प्रशांत पोल।
रॉबर्ट बेरोन वोन हेन गेल्डर्न (1885-1986), इस लंबे चौड़े नाम वाले एक जाने-माने ऑस्ट्रियन एंथ्रोपोलॉजिस्ट हुए हैं. इनकी शिक्षा-दीक्षा विएना विश्वविद्यालय में हुई. आगे चलकर 1910 में ये भारत और बर्मा देशों के दौरे पर आए. भारतीयों के उन्नत वैज्ञानिक ज्ञान के प्रति इनके मन में अत्यंत कौतूहल निर्माण हुआ और उन्होंने यहाँ पर अपना शोध आरम्भ किया. इस वैज्ञानिक ने दक्षिण-पूर्वी देशों में अच्छा-ख़ासा शोध कार्य किया. अपने शोध के अंत में रॉबर्ट ने मजबूती से इस बात को रेखांकित किया कि कोलंबस से कई वर्षों पूर्व बड़े-बड़े भारतीय जहाज मैक्सिको और पेरू देशों के दौरे किया करते थे. अब इससे अधिक और कौन सा सबूत चाहिए कि भारतीय नौकाओं / जहाज़ों का प्रवास पूरी दुनिया में सबसे पहले किया जाता रहा है. लेकिन फिर भी हमारे कथित बुद्धिजीवी कहते हैं कि अमेरिका की खोज कोलंबस ने और भारत की खोज(??) वास्को द गामा ने की..!
वास्तविकता ये है कि मूलतः वास्को द गामा स्वयं ही भारतीय जहाज़ों की सहायता से भारत तक पहुँचा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह श्री सुरेश सोनी ने डॉक्टर वाकणकर का सन्दर्भ देते हुए बहुत ही सटीक वर्णन किया है. डॉक्टर हरिभाऊ (विष्णु श्रीधर) वाकणकर, उज्जैन के एक प्रसिद्ध पुरातत्व विद्वान थे. भारत की सबसे प्राचीन नागरिक बस्ती के सबूत के रूप में जिन ‘भीमबेटका’ गुफाओं का उल्लेख किया जाता है, उन गुफाओं की खोज वाकणकर जी ने ही की हैं. अपने शोध के सन्दर्भ में डॉक्टर वाकणकर इंग्लैण्ड गए हुए थे. वहाँ पर एक संग्रहालय में उन्हें वास्को द गामा की हस्तलिखित डायरी दिखाई दी. उन्होंने वह डायरी देखी और उसका अनुवाद पढ़ा. उसमें वास्को द गामा ने स्वयं वर्णन किया है कि वह भारत में कैसे-कैसे पहुँचा.
उस डायरी के अनुसार जब वास्को द गामा का जहाज अफ्रीका के जंजीबार में पहुँचा, तब उसने वहाँ अपने जहाज से तीन गुना बड़े जहाज़ों को देखा, जो भारतीय थे. एक अफ्रीकी दुभाषिये की मदद से वास्को द गामा इन भारतीय जहाज़ों के मालिक से भेंट करने गया. ‘चन्दन’ नामक वह भारतीय व्यापारी अत्यंत सादे कपड़ों में खटिया पर बैठा हुआ था. जब वास्को द गामा ने उससे आग्रह किया कि उसे भी भारत आने की इच्छा है. तब उस व्यापारी ने सहजता से उत्तर दिया कि, ‘मैं कल ही वापस भारत जाने वाला हूँ, तुम अपना जहाज मेरे पीछे-पीछे लेकर चले आओ…’. इस तरह वास्को द गामा भारत के समुद्र किनारे पर पहुँचा.
परन्तु दुर्भाग्य से आज भी स्कूलों में यही पढ़ाया जाता है कि वास्को द गामा ने भारत की खोज की…!!
