लेखिका- पूनम नेगी
सनातन हिंदू दर्शन में सृष्टि की उत्पत्ति नाद से मानी जाती है। हमारे यहां इस नाद को ब्रह्म की संज्ञा दी गयी है। भारतीय ऋषियों की मान्यता है कि समूचे विश्व ब्रह्माण्ड में अनहद नाद (ओम् की ध्वनि) सतत गूंजता रहता है। इस तथ्य को अब नासा ने भी स्वीकार कर लिया है। संगीत के रहस्य और विज्ञान को भारतीय ऋषि-मुनियों से अच्छा कोई भी नहीं जान सकता, यह तथ्य अब सर्वमान्य हो चुका है। भारतीय ध्वनि विज्ञान व संगीत की विलक्षणता का सर्वोपरि प्रमाण यह है कि हमारे ऋषियों ने इसे ईश्वर प्राप्ति व मोक्ष का सर्वसुलभ साधन माना है।
इस बारे में नारद संहिता में एक रोचक आख्यायिका मिलती है। एक बार देवर्षि नारद ने यह देखने के लिए भूलोक के भ्रमण पर निकले कि धरती पर मनुष्यों के आध्यात्मिक विकास की गति किस तरह चल रही है? मगर वे जहां भी गये, प्रत्येक स्थान पर लोगों ने एक ही शिकायत की, भगवान परमात्मा की प्राप्ति अति कठिन है। वे कोई ऐसा उपाय चाहते थे कि जिससे ईश्वर की अनुभूति में अधिक कष्ट साध्य तितीक्षा न करनी पड़े। नारद जी ने उनको इस प्रश्न का उत्तर स्वयं भगवान नारायण से पूछकर देने का आश्वासन दिया और विष्णुलोक के लिए चल पड़े। वहां पहुंचकर नारदजी ने जगत पालक श्री हरि विष्णु जी से कहा, ‘भगवन! आपकी साधना प्रणालियां धरतीलोक के लोगों को बहुत कष्टसाध्य प्रतीत हो रही हैं; अत: कृपा कर ऐसा कोई सरल उपाय बताइए, जिससे भक्तगण सहज ही आपकी अनुभूति कर सकें।’ तब भगवान विष्णु ने कहा, ‘हे नारद ! न तो मैं वैकुंठ में रहता हूं और न योगियों के हृदय। मैं तो वहां निवास करता हूं जहां भक्त मेरे संगीतमय भजनों द्वारा संकीर्तन करते हैं।’
हिन्दू धर्म का नृत्य, कला, योग और संगीत से गहरा नाता है। नृत्य, संगीत और वाद्ययंत्रों का अविष्कार भारत में ही हुआ। भारतीय ज्ञान विज्ञान के आदि स्रोत वेदों में संगीत की महिमा विस्तार से वर्णित है। सामवेद में संगीत के वाद्य यंत्रों, उत्पत्ति और बजाने के तौर तरीकों का विस्तार से वर्णन किया गया है। पांचवीं शताब्दी में मतंग मुनि ने संगीत के बारीक पहलूओं पर ‘वृहददेखी’ की रचना की थी। धर्म, अध्यात्म और साधना के वातावरण में संगीत का विकास हुआ था और मंदिरों और आश्रमों में पालन-पोषण। मंदिर के अलावा राजमहल और राजदरबार भी संगीत का मुख्य केंद्र माने जाते थे।
शिव के डमरू के नाद से उपजी हमारी सनातन संगीत परम्परा के विभिन्न वाद्य यंत्रों का इतिहास भी कम रोचक नहीं है। इन वाद्यों का इतिहास प्रकारान्तर से मानवीय सभ्यता और संस्कृति का इतिहास है। मनुष्य प्राचीन काल से ही प्रकृति के निकट रहा है, इसी कारण वाद्यों के निर्माण में विभिन्न प्राकृतिक ध्वनियां ही सबसे अधिक प्रेरक सिद्ध हुई हैं। प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित कथानक के मुताबिक त्रिपुर नामक एक दैत्य का वध कर के भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि वे हर्षातिरेक में नृत्य करने लगे। भगवान शिव को नृत्य में मग्न होते देख ब्रह्मा ने उसी राक्षस के रुधिर से मिट्टी सानकर एक ढोल की रचना की और इस तरह ढोल की उत्पत्ति हुई।
