गुस्ताखी माफ हरियाणा

पवन कुमार बंसल।

गुस्ताखी माफ हरियाणा।

*गुस्ताखी माफ हरियाणा के एक जागरूक पाठक ने भेजा: ‘पब्लिक रिलेशंस डिपार्टमेंट के गलियारे से’ 

पब्लिक रिलेशंस डिपार्टमेंट/ यानी लोक सम्पर्क विभाग सरकार का बड़ा अहम विभाग होता है।सरकार की अचिवमेंट्स को, उसकी उपलब्धियों को, उसकी नीतियों और कार्यक्रमों को जन-जन तक पहुंचाने का दायित्व इसी विभाग के कंधों पर होता है।

हरियाणा के लोक सम्पर्क विभाग को ही ले लीजिए। अपवाद को छोड़ दें तो यह विभाग अक्सर सीएम के पास ही रहा है। ये अलग बात है कि सीएम इस पर कितना ध्यान दे पाते हैं क्योंकि उनके पास और भी बहुत से जरूरी काम होते हैं। उन्हें दूसरे विभागों को देखने के साथ-साथ पूरे प्रदेश को देखना होता है। शायद यही इस विभाग की सबसे बड़ी ट्रेजडी रही है कि कहने को तो सीएम का विभाग है लेकिन इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं। इसी का फायदा कुछ गिने-चुने चुस्त किस्म के लोग उठाते रहे हैं। यहां किस-किस किस्म का खेल होता रहा है, यह जांच का विषय है।

किसी का जायज काम बेशक न हो लेकिन बिना रूल्स के पोस्ट क्रियेट करवाने और फिर उन पर प्रमोशन करवाने का नेक और महान काम यहीं हो सकता है। चालाक किस्म के अधिकारियों-कर्मचारियों के यारे-प्यारे, रिश्तेदारों को, चहेतों को नौकरियों की रेवड़ियां भी बंटना यहां कोई नई बात नहीं है। रिटायरमेंट के बाद री-इम्पलायमेंट के नाम पर अच्छे-खासे पदों से लेकर ड्राइवर तक के पदों पर लोगों को ऑब्लाइज किया जाना यहां आम बात है। ‘संवाद’ के नाम से एक नुस्खा इजाद किया गया है, जो हर मर्ज के इलाज के लिए बिल्कुल मुफीद है। जो काम कायदे से मुमकिन नहीं, उसे इसकी आड़ में अंजाम देने की कला इस विभाग के अफसरों को खूब आती है। कहने को तो यहां दो-दो एचसीएस अफसर लगाए हुए हैं लेकिन ‘बेचारे’ लाचार हैं। कहीं कोई पूछ तो होती नहीं, अब बेचारे करें तो क्या करें।

इसलिए एक तो अपनी सीट छोड़कर सेक्रेटेरियट में बैठने लगा है जबकि दूसरा सेक्टर 19 के दफ्तर में बैठता है। इससे स्थापना शाखा के अधिकारियों-कर्मचारियों की जरूर चांदी हो गई है। दिल करे तो कोई फाइल पुटअप कर देते हैं, नहीं करे तो खा-पीकर तान कर सो जाते हैं। फिर 3 बजे वाली चाय पीकर अपने बाल-बच्चों को जा संभालते हैं।

हां तो अब मुद्दे की बात करते हैं। तीन-चार साल पीछे झांककर देखें तो याद आएगा कि विभाग के मुखिया का ओहदा एक ऐसे शख्स के पास होता था जो दूसरे विभागों में रहते हुए अपनी कारगुजारियों के चलते खासे मशहूर रहे हैं। असम्भव नाम के शब्द के लिए उनकी डिक्शनरी में कोई जगह नहीं थी। इस शब्द से तो जैसे उन्हें चिढ़ थी और हर नामुमकिन काम को मुमकिन करना उन्हें खूब आता था। ऐसे कामों को सिरे चढ़ाने के लिए उनके पास गुर्गों का पूरा गैंग होता था।

