इजराइल की नींव में हिंदू वीरों का खून है

इजराइल के स्कूली बच्चों को हिंदू सैनिकों की वीरता के किस्से क्यों सुनाए जाते हैं ?

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 16मई। साल 2012 में इजराइल के स्कूलों के पाठ्यक्रम में हाइफा की लड़ाई को शामिल किया गया । हाइफा की इस लड़ाई में हिंदू वीरों की बहादुरी के किस्सों को शामिल किया गया । हिंदू वीरों ने….. मशीनगनों से लैस उस्मानिया हुकूमत की सेना को सिर्फ तलवारों और भालों से ही हरा दिया था । आज आप जिस इजराइल देश को देखते हैं उस पर लगभग एक हजार सालों से मुसलमानों का कब्जा था । मुसलमान मतलब मुस्लिम खलीफा… जिसे ऑटोमन एम्पायर या टर्की एम्पायर भी कहा जाता है ।
दरअसल मुसलमानों का ये मानना है कि हर युग में उनका एक खलीफा होता है जो सारी दुनिया के मुसलमानों का सबसे बड़ा नेता या सुल्तान होता है । कई सदियों से ये खिलाफत तुर्की की उस्मानिया हुकूमत के पास थी । इस उस्मानिया हुकूमत का कब्जा एशिया… यूरोप और अफ्रीका महाद्वीप के भी कुछ देशों पर था। अगर इजराइल देश बनाना था तो उसके लिए सबसे पहले इजराइल के पूरे क्षेत्र को मुसलमान खलीफा की हुकूमत यानी ऑटोमन एम्पायर से मुक्त करवाना बेहद जरूरी था

– जब 1914 से 1919 के बीच पहला विश्वयुद्ध चला तो उस्मानिया हुकूमत (यानी खलीफा या ऑटोमन एम्पायर) ऑस्ट्रिया और जर्मनी की साइड था । और इन तीनों का मुकाबला ब्रिटेन से था ।
इजराइल के क्षेत्र को मुक्त करवाने के लिए सबसे बड़ी… सबसे अहम और सबसे पहली लड़ाई हाइफा में लड़ी गई । हाइफा की लोकेशन को समझिए तब आपको हाइफा की लड़ाई का महत्व समझ में आएगा । दरअसल हाइफा एक बंदरगाह है… ये समुद्र के किनारे है…. और इजराइल की धरती पर कदम रखने के लिए इस समुद्र के किनारे को जीतना इस पोर्ट सिटी को जीतना बहुत आवश्यक था ।
23 सितंबर 1918 को बिटिश आर्मी की तीन रेजीमेंट्स को अत्याधुनिक हथियारों से लैस ऑटोमन एम्पायर, जर्मन एम्पायर और ऑस्ट्रियन एम्पायर के सैनिकों से जंग लड़नी थी ।
उस वक्त ब्रिटिश आर्मी में भारत के राजे राजवाड़ों की निजी सेना भी शामिल होती थी । हाइफा की लड़ाई में ब्रिटिश आर्मी की तरफ से हैदराबाद के निजाम की सेना, मैसूर के शासक की सेना और जोधपुर के महाराज की राजपूत सेना को ऑटोमन एम्पायर के खिलाफ लडाई लड़नी थी लेकिन लड़ाई शुरू होने से पहले ही एक बहुत बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई । दरअसल हैदराबाद के निजाम की सेना में सारे के सारे सैनिक मुसलमान थे । ये मुसलमान सैनिक टर्की के खलीफा को अपना खलीफा मानते थे । इसलिए इन मुस्लिम सैनिकों का मन ऑटोमन एम्पायर के सैनिकों के खिलाफ लड़ने का नहीं था । ब्रिटिश कमांडर ने ये बात भांप ली । ब्रिटिश कमांडर को डर था कि कहीं ऐसा ना हो कि हैदराबाद के मुसलमान सैनिक बीच युद्ध में ही बगावत करके खलीफा की सेनाओं की तरफ चले जाएं, इसीलिए बहुत चालाकी से ब्रिटिश कमांडर ने हैदराबाद के निजाम की सेना को युद्ध के प्रबंधन यानी हथियार ढोने वगैरह के दूसरे कामों में लगा दिया और उन्हें युद्ध के मैदान में नहीं भेजने का फैसला किया ।