लोकवाद्य प्रकृति प्रदत्त हैं। इन लोकवाद्यों के मूल में प्रकृत्ति प्रदत्त ध्वनि व्याप्त है। ये लोकवाद्य सहज, स्वछन्द एवं लयगर्भित होते हैं। इन लोकवाद्यों के बुनियादी स्वर की ओर देखें तो ज्ञात होता है कि इन वाद्यों में प्रकृति का नाद निहित है। जैसे कि, समुद्र का गम्भीर स्वर, बादलों की गर्जना, शिशु का रुदन, पक्षियों का कलरव, बिजली की घरर-घरर, बैलों की घंटियों का निनाद, चूडिय़ों की खनक, कोयल की कूक, मंदिरों के शंख एवं घण्टे की ध्वनि, धोबी की फट-फट, नदियों का निनाद आदि। हमारे वाद्ययंत्रों के यही सरल एवं स्वाभाविक स्वर भारतीय संगीत की आत्मा को प्रकट करते हैं और मानव समाज में जन्म से मृत्यु से जीवनपर्यन्त अपनी उपस्थिति से रस और लय का संचार करते हैं। इसीलिए कबीर ने लोकवाद्यों से निकली झंकार को अनाहत नाद की संज्ञा दी है।
हिंदू देवी-देवताओं के अनूठे वाद्ययंत्र
हमारी देव प्रतिमाओं के अलंकरण में अस्त्र-शस्त्रों के साथ वाद्यों का भी प्रयुक्त होना संगीत की इसी महत्ता को प्रतिपादित करता है। इन पवित्र वाद्य यंत्रों की पवित्र ध्वनियां न सिर्फ हमारे मन-प्राण को आनंदित करती हैं अपितु अब तो आधुनिक विज्ञान भी इनकी चिकित्सीय क्षमता का लोहा मान चुका है। प्रस्तुत है, हमारे दैवीय वाद्ययंत्रों से जुड़े कुछ रोचक तथ्य।
डमरू
मान्यता है कि इस सृष्टि में संगीत भगवान शिव के डमरू के नाद से ही उत्पन्न हुआ है। माना जाता है कि संगीत पहले सिर्फ देवताओं के लिए था। भगवान शिव ने डमरू बजाकर लास्य तांडव करते हुए सुरों को बंधन से मुक्त किया तब संगीत मनुष्यों के लिए उपलब्ध हुआ। प्राचीन समय में भारत और तिब्बत के साधु-संत नर-खोपडिय़ों के ऊपरी भाग की हड्डी से डमरू के दोनों सिरों को बनाते थे। वे ऐसा इसलिए करते थे क्योंकि शास्त्रों के अनुसार हमारे मस्तक के शिरो-भाग में ब्रह्मनाद की तरंगे निरंतर गुंजायमान रहती हैं। इसलिए प्रतीक के तौर पर वे नर-खोपड़ी के ऊपरी भाग से बने डमरू को बजाते थे ताकि समस्त जन को यह संदेश पहुंच सके कि शिव के डमरू से निसृत जो अनाहद नाद (ओंकार की ध्वनि) इस विश्व ब्रह्मांड में गूंज रहा है, वही हम सबके भीतर भी बज रहा है। शिव का डमरू वस्तुत: ‘ब्रह्मनाद’ का ही द्योतक है।
यह ब्रह्मनाद ही हमारे वेद-उपनिषद में भी गुंजायमान है-
इमे मयूखा उपसेदुरुसद: सामानि चक्रूस्तसराणयोतवे! (ऋग्वेद 10-130-2)
अर्थात् परमात्मा से सूक्ष्म तरंगे अथवा ब्रह्मनाद प्रकट हुआ, जिससे भिन्न-भिन्न पदार्थो का निर्माण आरम्भ हुआ।
श्री गुरुग्रंथ साहिब में भी वर्णित है –
‘सबदे धरती सबदे आगास, सबदे सबदि भइआ परकास!’अर्थात् ब्रह्म नाद से ही धरती बनी, आकाश बना, सृष्टि के प्रत्येक रचना में इसी नाद की तरंग है।
संत वेमना तेलुगु भाषा में कहते हैं-
नादु नादु कूडि नामरूपं बैन! अर्थात् नाद ही इस सकल नामरूप जगत का आधार है। योगियों के अनुसार वैसे तो योग-प्राणयाम के सतत अभ्यास द्वारा प्राण की गति पर संतुलन साधा जा सकता है परन्तु नाद ब्रह्म की साधना से सहज ही हमारा मन ब्रह्म में स्थिर हो सकता है। सार रूप में कहें तो भगवान शिव (आशुतोष) के डमरू का ब्रह्मनाद शुभता, मंगलमय जीवन, दिव्यता के विकास का प्रतीक है।