लेकिन उनमें एक खूबी भी थी। यारोें के यार थे। दिलेरी की हद से बढ़कर दिलेर थे। ‘कारतूस’ इस्तेमाल करके फेंक देना उनके स्वभाव में नहीं था। एक बार जिसका इस्तेमाल कर लेते थे, उसको अपना बनाकर रखना कोई इनसे सीखे। जायज काम तो कोई भी कर सकता है लेकिन ‘आउट ऑफ टर्न’ जाकर बैनिफिट देने का काम सिर्फ उन जैसे दरियादिल अफसर ही कर सकते हैं, जो उन्होंने किया, दिल खोलकर किया और एक्सटेंशन पीरियड में भी किया। जी हां, चहेतों या फिर यूं कहें, चेलों को ऑब्लाइज करने के लिए उन्होंने अपने एक्सटेंशन पीरियड में तीन पोस्ट प्रोजैक्ट अफसर की क्रियेट करवाई, एक पोस्ट लायजन अफसर की क्रियेट करवाई तो एक पोस्ट ज्वाइंट डायरेक्टर की कन्वर्ट करवाई। फिर अपनी विदाई से महज चंद घंटे पहले उन सभी पोस्टों पर अपने चेलों की प्रमोशन की। यह काम कोई दिलेर अफसर ही कर सकता है। इन तमाम गुणों के साथ-साथ उनमें एक क्वालिटी और भी थी, जो कोई भी उनकी छत्रछाया में आ जाता, उसे ऐसा चांट देते थे कि जिंदगी में किसी की मार में नहीं आ सकता।
अब इनके एक खास चेले को ही ले लीजिए, अभी हाल ही में उसने एक ऐसा कारनामा कर दिखाया है, जो शायद न तो पहले किसी ने किया होगा और न ही भविष्य में कोई पाएगा। जी हां, यह वही शख्स है, जिसने पहले तो बिना रूल्स के प्रोजैक्ट अफसर की तीन पोस्ट क्रियेट करवाई, फिर उन पर प्रमोशन करवाया और अब उस पोस्ट का पे-स्केल इतना करवा लिया कि जिसको भी पता चले, दांतों तले उंगली दबा ले। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पे-रिवीजन से पहले एक शख्स की बेसिक पे 49000 रुपये थी, जो रिवीजन के बाद बढ़कर 67700 रुपये हो गई है। सिस्टम के जानकार बखूखी अंदाजा लगा सकते हैं कि पे-रिवीजन के बाद इन्हें कितना बड़ा फायदा हुआ है।

यह कारनामा अभूतपूर्व तो है ही, ऐसे लोगों के लिए एक मिसाल भी है, जो सिर्फ ‘कागजों में ही सिर खपाते रहते हैं। यह ऐसे लोगों के लिए जलन का विषय न होकर उनके लिए एक ‘इंस्पीरेशन’ है, एक सीख है कि काम करने से सिर्फ काम मिलता है, अफसरों की डांट-फटकार मिलती है। काम करने में गलती होने की सम्भावना बनी रहती है और सबको पता है कि गलती कभी अकेली नहीं होती, वह अपने साथ एक्सप्लेनेशन, चार्जशीट और सस्पेंशन की ‘सौगात’ भी लेकर आती है। लेकिन अगर किसी का कोई ‘गाॅड फादर’ है तो उसे काम के झंझट में फंसने की कतई जरूरत नहीं होती। उसका तो केवल मात्र एक ही काम होता है, अपने उस ‘गाॅड फादर’ की परिक्रमा करना, उसको प्रसन्नचित रखना। फिर सिस्टम तो मैनेज हो ही जाता है।

हालांकि इस ‘मिशन इम्पाॅसिबल’ को पाॅसिबल कर दिखाने का क्रेडिट किसी एक शख्स को देना दूसरे के टेलेंट और रुतबे के साथ सरासर नाइंसाफी होगी। बंदे की जड़ें रूलिंग पार्टी के पेरेंट ‘संगठन’ से जुड़ी हैं। इस नाते सीएम के साथ डायरेक्ट पहुंच है तो भला उसे कमतर कैसे आंका जा सकता है। कहते हैं कि स्केल रिवाइज करवाने में इसी बंदे का अहम रोल रहा है। होना भी चाहिए क्योंकि अगर टाइम पर, चलती में नहीं चलाई तो फिर ऐसी पावर, ऐसे रुतबे, ऐसी हैसियत का भला अचार डालना है।