मार्को पोलो (1254-1324) को एक अत्यंत साहसी समुद्री यात्री माना जाता है. इटली के इस व्यापारी ने भारत होते हुए चीन तक की समुद्री यात्राएँ की थीं. यह तेरहवीं शताब्दी में भारत आया था. मार्को पोलो ने अपनी उस यात्रा के अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक लिखी है – मार्व्हल्स ऑफ द वर्ल्ड. इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है. इस पुस्तक में मार्को पोलो ने भारतीय जहाज़ों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है. वह लिखता है कि, भारत में विशालतम जहाज़ों का निर्माण किया जाता है. लकडियों की दो परतों को जोड़कर उसमें लोहे की कीलों से उसे मजबूत किया जाता है. और बाद में कीलों के उन सभी छोटे-बड़े छेदों को बन्द करने के लिए एक विशेष पद्धति का गोंद उसमें भरा जाता है, जिससे पानी को पूर्णरूप से रोक दिया जाता है.
मार्को पोलो ने भारत में लगभग तीन सौ नाविकों के जहाज़ों का अध्ययन किया. उसने लिखा है कि, ‘एक-एक जहाज में तीन से चार हजार बोरी का सामान रखा जा सकता है और इसमें नाविकों / यात्रियों के रहने के लिए कमरे भी होते हैं. लकड़ी का सबसे निचला हिस्सा खराब होने लगता हैं, तो तत्काल उस पर लकड़ी की दूसरी परत चढ़ाई जाती हैं.’ भारतीय जहाज़ों की गति इतनी बढ़िया थी कि ईरान से कोचीन तक की यात्रा केवल आठ दिनों में पूरी हो जाती थी.
आगे चलकर निकोली कांटी नामक एक और समुद्री यात्री पंद्रहवीं शताब्दी में भारत आया. इसने तो भारतीय जहाज़ों की भव्यता और विशालता के बारे में बहुत कुछ लिखा है. डॉक्टर राधा कुमुद मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘इन्डियन शिपिंग’ में तत्कालीन भारतीय जहाज़ों का सप्रमाण एवं विस्तारपूर्वक वर्णन किया हुआ है.
जे. एल. रेड (J. L. Reid) यह ‘Institute of Naval Architect and Shipbuilders in England’ के सदस्य थे. इन्होने मुंबई (तत्कालीन Bombay) के गझेटियर में लिख के रखा हैं की डेढ़ – दो हजार वर्ष पूर्व, विश्व में भारतीय नाविक, दिशादर्शक यंत्र (मरीन कंपास) का प्रयोग करते थे. इन भारतीय नाविकों ने ही विश्व में सर्वप्रथम इस दिशादर्शक यंत्र का उपयोग प्रारंभ किया. एक छोटे से, चपटे डिब्बे में तेल रहता था. इसमे मछली के आकार का चुंबक होता था. इसे भारतीय नाविक ‘मच्छ यंत्र’ कहते थे. (J. L. Reid – Bombay Gazetteer Vol. XIII Part II, Appedix A).
किसी भी नाविक के लिए अत्यंत आवश्यक यंत्र होता हैं – सेक्सटैंट (Sextant). यह सबसे सरल और सुगठित यंत्र है जो किन्हीं दो बिंदुओं द्वारा बना कोण पर्याप्त यथार्थता से नापने में काम आता है. इस यंत्र की खोज वर्ष १७३० में जान हैडले (John Hadley) और टॉमस गोडफ्रे (Thomas Godfrey) नामक वैज्ञानिकों ने अलग-अलग, स्वतंत्र रूप से की थी. किन्तु, भारतीय नाविकों के पास इस प्रकार का यंत्र अत्यंत प्राचीन काल से पाया जाता रहा हैं. इसे ‘वृत्तशंख भाग’ कहा जाता था. अनेक प्राचीन ग्रन्थों में इसका वर्णन आता हैं. ईसा पूर्व 300- 400 वर्ष लिखी गई ‘जातक कथाओं’ में भी इस यंत्र का उल्लेख हैं.
