ड्रॉइंग रूम से मोबाइल स्क्रीन तक: मिरर नाउ की विदाई और भारत के मीडिया परिदृश्य का बदलाव

पूनम शर्मा

भारतीय मीडिया जगत में एक ऐसा झटका लगा जिसकी गूंज लंबे समय तक सुनाई देगी। टाइम्स ग्रुप के अंतर्गत आने वाला प्रतिष्ठित चैनल मिरर नाउ अचानक बंद कर दिया गया। 30 अप्रैल की शाम को प्रसारित हुआ उसका अंतिम एपिसोड, उसके दर्शकों और कर्मचारियों दोनों के लिए एक अप्रत्याशित विदाई बन गया। लेकिन यह सिर्फ एक चैनल के बंद होने की कहानी नहीं है — यह भारत में पारंपरिक मीडिया के गिरते किले और डिजिटल क्रांति के उठते तूफ़ान की तस्वीर है।

मिरर नाउ की विदाई उस बड़ी कहानी का हिस्सा है, जिसमें पारंपरिक टीवी मीडिया आर्थिक, तकनीकी और सामाजिक दबावों से चरमरा रहा है। जहां कभी विज्ञापनदाता टेलीविज़न पर करोड़ों खर्च करते थे, वहीं अब वही ब्रांड इंस्टाग्राम, फेसबुक, और सबसे ज़्यादा यूट्यूब पर खर्च करना ज्यादा फ़ायदेमंद समझते हैं।

टेलीविज़न चैनलों के लिए यह केवल राजस्व संकट नहीं है, बल्कि एक दर्शक व्यवहार का परिवर्तन भी है। आज का दर्शक प्राइम टाइम के लिए इंतज़ार नहीं करता। वह समाचार, मनोरंजन और विश्लेषण को अपनी शर्तों पर देखना चाहता है — कहीं भी, कभी भी और किसी भी डिवाइस पर। टीवी अब ड्रॉइंग रूम तक सीमित रह गया है, जबकि यूट्यूब ने हमारे पॉकेट में स्थायी निवास बना लिया है।

आज की मुख्यधारा की मीडिया संस्थानों पर पक्षपात, सनसनीखेज़ी और पत्रकारिता के मूल्यों की अनदेखी जैसे आरोप लगते रहे हैं। एक समय था जब मिरर नाउ ने शहरी मुद्दों, उपभोक्ता अधिकारों और आम नागरिक की आवाज़ को मंच देने की कोशिश की थी। लेकिन TRP की दौड़, चीखते डिबेट्स और राजनीतिक प्रोपेगैंडा के बीच एक संतुलित आवाज़ टिक नहीं सकी।

वहीं दूसरी ओर, यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म्स पर स्वतंत्र पत्रकार, सोशल कमेंटेटर्स, और विशेषज्ञों ने वैकल्पिक मीडिया का निर्माण कर लिया। यहां उन्हें रचनात्मक आज़ादी, सीधी प्रतिक्रिया और कई बार टीवी से ज़्यादा आय भी मिलने लगी। यह डिजिटल लोकतंत्र का युग है — जहां हर कोई अपनी बात कह सकता है और सुनाने के लिए कोई दरबान नहीं चाहिए।

इस बदलाव में दर्शकों को भी नई जिम्मेदारियां मिलती हैं। अब सूचना का सैलाब इतना तेज़ है कि सही और गलत, तथ्य और भ्रम, पत्रकारिता और प्रोपेगैंडा के बीच फर्क करना मुश्किल हो गया है। यह सूचना की आज़ादी का युग है, लेकिन साथ ही भ्रम और ध्रुवीकरण का भी

टाइम्स ग्रुप जैसे बड़े संस्थानों के लिए यह एक निर्णायक मोड़ है। सिर्फ डिजिटल ट्रांजिशन करना काफी नहीं होगा, उन्हें दर्शकों का विश्वास फिर से जीतना होगा। उन्हें ऐसे कंटेंट देने होंगे जो सिर्फ सुर्खियां नहीं बनाए, बल्कि समाज के मुद्दों को उजागर करे, सवाल पूछे, और संवाद को प्रेरित करे।

जो लोग ‘The Nation Wants to Know’ और ‘News Hour Debate’ के दौर में बड़े हुए हैं, उनके लिए मिरर नाउ का बंद होना सिर्फ एक चैनल का अंत नहीं, बल्कि एक युग की समाप्ति है। लेकिन यही समय है सोचने का, सवाल करने का, और नया मीडिया गढ़ने का।

अब असली सवाल यह नहीं है कि टेलीविज़न बचेगा या नहीं, बल्कि यह है कि कैसा मीडिया आगे बढ़ेगा? क्या अगली पीढ़ी भी मीडिया में वही जुनून, वही ऊर्जा महसूस कर पाएगी जो हमने एक समय टाइम्स नाउ की गूंजती बहसों में की थी?

अब नियंत्रण टीवी रिमोट में नहीं, हमारी जेब में है — और इसी स्क्रीन पर लिखा जाएगा भारत के मीडिया का भविष्य।

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