वैसे सिर्फ इन्हीं एक-दो लोगों का महिममंडन करना ठीक नहीं है क्योंकि डिपार्टमेंट में टेलेंट की कोई कमी नहीं है, असम्भव को संभव करने वाले लोग और भी हैं। अब कच्चे कर्मचारियों या यूं कहें बैक डोर एंट्री मारने वालों की बात न की जाए तो यह उनके साथ भी अन्याय होगा। आज के जमाने में कच्ची नौकरी में मनचाही सेलरी लेना और फिर अगर उसमें काम न चले तो उसे मनमर्जी से बढ़वा लेना कोई आसान काम थोडे़ है। मगर यहां तो एक शख्स ऐसा भी है जो पहले 40-42 हजार रुपये सेलरी ले रहा था लेकिन जब देखा कि इतने में गुजारा नहीं चल रहा तो उसने इसे बढ़वाकर 85 हजार रुपये करवा लिया। अब अगर किसी को मिर्ची लगती है तो लगती रहे, भई अपना काम भी तो चलाना है। और फिर सबमें इतना ‘हुनर’ भी तो नहीं होता। अब जो आदमी रोज दफ्तर आएगा, सुबह से शाम तक दफ्तर में बैठेगा, सारा दिन गधे की तरह दफ्तर के काम में लगा रहेगा तो उसमें भला इतनी एनर्जी, इतना स्टेमिना कहां से आएगा। यह काम तो ऐसे विरले लोग ही कर सकते हैं जो अपनी एनर्जी और स्टेमिना को ‘सही काम और सही वक्त’ के लिए बचाकर रखते हैं।

खैर, छोड़िये। शायद हम मुद्दे से कुछ डायवर्ट हो गए। ऊपर हम एक शख्स की बात कर रहे थे, जो पहले बिना रूल्स के पोस्ट क्रियेट करवाकर प्रोजेक्ट अफसर बना और फिर उसका स्केल कल्पना की हद से भी बढ़कर करवा दिया। जब इसका ‘गाॅड फादर’ डिपार्टमेंट से रुखसत हुआ तो लगा कि शायद बंदे की ‘स्पीड’ हो जाएगी लेकिन बंदा तो बंदा है, ऐसा मैनेज किया कि ‘स्पीड’ के साथ-साथ डिपार्टमेंट में रुतबा और जलवा भी बुलंदियों पर पहुंच गया। टाइम के साथ जैसे-जैसे बड़े साहबों के साथ नजदीकियां बढ़ती गईं, बंदे ने लोगों को धमकाना, हड़काना और गुर्राना शुरू कर दिया। पे-स्केल रिवाइज होने के बाद तो इसने अपने-आपको डिप्टी डायरेक्टर तक कहना शुरू कर दिया है और कई साल पहले प्रमोट होकर डिप्टी डायरेक्टर बने अफसरों से सीनियर मानने, मनवाने का प्रण, जिद या यूं कहें हठ कर बैठा है। अब डिपार्टमेंट के अफसरों की क्या कहें, बेचारे जैसे-तैसे अपने दिन तोड़ रहे हैं। आज हालात यह हैं कि डिपार्टमेंटल अफसरों की तो क्या बिसात, बंदे ने तो विभाग के एचसीएस अफसरों को भी ‘पानी पिला दिया’ है। बंदे की इन अचीवमेंट्स से चौंधियाये कुछ वैलविशर्स जब पूछ बैठते हैं कि आगे का क्या प्लान है, बंदा मनमोहक मुस्कान के साथ बोलता है, बस अब तो प्रोजेक्ट डायेक्टर की पोस्ट का देखना है।

हमारी तो भगवान से, ईश्वर से, गाॅड से, अल्लाह से यही दुआ, यही प्रार्थना है कि बंदे के मुख पर यह मनमोहिनी मुस्कान यूं ही बनी रहे, सफलता कदम-कदम पर बंदे के गले लगने के लिए उतावली रहे, बेताब रहे।
आज इतना ही, बाकी फिर कभी….शुक्रिया!!!

 

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