– लेकिन अब दूसरी दिक्कत सामने आ गई और वो ये थी कि मैसूर की सेना और जोधपुर की सेना के पास सिर्फ भाले और तलवारें थीं उनके पास मशीनगनें नहीं थीं जबकि दूसरी तरफ उस्मानिया हुकूमत पूरी तरह मशीनगन से लैस थी। ब्रिटिश कमांडर पीछे हट गया और उसने जोधपुर की राजपूतों की सेना और मैसूर की सेना से भी कहा कि वो पीछे हट जाएँ युद्ध नहीं लड़ें, लेकिन जोधपुर के वीर हिंदू सैनिकों ने युद्ध के मैदान से पीछे हटने से मना कर दिया । जोधपुर के इन वीर हिंदू सैनिकों ने
ब्रिटिश कमांडर से कहा कि अगर वो बिना लड़े भारत लौटेंगे तो उन पर जिंदगी भर युद्ध के मैदान से भागने का दाग लग जाएगा । इसके अलावा वो अपने घरों में भी मुंह नहीं दिखा पाएंगे और उन्हें सदैव अपमानित रहना होगा । इसलिए वो सिर्फ मशीनगन से डरकर युद्ध के मैदान से नहीं हट सकते । ऐसी स्थिति में या तो विजय होनी चाहिए या फिर मृत्यु । आखिरकार मजबूरी में ब्रिटिश कमांडर ने जोधपुर और मैसूर की सेना को युद्ध की अनुमति दे दी ।

23 सितंबर 1918 को हाइफा का युद्ध शुरू हो गया । जोधपुर और मैसूर के हिंदू वीरों ने जबरदस्त शौर्य का प्रदर्शन किया । भाले और तलवारें लेकर इन सैनिकों ने मशीनगन सै लैस उस्मानिया हुकूमत के सिपाहियों पर सीधा हमला कर दिया । मशीनगनों से 44 हिंदू वीर वीरगति को प्राप्त हो गए । लेकिन जब ये हिंदू वीर उस्मानिया सैनिकों के पास पहुंच गए तब मशीनगनों की उपयोगिता खत्म हो गई । खलीफा खलीफा के एक एक सैनिक का जिगर हिंदू सैनिकों ने भालों से चीर डारा ।

हिंदू वीरों ने उस्मानिया हुकूमत के युद्धपोतों पर कब्जा कर लिया और साथ ही हाइफा के शहर पर भी विजय पताका लहरा दी

(अगर आपको मेरे आर्टिकल डायरेक्ट नहीं मिलते हैं…. तो आप मेरा मोबाइल नंबर 70117 95136 दिलीप नाम से जरूर जरूर सेव कर लें… इसी मोबाइल नंबर पर मिस्ड कॉल जरूर जरूर कर दें… ये दो काम कर देंगे तो मेरे लेख डायरेक्ट मिलेंगे ) इस तरह हाइफा पर 401 सालों का खलीफा शासन खत्म हुआ और यहीं से इजराइल देश की नींव पड़ी, लेकिन जैसा कि हमेशा होता है कि कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने सदैव हिंदुओं को कायर साबित करने की कोशिश की । इसीलिए हाइफा की लडाई को इंडियन आर्मी की विजय का नाम दे दिया गया । जबकि ये विशुद्ध रूप से हिंदुओं की विजय थी । राजपूत सेनानायक मेजर दलपत सिंह शेखावत ने इस युद्ध का नेतृत्व किया था। जरा ध्यान से सोचो और विचार करो कि जिस इजराइल की स्थापना में हिंदू वीरों का रक्त है वो इजराइल आज कैसे अरब के जिहादियों को धूल चटा रहा है और हम हिंदू कैसे बंगाल की हिंसा से डरकर असम भाग रहे हैं ।
इसलिए अपने वीर पूर्वजों को याद करो और मैदान में डट जाओ । तुम वीर हो इसमें कोई शक नहीं बस अपनी दया और करुणा को एक किनारे रख दो क्योंकि जिहादी इसके लायक नहीं हैं।

धन्यवाद

साभार..

 

 

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