वीणा
कमल के फूल पर विराजित बुद्धि और सद्ज्ञान की अधिष्ठात्री मां सरस्वती को वीणापाणि भी कहा जाता है। कहा जाता है कि सृष्टि की जीवों की रचना के उपरांत ब्रह्मा जी के कहने पर मां सरस्वती ने अपनी वीणा के तारों को स्पंदित कर सृष्टि में वाणी का संचार किया था। इसीलिए हमारे पुरातन वाद्य यंत्रों में वीणा बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। ऋषि यज्ञवल्क्य के अनुसार वीणा की धुन सीधे ईश्वर से संबंध स्थापित करती है। जिन्हें वीणा बजाने में महारथ हासिल हो जाती है, उन्हें बिना प्रयास के ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। देवी सरस्वती के हाथ में स्थित वीणा बहुत कुछ दर्शाती हैं। इसे ज्ञान वीणा कहा गया है। मां सरस्वती इस वीणा के ऊपरी भाग को अपने बाएं हाथ से व निचले भाग को अपने दाएं हाथ से थामे नजर आती हैं। यह शैली ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में निपुणता के साथ उनपर नियंत्रण की भी परिचायक है। कम ही लोग इस रोचक तथ्य से परिचित होंगे कि इस वीणा का दैविक नाम ‘कच्छपी’ अर्थात मादा कच्छप है। यह दर्शाता है कि जिस तरह निष्क्रियता के काल में कच्छप अपनी सभी इन्द्रियों को हटा लेता है, उसी तरह मनुष्य को भी अपनी इन्द्रियों और इच्छाओं को नियंत्रित रखना आना चाहिए। ऐसा करने के बाद ही वीणा के मधुर स्वर को समझा जा सकता है और इसका आध्यात्मिक आनंद प्राप्त किया जा सकता है। यही वजह है कि कुछ कलाकार वीणा के ऊपरी भाग को कच्छप की तरह दर्शाते हैं।
शंख
समुद्र मंथन से निकले 14 अनमोल रत्नों में एक रत्न शंख भी था। चूंकि इसी सागर मंथन से देवी लक्ष्मी भी प्रकट हुईं थीं, इसी कारण शंख को लक्ष्मी का भाई कहा जाता है जिसे जगत पालक श्रीहरि विष्णु ने अपने वाद्य के रूप में ग्रहण किया था। मान्यता है कि इस मंगल चिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई भी पूजा-आराधना, अनुष्ठान-साधना, आरती, यज्ञ आदि शंख के उपयोग के बिना पूर्ण नहीं माना जाता। हिन्दू मान्यता के अनुसार, शंख बजाने से ओम् की मूल ध्वनि का उच्चारण होता है। भगवान ने सृष्टि की रचना के बाद सबसे पहले ओम् शब्द का ही नाद किया था। इसलिए हर शुभ अवसर और नवीन कार्य पर शंख-ध्वनि की जाती है। इसके नाद से सुनने वाले को सहज ही ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव हो जाता है और मस्तिष्क के विचारों में भी सकारात्मक बदलाव आ जाता है। यह भारतीय संस्कृति की अनमोल धरोहर है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार सूर्य और चंद्रमा के समान शंख भी देवस्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्रभाग में गंगा और सरस्वती का निवास माना गया है। शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। हिन्दू परंपरा के अनुसार जीवन के चार पुरुषार्थों – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में शंख को धर्म का प्रतीक माना जाता है। ज्ञात हो कि उड़ीसा में जगन्नाथपुरी को ‘शंख-क्षेत्र’ इसीलिए कहा जाता है क्योंकि इसका भौगोलिक आकार शंख के समान है। महाभारत के धर्मयुद्ध का आरम्भ इसी शंखध्वनि से हुआ था। इस युद्ध का शंखनाद भगवान श्रीकृष्ण ने पांचजन्य शंख बजाकर किया था। जानना रोचक हो कि इस युद्ध में अर्जुन ने देवदत्त, युधिष्ठिर ने अनंत विजय, भीष्म ने पोड्रिक, भीमसेन ने पौंड्र, नकुल ने सुघोष एवं सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंख बजाया था।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शंख तीन प्रकार के माने गये हैं- दक्षिणावर्ती शंख, मध्यावर्ती शंख और वामावर्ती शंख। इनमें दक्षिणावर्ती शंख को सबसे शुभ माना गया है। वास्तुशास्त्र के अनुसार भी शंख में ऐसे कई गुण होते हैं, जिससे घर में सकारात्मक उर्जा आती है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि शंख ध्वनि से वातावरण में मौजूद कई तरह के कीटाणुओं का नाश हो जाता है। आयुर्वेद के मुताबिक शंख बजाने से फेफड़े का व्यायाम होता है। शंख में कैल्शियम, फास्फोरस व गंधक के गुण होने की वजह से यह यह दांतों व हड्डियों की सेहत लिए भी लाभदायक है। शंखोदक के भस्म के उपयोग से पेट की बीमारियां दूर हो सकती हैं, मगर इसका उपयोग विशेषज्ञ वैद्य की सलाह से ही किया जाना चाहिए।
बांसुरी
दैवीय वाद्यों में लीलाधर कृष्ण के वाद्य बांसुरी की गणना प्रमुखता से होती है। बांसुरी कृष्ण को इतनी प्रिय क्यों है, इस बाबत एक रोचक पौराणिक कथानक है। कहते हैं कि द्वापर युग में श्री विष्णु के कृष्णावतार में जब देवी-देवता वेश बदलकर उनसे मिलने धरती पर जाने लगे। तो भगवान शिवजी भी अपने प्रिय से मिलने से खुद को रोक न सके। वे श्री कृष्ण को कोई ऐसा उपहार देना चाहते थे जिसे वे सदैव अपने पास रखें। तभी महादेव को याद आया कि उनके पास उनके परम तेजस्वी भक्त महाबलिदानी दधीचि की एक हड्डी पड़ी है। वही देहदानी दधीचि जिनकी अस्थियों से विश्कर्मा ने पिनाक, गाण्डीव, शारंग नामक तीन धनुष तथा इंद्र के लिए व्रज का निर्माण किया था। महादेव ने उस हड्डी से एक सुन्दर बांसुरी का निर्माण किया और गोकुल में श्रीकृष्ण से भेंट के दौरान उन्हें वह उपहार में दी। श्रीकृष्ण ने वह उपहार सिर-हाथों पर लिया। तभी से वह बांसुरी भगवान श्रीकृष्ण अत्यंत प्रिय हो गयी।
ज्ञात हो कि बांसुरी को वंशी भी कहा जाता है, यदि हम वंशी का उल्टा करें तो शिवम् होता है। ये बांसुरी शिव का ही एक रूप है। शिव वो हैं जो संपूर्ण संसार को अपने प्रेम के वश में रखने में सक्षम है। उनका व्यवहार और वाणी दोनों ही बांसुरी की तरह मधुर है। कृष्ण के बांसुरी प्रेम के पीछे मुख्य रूप से तीन कारण हैं। पहला, बांसुरी में गांठ नहीं है। वह खोखली है। इसका अर्थ है अपने अंदर किसी भी तरह की गांठ मत रखो। चाहे कोई तुम्हारे साथ कुछ भी करे बदले कि भावना मत रखो। दूसरा, बिना बजाए बजती नहीं है, यानी जब तक ना कहा जाए तब तक मत बोलो। बोल बड़े कीमती है, बुरा बोलने से अच्छा है शांत रहो। तीसरा, जब भी बजती है मधुर ही बजती है। मतलब जब भी बोलो तो मीठा ही बोलो। जब भगवान ऐसे गुण किसी में देखते है, तो उसे अपना प्रिय बना लेते हैं।
