किसान,साहित्य और सामाजिक आन्दोलन …

डॉ दर्शनी प्रिय
डॉ दर्शनी प्रिय

*डॉ दर्शनी प्रिय  

साहित्य सृजन की यात्रा में किसान सतत जीवंत भूमिका में रहा है। समकालीन साहित्य का पूर्वाध और उत्तरार्ध कृषकों की सशक्त उपस्थिति का साक्षी रहा है। सृजन  के प्रत्येक काल ने कृषक समाज की तात्कालिक मनोदशा को पूर्ण चित्तवृत्ति के साथ उकेरा है। आजादी के बाद के दशकों में जब सृजनशील साहित्य नए अंदाज़ और नये तेवर में पाठकों के भीतर अपनी पैठ बनाने लगा तो साधरण वर्ग  के साथसाथ किसान की व्यथाकथा भी रचनाशीलता के केंद्र में आने लगी। यद्यपि स्वाधीनता पूर्व भारतेंदु सरीखे सजग लेखक और नाटककार ने किसान को चिंतन परम्परा का हिस्सा बनाया अपितु यह प्रभावशाली रूप में उनकी व्यथाकथा को उकेरने में निश्चय ही उतना सफल नहीं रहा।

आगे चलकर  प्रेमचंद जैसे जमीनी कथाकार ने अन्नदाताओं की पीड़ा को अपने केंद्रीय पात्रों में स्थान देकर तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य की नींद खोलने की कोशिश की और उनके अवचेतन को झकझोरा

उनके उपन्यासों में  सुधारवादी प्रवृत्ति ही प्रधान रही। उनके सभी उपन्यास रचना की दृष्टि से बहुआयामी है।प्रेमाश्रममें उन्होंने किसान समस्याओं को बखूबी उभारा है। तथागोदानतो ग्रामीण जीवन का महाकाव्य ही कहलाता है।प्रेमचंद्रयुगीन उपन्यासकारों में जयशंकर प्रसाद, विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक तथा चतुरसेन शास्त्री के नाम उल्लेखनीय हैं। उनकी रचनाओं में भी किसान और समाज के अन्तिम पंक्ति का व्यक्ति ही दिखता है।

 फणीश्वर नाथ रेणु के मैला आंचल  और  ‘परती परीकथाजैसे आंचलिक उपन्यासों में भी कुछ यही पुकार दिखता है। उनकी रचनाओं  में किसानों की मार्मिक दशा को लेकर मौज़ूदा सत्ता  के प्रति विद्रोह का भाव स्पष्ट होता है। रंगेय राघव काकब तक पुकारूंराही मासूम रजा काआधा गांवहिमांशु श्रीवास्तव कारथ के पहिएभी कुछ इसी तरह के तेवर के  है। कथा से इतर कविताओं की चर्चा करें तो  द्विवेदी युगीन कविताओं में  किसान अपनी महत्वपूर्ण भूमिका में दिख पड़ता है। गुप्त जी की रचना तो खासतौर सेकिसानशीर्षक से है जो अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती है।

इधर प्रगतिवाद का तो समूचा डिस्कोर्स ही किसान और सर्वाहारों पर आधारित है। प्रगतिवादी कवियों ने समाज की पीड़ा, दुर्बलताबेबसी, उत्पीड़न, असमानता, पक्षपात और दमन का अंकन चित्रण अपनी रचनाओं में किया है। उस काल के रचनाकारों ने भक्ति और श्रृंगार परक साहित्य के साथसाथ अपने समाज के अधिकतर बड़े और प्रमुख सवालों पर अपनी लेखनी चलानी शुरू कर दी थी। आगे बढ़ती हुई यह प्रवृत्ति मुंशी प्रेमचंद्र, सुदर्शन, विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक आदि की कहानियों उपन्यासों नाटकों आदि में दिखाई देती है।

 प्रेमचंद की परंपरा के बाद नागार्जुन, भैरव प्रसाद गुप्त, फणीश्वर नाथ रेणु आदि की रचनाओं में किसानोंमजदूरों के जीवन की वेदना को अंकित और चित्रित किया गया। उनकी रचनाओं में शोषित और निर्धन वर्ग के प्रति सहानुभूति की भावना के दर्शन होते हैं।उन्होंने किसानों और मजदूरों का अपनी रचना में सजीव और हृदय ग्राही चित्रण किया है। निरालाजी कीवह तोड़ती पत्थरकविता में विवशता  और कार्यशीलता के मार्मिक वर्णन के साथ पूंजीपतियों की विलासिता और क्रूरता का चित्रण किया गया है

