इलावर्त, इलाबास, अल्लाहबाद और फिर इलाहाबाद… तीर्थराज प्रयाग के नाम बदलने की पूरी कहानी

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,11 जनवरी।
भारत का इतिहास अनेक परंपराओं, संस्कृतियों और नामों की कहानियों से भरा हुआ है। ऐसा ही एक प्राचीन और ऐतिहासिक नाम है तीर्थराज प्रयाग, जिसे समय के साथ अलग-अलग नामों से पुकारा गया। यह कहानी न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व की है, बल्कि यह नाम बदलने की ऐतिहासिक प्रक्रिया को भी उजागर करती है।

प्राचीन काल: इलावर्त की कहानी

तीर्थराज प्रयाग का सबसे प्राचीन नाम इलावर्त माना जाता है। यह नाम वैदिक युग से जुड़ा हुआ है, जिसमें इसे दिव्य भूमि और तपस्या का केंद्र बताया गया है। यहां गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम को विशेष धार्मिक महत्व दिया गया। ऋषि-मुनियों ने इसे आध्यात्मिक साधना का प्रमुख केंद्र माना।

मुगल काल: इलाबास और अल्लाहबाद

16वीं शताब्दी में जब मुगल साम्राज्य का उदय हुआ, तब अकबर ने इस क्षेत्र का नाम बदलकर ‘इलाहबास’ रखा, जिसका अर्थ ‘ईश्वर का निवास’ है। हालांकि, बाद में इसे ‘अल्लाहबाद’ के रूप में जाना गया। मुगल काल के दौरान, इस क्षेत्र को रणनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना गया और यह धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समन्वय का केंद्र बना।

ब्रिटिश काल: इलाहाबाद का आगमन

अंग्रेजों के भारत में आने के बाद, ‘अल्लाहबाद’ को अंग्रेजी में ‘इलाहाबाद’ कहा जाने लगा। ब्रिटिश प्रशासन ने इसे एक बड़े शहरी केंद्र के रूप में विकसित किया। 1858 में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम समाप्त होने के बाद, इलाहाबाद को उत्तरी भारत में प्रशासनिक गतिविधियों का केंद्र बनाया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय और विश्वविद्यालय की स्थापना ने इसे बौद्धिक और न्यायिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बना दिया।

आधुनिक युग: तीर्थराज प्रयाग की वापसी

21वीं शताब्दी में, 2018 में, उत्तर प्रदेश सरकार ने इस ऐतिहासिक शहर का नाम बदलकर फिर से ‘प्रयागराज’ कर दिया। इसका उद्देश्य क्षेत्र की प्राचीन और धार्मिक पहचान को पुनर्स्थापित करना था। सरकार का कहना था कि प्रयागराज का नाम इस क्षेत्र की आध्यात्मिक विरासत को दर्शाता है और इसे तीर्थराज के रूप में स्थापित करता है।

नाम बदलने का प्रभाव

नाम परिवर्तन ने जहां एक ओर ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टिकोण से सकारात्मक प्रतिक्रियाएं प्राप्त कीं, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक और प्रशासनिक विवाद भी खड़े हुए। आलोचकों का मानना था कि यह एक धार्मिक पहचान को प्राथमिकता देने का प्रयास है, जबकि समर्थकों ने इसे क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत का सम्मान बताया।

निष्कर्ष

इलावर्त से प्रयागराज तक का यह सफर भारतीय इतिहास, धर्म और राजनीति का प्रतिबिंब है। यह कहानी दर्शाती है कि नाम केवल शब्द नहीं होते, बल्कि वे संस्कृति, इतिहास और पहचान के प्रतीक होते हैं। प्रयागराज का वर्तमान नाम उस प्राचीन गौरव की पुनर्स्थापना है, जिसे यह क्षेत्र सहस्राब्दियों से अपने अंदर समेटे हुए है।

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