर निकले। सहस्रार, जो तुम्हारे मस्तिष्क में है द्वार, वह श्रेष्ठतम द्वार है।

जननेंद्रिय पृथ्वी से जोड़ती है, सहस्रार आकाश से। जननेंद्रिय देह से जोड़ती है, सहस्रार आत्मा से। जो लोग समाधिस्थ हो गए हैं, जिन्होंने ध्यान को अनुभव किया है, जो ध्यान को उपलब्ध हुए हैं, उनकी मृत्यु सहस्रार से होती है। उस प्रतीक में हम अभी भी कपाल—क्रिया करते हैं। मरघट ले जाते हैं, बाप मर जाता है, तो बेटा लकड़ी मारकर सिर तोड़ देता है।

मरे—मराए का सिर तोड़ रहे हो! प्राण तो निकल ही चुके, अब काहे के लिए दरवाजा खोल रहे हो? अब निकलने को वहां कोई है ही नहीं। मगर प्रतीक, औपचारिक, आशा कर रहा है बेटा कि बाप सहस्रार से मरे; मगर बाप तो मर ही चुका है।

यह दरवाजा मरने के बाद नहीं खोला जाता, यह दरवाजा जिंदगी में खोलना पड़ता है। इसी दरवाजे की तलाश में सारे योग, तंत्र की विद्याओं का जन्म हुआ। इसी दरवाजे को खोलने की कुंजियां हैं योग में, तंत्र में। इसी दरवाजे को जिसने खोल लिया, वह परमात्मा को जानकर मरता है। उसकी मृत्यु समाधि हो जाती है।

इसलिए हम साधारण आदमी का शव दाह किया जाता है, सन्यासी की समाधि बनाई जाती है।जो समाधिस्थ होकर जो मरा है।

प्रत्येक व्यक्ति उस इंद्रिय से मरता है, जिस इंद्रिय के पास जीया। जो लोग रूप के दीवाने हैं, वे आंख से मरेंगे; इसलिए चित्रकार, मूर्तिकार आंख से मरते हैं। उनकी आंख खुली रह जाती है। जिंदगी—भर उन्होंने रूप और रंग में ही अपने को तलाशा, अपनी खोज की। संगीतज्ञ कान से मरते हैं। उनका जीवन कान के पास ही था। उनकी सारी संवेदनशीलता वहीं संगृहीत हो गई थी। मृत्यु देखकर कहा जा सकता है—आदमी का पूरा जीवन कैसा बीता।

अगर तुम्हें मृत्यु को पढ़ने का ज्ञान हो, तो मृत्यु पूरी जिंदगी के बाबत खबर दे जाती है कि आदमी कैसे जीया; क्योंकि मृत्यु सूचक है, सारी जिंदगी का सार—निचोड़ है —आदमी कहां जीया। मृत्यु के समय जीव के साथ क्या घटित हो रहा होता है उसका वहां अन्य लोगों को अंदाज़ नही हो पाता । लेकिन घटनाएं तेज़ी से घटती हैं ।

मृत्यु के समय व्यक्ति की सबसे पहले वाक उसके मन में विलीन हो जाती है ।उसकी बोलने की शक्ति समाप्त हो जाती है। उस समय वह मन ही मन विचार कर सकता है लेकिन कुछ बोल नहीं सकता।उसके बाद दृष्टिऔर फिरश्रवण इन्द्रिय मन में विलीन हो जाती हैं । उस समय वह न देख पाता है, न बोल पाता है और न ही सुन पाता है । उसके बाद मन इन इंद्रियों के साथ प्राण में विलीन हो जाता है उस समय सोचने समझने की शक्ति समाप्त हो जाती है, केवल श्वास-प्रश्वास चलती रहती है ।

इसके बाद सबके साथ प्राण सूक्ष्म शरीर मे प्रवेश करता है । फिर जीव सूक्ष्म रूप से पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश (पञ्च तन्मात्राओं) का आश्रय लेकर हृदय देश से निकलने वाली 101 नाड़ियों में से किसी एक में प्रवेश करता है । देश से जो 101 नाड़ियां निकली हुई है, मृत्यु के समय जीव इन्हीं में से किसी एक नाड़ी में प्रवेश कर देह-त्याग करता है ।

मोक्ष प्राप्त करने वाला जीव जिस नाड़ी में प्रवेश करता है, वह नाड़ी हृदय से मस्तिष्क तक फैली हुई है । जो मृत्यु के समय आवागमन से मुक्त नहीं हो रहे होते वे जीव किसी दूसरी नाड़ी में प्रवेश करते हैं। जीव जब तक नाड़ी में प्रवेश नही करता तब तक ज्ञानी और मूर्ख दोनों की एक गति एक ही तरह की होती है ।

