डॉ शंकर शरण
हमारे देश की पाठ्य-पुस्तकों में जवाहरलाल नेहरू का गुण-गान होते रहना कम्युनिस्ट देशों वाली परंपरा की नकल है। अन्य देशों में किसी की ऐसी पूजा नहीं होती जैसी यहाँ गाँधी-नेहरू की होती है। अतः जैसे रूसियों, चीनियों ने वह बंद किया, हमें भी कर लेना चाहिए। वस्तुतः खुद नेहरू ने जीवन-भर जिन बातों को सब से अधिक दुहराया था, उसमें यह भी एक था – ‘हमें रूस से सीखना चाहिए’। और सचमुच नेहरू और पीछे-पीछे पूरे भारत ने कम्युनिस्ट रूस से अनेकों नारे और हानिकारक चीजें सीखीं।
तब क्या अब कुछ अच्छा नहीं सीखना चाहिए?
जिस तरह रूसियों ने लेनिन-पूजा बंद कर दी, हमें भी नेहरू और गाँधी-पूजा खत्म करनी चाहिए। यह तुलना अनोखी नहीं है। यहाँ पैंतीस-चालीस साल पहले नेहरू की लेनिन से तुलना बड़ी ठसक से होती थी। नेता और प्रोफेसर इस पर लेख, पुस्तकें लिखते थे, और सरकार से ईनाम पाते थे। तब रूस में लेनिन और यहाँ नेहरू की महानता एक स्वयं-सिद्धि थी। दोनों को अपने-अपने देश का प्रथम मार्गदर्शक, महामानव, दार्शनिक, आदि बताने का चलन था। फिर समय आया कि रूसियों ने लेनिन-पूजा बंद कर दी। वही स्थिति चीन में माओ की हुई। आज उन देशों में अपने उन कथित मार्गदर्शकों की जयंती तक मनना बंद हो चुका है।
रूस और चीन में इस अंध-पूजा के पटाक्षेप के लिए कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं हुई। जनता ने सर्वसम्मति से उस कथित महानता का अध्याय बंद किया। क्योंकि वह पूजा उन पर दशकों तक जबरन थोपी हुई थी। लेनिन, माओ की महानता की गाथाएं सत्ता की ताकत के बल पर गढ़ी और प्रचारित की गई थी। उन के जीवन के हर काले अध्याय पर पर्दा डाल कर रूसी-चीनी जनगण के दिमाग को लेनिन-माओमय बना डाला गया था। इसीलिए, जैसे ही वह जबरदस्ती हटी, लोगों ने वह लज्जास्पद पूजा बंद कर दी। इस पर रूस या चीन में मामूली विवाद तक न हुआ। सहमति इतनी साफ थी। आज रूस और चीन में टॉल्सटॉय और कन्फ्यूशियस ही सर्वोच्च चिंतक माने जाते हैं, लेनिन और माओ नहीं।
अतः इस बिन्दु पर भी नेहरू को लेनिन से तुलनीय बनाने का समय आ गया है। जैसे कम्युनिस्ट पार्टी ने रूस पर लेनिन-पूजा थोपी थी, उसी तरह नेहरू परिवार ने यहाँ नेहरू-गाँधी पूजा थोपी। आखिर किस आधार पर नेहरू की जन्म-शताब्दी मनाने के लिए असंख्य मँहगे सरकारी उपक्रम हुए, जबकि डॉ. राजेंद्र प्रसाद के लिए कुछ न हुआ? यदि नेहरू प्रथम प्रधान मंत्री थे, तो राजेंद्र बाबू भी प्रथम राष्ट्रपति थे।
उसी तरह, किस तर्क से गाँधी को राष्ट्र-पिता घोषित किया गया? गाँधी-जयंती स्थाई राष्ट्रीय अवकाश घोषित हो गया, जबकि ‘राष्ट्र-पितामह’ स्वामी दयानन्द सरस्वती को वैसा मान नहीं मिला? ऐसी अनगिनत बातें गाँधी-नेहरू को भारतीय मानस पर जबरन थोपे जाने की पुष्टि करती हैं।
किसी देश में किसी की जयंती मनाने, न मनाने के कारण समान होते हैं। जिस ने देश की सच्ची सेवा की, उसे याद करते हैं। जिस ने ऐसा कुछ विशेष न किया अथवा हानि की, उसे भूला जाता है। इसी तर्क से लेनिन और माओ अपने-अपने देशों में भुलाए जा चुके। इसलिए भी नेहरू का राजनीतिक, वैचारिक रिकॉर्ड लेनिन से तुलनीय है। अर्थ-नीति, विदेश-नीति, गृह-नीति, शिक्षा-नीति, आदि बुनियादी बिन्दुओं पर नेहरू की हानिकारक विरासत देखनी चाहिए।
राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश-नीति में नेहरू के कार्यों, विचारों में एक से एक शर्मनाक अध्याय हैं। नेहरू ने तिब्बत पर पारंपरिक भारतीय संरक्षण को खुद छोड़ कर उस महत्वपूर्ण देश को अपने ‘मित्र’ चीन के हवाले कर दिया। इस तरह, भारत को अरक्षित कर डाला! अरुणाचल प्रदेश पर चीन का दावा तिब्बत के माध्यम से है, और किसी तरह नहीं। फिर, नेहरू ने प्रधान मंत्री पद से अपनी प्रथम अमेरिका यात्रा (1956) में अमेरिकियों को साम्राज्यवाद पर कम्युनिस्ट लेक्चर पिलाकर स्तब्ध कर दिया। इस प्रकार, दुनिया के सब से महत्वपूर्ण देश से अकारण संबंध बिगाड़ने की ठोस शुरुआत की! फिर, जब ‘मित्र’ चीन ने घुस-पैठ कर लद्दाख का एक भाग चुपचाप दखल कर लिया, तब नेहरू ने संसद में बयान दिया कि ‘उस हिस्से में तो घास भी नहीं उगती’! ऐसी बचकानी समझ और योग्यता वाले व्यक्ति को प्रथम प्रधानमंत्री बनाने का दोष गाँधीजी का था। लेकिन दशकों के झूठे, सरकारी प्रचार के कारण आज लोग जानते भी नहीं कि 1947 में कांग्रेस में प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू पहली क्या, दूसरी पसंद भी नहीं थे! पहले सरदार पटेल, फिर कृपलानी को देश भर के कांग्रेसियों ने अपनी चाह बताया था। उसे ठुकरा कर गाँधीजी ने नेहरू को थोपा, जिस ने राष्ट्रीय सुरक्षा का कचरा तो किया ही; स्वतंत्र भारत के नव-निर्माण की पूरी मिट्टी पलीद की।
यहाँ तक कि नेहरू का व्यक्तिगत जीवन भी अनुकरणीय नहीं था। यह नेहरू के वरिष्ठतम सहयोगियों समेत अनगिनत समकालीनों ने लिखा है। एक विदेशी स्त्री, लेडी माउंटबेटन, के अंतरंग प्रभाव में नेहरू ने देश-विभाजन, कश्मीर की ऐसी-तैसी तथा कम्युनिस्ट षडयंत्रकारियों की मदद की। कश्मीर को विवादित और पाकिस्तान को स्थाई लोलुप बनाने में नेहरू का सब से बड़ा हाथ है। और यह सब उन्होंने अपने गृह मंत्री सरदार पटेल को अँधेरे में रख कर किया था! यह सब कोई आरोप नहीं, जग-जाहिर तथ्य हैं जिन के प्रमाण सर्व-सुलभ हैं।
तब ऐसे ‘प्रथम’ मार्गदर्शक के बारे में हम पाठ्य-पुस्तकों में क्या बताएं? क्या वही झूठ दुहराते रहें जो नेहरूवंशी सत्ता ने जोर-जबरदस्ती और छल-प्रपंच से स्थापित की है? क्या रूसी और चीनी जनता से इस मामले में कुछ न सीखें? किसी भ्रम में न रहें। नेहरू की विरुदावली और ‘योगदान’ के जितने भी किस्से और तर्क दिए जाते थे, वे ठीक वैसे ही हैं जैसे सोवियत सत्ता के दिनों में लेनिन के पक्ष में मिलते थे। अतः बिना उन गंभीर दोषों के, जो नेहरू में थे, बावजूद हमारी पाठ्य-पुस्तकों में यदि प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद की कोई चर्चा नहीं रहती – तो कोई कारण नहीं कि अनगिन लज्जास्पद कार्यों के बावजूद हम नेहरू पर देश के बच्चों को अनुचित गर्व करना सिखाते रहें।
स्वतंत्र भारत में पहला प्रधान मंत्री निवास तीन-मूर्ति भवन था। नेहरू की मृत्यु के बाद उसे ‘नेहरू स्मारक’ बना दिया गया। फिर तो, ल्युटन की दिल्ली में विविध नेताओं को आवंटित बंगलों को उन की मृत्यु बाद कथित ‘स्मारक’ बनाकर उन के वंशजों द्वारा कब्जाने की प्रक्रिया चल पड़ी। देश की जमीन और संपत्ति पर ऐसा बेशर्म व्यक्तिगत, पारिवारिक कब्जा और किसी देश में भी क्या होता है? हमारे बच्चों को तो इस पर सोचना सिखाना चाहिए।
जयंती, स्मारक, संस्थाओं, योजनाओं के नामकरण, आदि प्रक्रियाओं में गाँधी-नेहरू की अंध-पूजा किस सिद्धांत के तहत होती रही है? दूसरी ओर, पतंजलि, पाणिनि, चाणक्य, कालिदास, तुलसीदास, जैसे शाश्वत मूल्य के अनगिन मनीषी ही नहीं; स्वामी दयानन्द, बंकिमचन्द्र, श्रद्धानंद, श्रीअरविन्द, जगदीशचंद्र बोस, जदुनाथ सरकार, मेजर ध्यानचंद, आदि भारत के समकालीन सच्चे महापुरुषों को कितना सरकारी-राष्ट्रीय आदर मिला है? यहाँ लगभग अशिक्षित नेताओं के नाम पर बीसियों विश्वविद्यालय खोले गए हैं, और महान इतिहासकार जदुनाथ सरकार या महाकवि निराला के नाम पर एक भी नहीं! इस का लज्जास्पद तर्क केवल सोवियत व्यवस्था से मिलता है। जहाँ पूरी शिक्षा को लेनिन-स्तालिनमय कर दी गई थी, जबकि दॉस्ताएवस्की, सोल्झेनित्सिन जैसे मनीषी पुस्तकालयों तक से बहिष्कृत थे।
हमें अपने देश के मनीषियों, महापुरुषों की पहचान, सम्मान और सीखने का सच्चा मानदंड बनाना होगा। नहीं तो विश्व-मंच पर हमारी वही निस्तेज, बुद्धि-हीन छवि बनी रहेगी जो नेहरू ने बनाई थी।
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स्वतंत्रत भारत के शुरुआत के क्रिटिकल दौर में नेहरूवाद के उदय और उसके दूरगामी भयंकर परिणामो के सटीक विश्लेषण के लिए पढ़ें : “नेहरूवाद की विरासत
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