भारत में उत्तर दिशा से इस्लामिक आक्रमण आरम्भ होने के कालखंड में, अर्थात ग्यारहवीं शताब्दी में मालवा के राजा भोज ने ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ लिखे, अथवा विद्वानों से लिखवाए. इन्हीं ग्रंथों में से एक प्रमुख ग्रन्थ है ‘युक्ति कल्पतरु’. यह ग्रन्थ जहाज निर्माण के सन्दर्भ में है. छोटी यात्राओं एवं लंबी यात्राओं के लिए छोटे और बड़े, अलग-अलग क्षमताओं वाले जहाज़ों का निर्माण कैसे किया जाता है, इसका वर्णन इस ग्रन्थ में है. जहाज निर्माण के विषय पर इस ग्रन्थ को प्रामाणिक माना जाता है. अलग-अलग प्रकार के जहाज़ों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की लकडियों का चयन कैसे किया जाए, इस से शुरुआत करते हुए विशिष्ट क्षमताओं वाले जहाज एवं उनका पूरा ढाँचा कैसे निर्मित किया जाए, इसका पूरा गणित इस ग्रन्थ से प्राप्त होता है. इस में, जहाज बांधते समय उस में लोहे की कीलों का उपयोग नहीं करने के बारे में लिखा हैं. समुद्र के लोहाचुंबकीय पत्थर, इन कीलों के कारण जहाज को अपनी ओर खिचते हैं, ऐसा उसका कारण भी दिया हैं.
‘युक्तिकल्पतरु’ के अनुसार, जहाज तीन प्रकार के होते थे –
1. सर्वमंदिर जहाज – भव्य एवं बड़े कक्ष (केबिन), एक छोर से दूसरे छोर तक. प्रमुखता से राजघराने का खजाना ले कर जाने के लिए.
2. मध्य मंदिर जहाज – इन में वर्षा ऋतु की आवश्यकता के अनुसार कक्ष (केबिन) होते थे.
3. अग्रमंदिर जहाज – कक्ष (केबिन) सामने होता था. मुख्यतः यह साफ मौसम में उपयोग में लाया जाता था.
इस ग्रन्थ के लिखे जाने से भी हजार-डेढ़ हजार वर्ष पहले ही भारतीय जहाज समूचे विश्व में भ्रमण कर रहे थे. अर्थात यह ‘युक्ति कल्पतरु’ ग्रन्थ कुछ नया शोध नहीं करता, परन्तु जो ज्ञान पहले से भारतीयों के पास था, उसे लिपिबद्ध करता है. क्योंकि भारतीयों को नौकाशास्त्र का ज्ञान पुरातन काल से ही था.
परन्तु ग्यारहवीं शताब्दी में जो नौकायन शास्त्र चरम पर था, वह धीरे-धीरे मद्धिम पड़ता चला गया. मुगलों ने उन्हें मुफ्त में मिले जहाज़ों को ठीक से तो रखा, परन्तु उनमें कोई वृद्धि नहीं की. दो सौ वर्षों का विजयनगर साम्राज्य अपवाद रहा. उन्होंने जहाज निर्माण के कारखाने भारत के पूर्वी एवं पश्चिमी, दोनों समुद्र किनारों पर आरम्भ किये और अस्सी से अधिक बंदरगाहों को ऊर्जित अवस्था में बनाए रखा. आगे चलकर छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपनी नौसेना स्थापित की और सरदार आंग्रे ने उसे मजबूत किया.
अंग्रेजों के भारत आगमन से पहले तक भारत में जहाज निर्माण की प्राचीन विद्या जीवित थी. सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोपियन देशों की अधिकतम क्षमता 600 टन जहाज के निर्माण की थी. जबकि उसी कालखंड में भारत में ‘गोधा’ (संभवतः इसका नाम ‘गोदा’ होगा, जो कि स्पेनिश अपभ्रंश के कारण गोधा कहलाया होगा) नामक जहाज का निर्माण किया गया, जो 1500 टन से भी अधिक बड़ा था. उन दिनों भारत में मछलीपट्टन, सूरत, कालीकट, हुगली, क्विलॉन आदि स्थानों पर जहाज बनाने के कारखाने थे. ये जहाज, विश्व के विभिन्न हिस्सों में संचार करते थे. अरब महासागर और बंगाल की खाड़ी में में तो इनका चलना नियमित था.