नाड़ी में प्रवेश करने के बाद जीवन की अलग अलग गतियां होती हैं। श्री आदि शंकराचार्य जी का कथन है कि ‘जो लोग ब्रह्मविद्या की प्राप्ति करते हैं वो मृत्यु के बाद देह ग्रहण नही करते, बल्कि मृत्यु के बाद उनको मोक्ष प्राप्त हो जाता है’ ।

श्री रामानुज स्वामी का कहना है ‘ब्रह्मविद्या प्राप्त होने के बाद भी जीव जीव देवयान पथ पर गमन करने के बाद ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है, उसके बाद मुक्त हो जाता है’ । देवयान पथ के संदर्भ में श्री आदि शंकराचार्य जी ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि ‘जो सगुण ब्रह्म की उपासना करते हैं वे ही सगुण ब्रह्म को प्राप्त होते हैं और जो निर्गुण ब्रह्म की उपासना कर ब्रह्मविद्या प्राप्त करते हैं वे लोग देवयान पथ से नहीं जाते’।

अग्नि के सहयोग से जब स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, उस समय सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं हुआ करता । मृत्यु के बाद शरीर का जो भाग गर्म महसूस होता है, वास्तव में उसी स्थान से सूक्ष्म शरीर देह त्याग करता है । इसलिए वह स्थान थोड़ा गर्म महसूस होता है ।

गीता के अनुसार जो लोग मृत्यु के अनंतर देवयान पथ से गति करते हैं उनको ‘अग्नि’ और ‘ज्योति’ नाम के देवता अपने अपने अधिकृत स्थानों के द्वारा ले जाते हैं । उसके बाद ‘अह:’ अथवा दिवस के अभिमानी देवता ले जाते हैं ।

उसके बाद शुक्ल-पक्ष व उत्तरायण के देवता ले जाते हैं । थोड़ा स्पष्ट शब्दों में कहे तो देवयान पथ में सबसे पहले अग्नि-देवता का देश आता है फिर दिवस-देवता, शुक्ल-पक्ष, उत्तरायण, वत्सर और फिर आदित्य देवता का देश आता है । देवयान मार्ग इन्हीं देवताओं के अधिकृत मार्ग से ही होकर गुजरता है । उसके बाद चन्द्र, विद्युत, वरुण, इन्द्र, प्रजापति तथा ब्रह्मा, क्रमशः आदि के देश पड़ते हैं।

जो ईश्वर की पूजा-पाठ करते हैं, भक्ति करते हैं वो इस मार्ग से जाते हैं और उनका पुनर्जन्म नहीं होता तथा वो अपने अभीष्ट के अविनाशी धाम चले जाते हैं । पितृयान मार्ग से भी चन्द्रलोक जाना पड़ता है, लेकिन वो मार्ग थोड़ा अलग होता है । उस पथ पर धूम, रात्रि, कृष्ण-पक्ष, दक्षिणायन आदि के अधिकृत देश पड़ते हैं।

अर्थात ये सब देवता उस जीव को अपने देश के अधिकृत स्थान के मध्य से ले जाते हैं। चन्द्रलोक कभी अधिक गर्म तो कभी अतरिक्त शीतल हो जाता है । वहां अपने स्थूल शरीर के साथ कोई नहीं रह सकता, लेकिन अपने सूक्ष्म शरीर (जो मृत्यु के बाद मिलता है) कि साथ चन्द्रलोक में रह सकता है।

जो ईश्वर पूजा नहीं करते, परोपकार नही करते, हर समय केवल इन्द्रिय सुख-भोग में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वे लोग मृत्यु के बाद न तो देवयान पथ से और न ही पितृयान पथ से जाते है बल्कि वे पशु योनि (जैसी उनकी आसक्ति या वासना हो) में बार बार यही जन्म लेकर यही मरते रहते हैं ।

जो लोग अत्यधिक पाप करते है, निरीह और असहायों को सताने में जिनको आनंद आता है, ऐसे नराधमों की गति (मृत्य के बाद) निम्न लोकों में यानी कि नरक में होती है । यहां ये जिस स्तर का कष्ट दूसरों को दिए होते हैं उसका दस गुणा कष्ट पाते हैं। विभिन्न प्रकार के नरकों का वर्णन गरुड़पुराण ग्रंथ में दिया गया है ।

योग की महिमा के प्रसंग में भगवान शंकर कहते हैं-

जो मनुष्य सद्गुरु के बताए हुए परा विद्या के मूल मंत्र को जानता है उसने सभी विद्यालय पढ़ ली ,सब कुछ सुन लिया तथा सभी अनुष्ठान पूरे कर लिए ।अब उसे ना कुछ पढ़ना है ना सुनना है, मैं कोई अनुष्ठान करने की आवश्यकता है-
तेनाधीतं श्रुतं तेन मेन सर्वमनुष्ठितम्।
मूलमन्नं विजानाति यो विद्वान् गुरुदर्शितम्।। योगशिखोप०२/४*