कवि सुधींद्र ने किसानों की दयनीयता का  चित्रण इस प्रकार किया है

एक ओर  समृद्धि थिरकती,पास फटकती  है कंगाली 

  एक देह पर एक चिथड़ा, एक स्वर्ण के गहने वाली

 प्रगतिवाद श्रम का उपासक रहा है वह संसार में प्रत्येक वस्तु को श्रम के द्वारा ही प्राप्त करना चाहता है इसलिए उसने मजदूर और किसानों की प्रशंसा की है। किसान का जीवन परिश्रम की कहानी है। उन्होंने ग्राम जीवन की दीनहीन  स्थिति का चित्रण करते हुए कहा है

 

यह भारत का ग्राम, सत्यता, सत्यता,सन्स्क्ती  से निर्वासित।     

 झाड़फूंक उसके यही क्या जीवन की शिल्पी के घर।।

 

 कुछ और आगे चलें तो  समकालीन कविता ने भी किसानों की व्यथा पीड़ा को खूब उभारा।  70 के बाद की साहित्य की धारा के कवि विशिष्ट भाव के कवि थे। उनमें जीवन धारा ओजस्विता ही प्रधान रही। उन्होंने व्यक्तिगत पक्ष को या किसी स्थिति की विषमता को व्यक्त किया है।

 

 केदारनाथ सिंह की कविता  ‘बैलअसहाय और लाचार किसान का प्रतीक है। वह दूसरों की ओर से चलाया जाता है। 

वह ऐसा जानवर है जो दिनभर 

भूसे के बारे में सोचता है

 रात भर ईश्वर के बारे में।

 

 इसी प्रकार श्रीकांत वर्मा की कवितामगधहै जिसमें कहा गया है

केवल अशोक लौट रहा है

  और सब कलिंग का पता पूछ रहे हैं 

  केवल अशोक सिर झुकाए है और 

  सब विजेता की तरह चल रहे हैं

 

समकालीन कविता में किसान जीवन की विवशता को बड़ी मार्मिकता और वास्तविकता के साथ अंकित किया गया है

इसे इन पँक्तियों के माध्यम से समझा जा सकता है।

 

सोने का वह पंछी भूल गया मुस्काना 

  दूध दही के देश को मयस्सर नहीं एक दाना

  वर्षो की गुलामी ने हमें ऐसा रगड़ा मसला

   हमारा धर्म हो गया कम खाना, गम खाना

 

मौज़ूदा समय के कथाकारों में कृषक आधारित चरित्रों की उपस्थिति नगण्य है।नागार्जुन के बाद के समकालीन साहित्य में किसान समस्या और उसकी प्रासंगिकता को लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिखता।किसान को केंद्र में रख कर हाल में ऐसी किसी चारित्र प्रधान रचना का संज्ञान नहीं मिलता।नवोदित लेखकों ने संभवतः आंचलिकता और उसमें गुंथे चरित्रों को लगभग हांसिये पर रखा है।कुछेक महिला कथाकारों ने एकाध आंचलिक चरित्रों को केंद्र में रखकर इस दिशा में प्रयास ज़रूर किया है।पर सचेत प्रयास शेष है। अब किसानी,खेती,कृषक समस्याएं तो साहित्य के पार्श्व गमन का  प्रतीती कराती होती है। हाल में आया एक उपन्यास – ‘फांसएक ऐसा ही उपन्यास है जिसे वरिष्ठ लेखक संजीव ने विदर्भ के किसानों को केंद्र में रख कर लिखा है। अपितु उत्तर भारत के किसानों को लेकर किसी रचना का आना अखरता है।

प्रेमचंद  और  रेणु की कलम की धार को तेज़ करना है तो नई पीढ़ी के लेखकों को नये तेवर के साथ किसान समस्या की तस्वीर पेश करनी होगी। किसानों की आपबीती तभी कलमबद्ध हो पायेगी जब लेखकों की यह जमात पूरी ग्राह्यता के साथ कृषक रंग में खुद को रचा बसा पाये।

 

विडम्बना है कि जिस हिंदी भाषा का आधार बड़े पैमाने पर किसानीग्रामीण संस्कृति है, उसके रचनाकारों का लेखन  सुविधाजीविता में सिमटता जा रहा है।वह मध्यवर्ग में अपने नये पाठक की तलाश में मुब्तिला है। साहित्य की भरी पूरी संपदा को बचाना है तो लेखकों की जमात को किसानों को केंद्र में रखना ही होगा तभी साहित्य की भूमि समृद्ध होगी।

 

डॉ दर्शनी प्रिय

Comments are closed.