भारत में अपनी दुकानें खोलकर बैठी कंपनियों – अर्थात डच, पुर्तगाली, अंग्रेजी, फ्रेंच इत्यादि ने भारतीय जहाज़ों का उपयोग करना शुरू कर दिया और भारतीयों को ही खलासी के रूप में नौकरी पर रखा. सन 1899 विलियम बोल्ट्स द्वारा लिखी गई पुस्तक, Considerations on India Affairs में पृष्ठ 316 पर, ब्रिटिश अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल ए. वॉकर को उद्धृत करते हुए लिखा गया है कि, ‘ब्रिटिश जहाज़ों को प्रत्येक दस-बारह वर्षों में बड़ी मरम्मत करनी पड़ती है, जबकि सागौन की लकड़ी से बने हुए भारतीय जहाज पिछले पचास वर्षों से बिना किसी रिपेयरिंग के उत्तम कार्य कर रहे हैं…’.
भारतीय जहाज़ों की इस गुणवत्ता को देखते हुए ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ ने ‘दरिया दौलत’ नामक एक भारतीय जहाज खरीदा था, जो कि 87 वर्ष तक लगातार बिना किसी मरम्मत के उत्तम काम करता रहा.
मराठों को हराकर भारत की सत्ता हासिल करने से कुछ वर्ष पहले अर्थात 1811 में एक फ्रांसीसी यात्री बाल्त्जर साल्विंस (F. Baltazar Solvyns) ने ‘ले हिन्दू’ (Les Hindous) नामक एक पुस्तक लिखी थी. उस पुस्तक में वह लिखते हैं, ‘..प्राचीन काल में नौकायन क्षेत्र में हिन्दू सबसे अग्रणी थे, और आज भी (१८११ में भी) इस क्षेत्र में वे यूरोपियन देशों को बहुत कुछ सिखा सकते हैं…’ उनके शब्द हैं – ‘In ancient times the Indians excelled in the art of constructing vessels, and the present Hindus can in this respect still offer models to Europe – so much so that the English, attentive to everything, which relates to naval architecture, have borrowed from the Hindus many improvements which they have adopted with success to their own shipping. . . The Indian vessels unite elegance and utility, and are models of patience and fine workmanship.’
अंग्रेज़ उद्योगपतियों ने, भारतीय जहाजों के बढ़ते प्रभाव के कारण ब्रिटिश संसद में एक अर्जी पेश की. यह अर्जी, भारतीय जहाज बनाने के उद्योग पर पाबंदी डालने के संदर्भ में थी. मजेदार बात यह, की तब तक अंग्रेजों का भारत में एकाधिकार नहीं हुआ था. बंगाल और भारत के कुछ हिस्सों पर ही उनका शासन चलता था. किन्तु उनकी महत्वाकांक्षा जबरदस्त थी. इसलिए अंग्रेज़ उद्योगपतियों की मांग के अनुसार, ब्रिटिश संसद ने वर्ष 1813 में एक कानून बनाया, जिसमे जहाज निर्माण से संबंधित बिन्दु शामिल थे. यह कानून ‘चार्टर एक्ट 1813’ के नाम से जाना जाता हैं. इसके तहत 350 टन से कम वजन वाले जहाजों को भारतीय उपनिवेश क्षेत्र और इंग्लैंड के बीच आवागमन करने के लिए मनाई की गई थी. इसके कारण बंगाल के कारखानों में बने 40% से ज्यादा जहाज, इस लाभदायक मार्ग से हटाने पड़े.
अगले ही वर्ष, अर्थात 1814 में ब्रिटिश संसद ने एक और कानून पारित किया, जिसके तहत भारत में बने जहाजों को ‘ब्रिटन में पंजीकृत जहाज’ कहलाने का हक छिना गया. अर्थात भारत में बने जहाज, इंग्लैंड में पंजीकृत नहीं हो सकते थे.