सदगुरूजी साधना पद्धति का उपदेश देते हैं उसके अनुसार अभ्यास करने पर परब्रह्म परमात्मा के स्थूल ,सूक्ष्म और पर यानी कारण यह तीनों शरीर सहसा प्रकाशित हो जाते हैं-

गुरूपदेशमार्गेण सहसैव प्रकाशते।
स्थूलं सूम्क्षं परं चेति त्रिविधं ब्रह्मणो वपु:।।योगशिखोप०२/१४**

गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु है ,गुरु ही भगवान सदाशिव है, तीनों लोकों में गुरु से अधिक श्रेष्ठ दूसरा कोई भी नहीं है। शिष्यों को चाहिए कि दिव्य ज्ञान का उपदेश देने वाले परमेश्वर सद्गुरु की परमश्रेष्ठ भक्ति के साथ पूजा करें, तभी उसका ज्ञान सफल होता है।

जो प्रत्यक्ष वर्तमान सदगुरुदेव है वह हमारे उपास्य परमात्मा है, जो हमारे ऊपर से परमात्मा है वही प्रत्यक्ष व वर्तमान सदगुरुदेव है, इन दोनों में कोई भेद नहीं है अंत: महा भक्ति से सदगुरुदेव की पूजा करनी चाहिए। अपने सदगुरुदेव से जीव और ब्रह्म की एकता की बात कभी नहीं करनी चाहिए अपने इष्ट देव को अपने सदगुरु में ही देखना चाहिए।

इसी के साथ कहा गया है कि जो बुद्धिमान शिष्य सद्गुरु से प्राप्त होने वाले योगशिखा, योगशीर्ष, यानी सर्वश्रेष्ठ लोगों के सिरमोर इस महा गुप्त दुर्लभ योग को जानता है उसके लिए तीनो लोक में कुछ भी अज्ञात नहीं रह जाता।

उसे कोई पुण्य पाप लगता है ,ना वह अस्वस्थ होता है ना उसे कोई दुख होता है ना उसकी कहीं पराजय होती है और नहीं इस संसार चक्र में उसका पुनः आगमन होता है। चित्र के चंचल होने के कारण यदि वह शिष्य सिद्धि में चित्त को ना लगावे तो उसे तत्वों ने अवश्य हो जाता है फिर तो वह मुक्त ही है।

इसमें कोई संदेह नहीं है सर्वज्ञ सर्वव्यापी ,शांत सबके ह्रदय में विराजमान सद्गुरु से दीक्षा लेकर उनकी बताई विधि से निरंतर उपासना करते रहने से ही प्राप्त किया जा सकता है किंतु जिस का चित्र गुरूमत से विमुख हो जाता है उसे परमात्मा का ज्ञान कभी नहीं हो सकता-

सुषुम्णारूपी आधार से ही विश्व उत्पन्न होता है तथा उसी में लीन हो जाता है। उस आधार स्वरूप सुषुम्ना तक जीव को केवल सद्गुरु ही पहुंचा सकते हैं, इसलिए सब तरह का प्रयत्न करके सद्गुरु के चरणों का ही आश्रय ग्रहण करना चाहिए-

सुषुम्ना रूपी आधार के तेजोमय छोर पर बिजली की राशि के समान कुंडलिनी (गुरुदेव की भक्ति से जागी हुई सूरत) को जानकर मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है किंतु यदि सतगुरु देव सेवक पर स्वयं संतुष्ट हो जाए तो मुक्ति के प्राप्त हो जाने में कोई संदेह नहीं होता।

जैसे लकड़ी में गुप्त रूप से वर्तमान अग्नि बिना मंथन के प्रगट नहीं होती उसी तरह योगाभ्यास के बिना ज्ञानदीप प्रकाशित नहीं होता ।जैसे घड़ी के भीतर रखा दीपक बाहर प्रकाश नहीं करता किंतु घड़ा फूट जाने पर वही दीपक चारों ओर प्रकाशित होने लगता है उसी प्रकार हमारा यह शरीर ही घड़ा है और जीव उसके भीतर की ज्योती है।

सद्गुरु से प्राप्त परानाम मैं जब मन डूब जाता है तभी ब्राह्मज्ञान प्रकाशित हो उठता है। अंत: गुरु रूपी कर्णधार और उनसे प्राप्त उपदेश रूपी सुदृढ़ नैाका प्राप्त करके अभ्यास में मान लीन हो जाने की शक्ति पाकर जीव भवसागर को पार कर जाते हैं।

*प्रस्तुति -कुमार राकेश

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