प्रारंभ से ही अंग्रेजों ने भारतीय जहाजों की संख्या कम करने के सारे प्रयास किए थे. 1757में प्लासी का युध्द जीतने के तुरंत बाद, अंग्रेजों ने बंगाल के सारे समुद्री मार्गों पर ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के सभी जहाजों को मुक्त व्यापार का अधिकार दिया. साथ ही, सभी भारतीय जहाजों पर कर लगाए. केवल विदेशों से आने वाले जहाज ही नहीं, अपितु भारत के एक बंदरगाह से दूसरे बंदरगाह पर व्यापारी माल लेकर जाने वाले जहाजों को भी यह कर देना होता था. इससे भारतीय व्यापारियों की वस्तुएं महंगी होने लगी.
इन अवरोधों के बाद भी भारत में जहाज का निर्माण जारी रहा. भारत का व्यापार, इंग्लैंड के साथ ज्यादा नहीं था. किन्तु अन्य देशों के साथ था. साथ ही, अन्य देश भारत से जहाज खरीदते थे. वर्ष 1842 में हाँगकाँग, ब्रिटन को जिस समझौते के अनुसार मिला, वह समझौता भारत में बने जहाज, ‘एच एम एस (हिज मेजेस्टीज सर्विस) कॉर्नवालिस’ इस विशाल जहाज पर लिखा गया था. भारत में बने हुए अनेक जहाज अंग्रेजों के लिए गर्व का विषय रहते थे. इन में प्रमुख था, ‘एच एम एस त्रिंकोमाली’. 19अक्तूबर 1817 के दिन जलावतरण हुए, 1065 टन के इस जहाज पर 46 तोपें थी.
हुगली (कोलकाता) में निर्माण किए गए जहाजों का टिप्पण (नोटिंग) उपलब्ध हैं. इस Register of Ships built on the Hugli from 1781 – 1839 (including Calcutta, Howrah, Sulkea, Cosipore, Tittaghar, Kidderpore) में उल्लेख हैं की इस (1781 से 1839) कालखंड में 376 जहाजों का निर्माण हुआ. इसमे 1781 से 1800, इन उन्नीस वर्षों में 35 जहाज हुगली (कोलकाता) में निर्मित हुए, जिनका कुल टनेज 17,020 था. अर्थात अगर औसत निकाली जाये तो प्रत्येक जहाज 486 टन का था. 1809, इस एक वर्ष में हुगली में ही 19 जहाजों की निर्मिति हुई, जो औसत 530 टन के थे.
अंग्रेजों के भारत में आने के समय, अर्थात सत्रहवी शताब्दी के प्रारंभ में, बंगाल में 400 टन से 500 टन के, 4000से 5000 जहाज थे. ये सभी बंगाल में ही बनाएं गए थे. ये जहाज, बाकी देशों को भी बेचे जाते थे. पूरे विश्व में इनका संचार होता था. ‘जहाजों का निर्माण करने वाला देश’ ऐसी भारत की पहचान थी. और यह उन्नीसवी शताब्दी के मध्य तक चलता रहा.
अंग्रेजों द्वारा दिए गए आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 1733से 1863 के बीच अकेले मुम्बई के एक कारखाने में लगभग 300 से अधिक जहाज़ों का निर्माण हुआ, जिनमें से अधिकतम जहाज ब्रिटेन की महारानी की शाही नौसेना में शामिल किए गए. इनमें से ‘एशिया’ नामक जहाज 2289 टन का था और यह जहाज 84 तोपों से सज्जित था. बंगाल में चटगाँव, हुगली (कोलकाता), सिलहट और ढाका में भी जहाज बनाने के कारखाने थे. अर्थात विचार करें कि जब भारतीय जहाज निर्माण के पतनकाल में भी यह परिस्थिति थी, तो ग्यारहवीं शताब्दी से पहले भारत का जहाज निर्माण उद्योग कितना समृद्ध होगा, इसका सामान्य अंदाज तो लग ही जाता है.
अलबत्ता ऐसे उत्तम गुणवत्ता वाले जहाज़ों को देखकर इंग्लैण्ड में, अंग्रेज, ईस्ट इण्डिया कंपनी पर दबाव बनाने लगे कि भारतीय जहाज न खरीदे जाएँ, वर्ना वहाँ के जहाज उद्योग बर्बाद हो जाएँगे. सन 1881 में कर्नल वॉकर ने बाकायदा आँकड़े देकर सिद्ध किया कि, ‘भारतीय जहाज़ों को अधिक देखरेख की आवश्यकता नहीं पड़ती और उनका मेंटेनेंस भी कम खर्च में हो जाता है..’ (यह सभी पत्र ब्रिटिश संग्रहालय के ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अभिलेखागार में उपलब्ध हैं).
परन्तु इंग्लैण्ड के जहाज निर्माता व्यापारियों को इस बात का बहुत बुरा लगा. इंग्लैंड के डॉक्टर टेलर लिखते हैं कि, भारतीय माल से लदा हुआ भारतीय जहाज जब इंग्लैण्ड के समुद्र किनारे पर पहुँचा तब अंग्रेज व्यापारियों में ऐसी अफरातफरी मची, मानो शत्रु ने आक्रमण कर दिया हो. लन्दन के बंदरगाह पर स्थित जहाज निर्माण करने वाले कारीगरों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी के डायरेक्टर बोर्ड को पत्र लिखा कि, ‘…यदि आप भारतीय जहाज़ों का ही उपयोग करने लगेंगे, तो हम पर भुखमरी और बेरोजगारी का खतरा मंडराने लगेगा… हमारी दशा बहुत विकट हो जाएगी…’ ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने उन कारीगरों तथा इंग्लैण्ड के व्यापारियों की बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया, क्योंकि भारतीय जहाज़ों का उपयोग करने में उनका व्यापारिक फायदा था.
स्थिति और कठिन हुई, वर्ष 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य युध्द के बाद, जब भारत का पूरा शासन सीधे इंग्लैण्ड की रानी के हाथ में आ गया. तब रानी ने एक विशेष अध्यादेश निकालकर भारतीय जहाज़ों के निर्माण पर प्रतिबन्ध लगा दिया. वर्ष 1863 से यह प्रतिबन्ध लागू हुआ और एक अत्यंत वैभवशाली, समृद्ध एवं तकनीकी रूप से अत्यधिक उन्नत भारतीय नौकायन शास्त्र की मृत्यु हो गई.
इस सन्दर्भ में सर विलियम डिग्बी ने लिखा है कि, ‘पश्चिमी देशों की एक सामर्थ्यवान महारानी ने, सागर की महारानी का खून कर दिया…!’ (The Mistress of the Seas of the Western World has killed the Mistress of the Seas of the East)
और इस प्रकार दुनिया को ‘नेविगेशन’ जैसा शब्द देने से लेकर आधुनिक नौकायन शास्त्र सिखाने वाले भारतीय नाविक शास्त्र का एवं उन्नत-समृद्ध जहाज निर्माण उद्योग का असमय अंत हो गया…!
– प्रशांत पोळ
#स्वराज्य75 ; #स्वतंत्रता75 ; #Swarajya75
संदर्भ –
1. Trade and Subsistence at the Roman Port of Berenike, Red Sea Coast, Egypt – Rene Cappers
2. An Era of Darkness (Inglorious Empire) – Shashi Tharoor
3. Indian Shipping – Radha Kumud Mookerji (वर्ष 1912 में प्रकाशित पुस्तक)
4. India Conquered : Britain’s Raj and the Chaos of Empire – John Wilson
5. India’s Ancient and Great Maritime History – Stephen Knapp (Blog published on 3rd November, 2015)
6. भारतीय नौकानयनाचा इतिहास – डॉ. द. ग. केतकर
7. Foreign Trade and Commerce in Ancient India – Prakash Charan Prasad
8. The Art of Southeast Asia – Phillip Rawson (1933)
9. Advancements of Ancient India’s Vedic Culture – Stephen Knapp
10. The Ocean of Churn : How the Indian Ocean Shaped Human History – Sanjeev Sanyal
11. Considerations on India Affairs – Willam Bolts
12. British Rule in India – Pandit Sunderlal
13. The British in India – David Gilmour
14. The British Raj: The History and Legacy of Great Britain’s Imperialism in India and the Indian Subcontinent – Charles River Editors
15. Raj: The Making and Unmaking of British India – Lawrence James
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