लोकवाद्यों की समृद्घ परंपरा
भारत की वनवासी जातियों के पास विचित्र प्रकार के वाद्य यंत्र मिल जाएंगे जिनसे निकलने वाली ध्वनियों को सुनकर आप एक अलौकिक आनंद में डूब जाएंगे। भारतीय शास्त्रकारों के अनुसार वीणा, बीन, मृदंग, ढोल, डमरू, घंटी, ताल, चांड, घटम, पुंगी, डंका, तबला, शहनाई, सितार, सरोद, पखावज, संतूर आदि का आविष्कार भारत में ही हुआ था।
1. मंदिर की घंटी :
जब सृष्टि का प्रारंभ में जो नाद था, मंदिर की घंट ध्वनि उसी नाद का प्रतीक मानी जाती है। यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी उत्पन्न होता है। घंटी या घंटे को काल (समय) का प्रतीक भी माना जाता है। इसलिए आज भी समय की एक इकाई घंटा भी है। मंदिर की घंटी की ध्वनि से नकारात्मक शक्तियां हटती हैं और नकारात्मकता हटने से समृद्धि के द्वार खुलते हैं। इसी कारण मंदिरों प्रात: और संध्या को लयपूर्ण घंटी बजायी जाती हैं।
2. ढोल :
पौराणिक मान्यताओं को मानें तो ढोल का निर्माण त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) ने किया था। इस बात का उल्लेख ढोल सागर ग्रंथ में मिलता है। ढोल भारत के बहुत पुराने ताल वाद्य यंत्रों में से है। आम, बीजा, शीशम, सागौन या नीम की लकड़ी को बीच से पोला करके दोनों मुखों पर बकरे की खाल को मजबूत सूत की रस्सियों से कसा जाता है। इस रस्सी में लोहे के भी लगे छल्ले रहते हैं जिसके द्वारा इसको खींचकर कसा जाता है। ढोलक और ढोलकी को हाथ से बजाया जाता है जबकि ढोल को अलग-अलग तरह की छडिय़ों से।
3. मंजीरा :
इसे भारत के अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है, जैसे झांझ, तला, मंजीरा, कफी आदि। ये फैले हुए शंकु के आकार के पीतल के दो छल्ले होते हैं, जो आपस में एक धागे की सहायता से बंधे होते हैं। इन्हें दोनों हाथों में पकड़कर आपस में लड़ाकर बजाया जाता है। कुछ कलाकार इन्हें एक हाथ की ही उंगलियों में फंसाकर बजाते हैं।
4. करताल:
इसे खड़ताल भी कहते हैं। यह भजन और कीर्तन में उपयोग किया जाना वाला यंत्र है। इसका आकार धनुष की तरह होता है। इस वाद्य का निर्माण लगभग एक फीट की दो लकड़ी के टुकड़े पर किया जाता है। एक हाथ में दोनों टुकड़ों को पकड़कर उन्हें आपस में लड़ाया जाता है जिससे ताल निकलती है। राजस्थानी लोक संगीत में करतल का बहुत उपयोग होता है।
5. नगाड़ा :
यह प्राचीन काल का एक प्रमुख वाद्ययंत्र है। लकड़ी की डंडियों से पीटकर इससे ध्वनि निकाली जाती है। वास्तव में नक्कारा, नगारा या नगाड़ा संदेश प्रणाली से जुड़ा हुआ शब्द है। हालांकि बाद में इसका उपयोग लोक उत्सवों, आरती आदि के अवसर पर भी किया जाना लगा। इसे दुंदुभी भी कहा जाता है।
6. मृदंग:
यह दक्षिण भारत का एक थाप यंत्र है। यह ढोल की तरह होता है मगर अंतर यह होता है कि ढोल के विपरीत मृदंग का एक सिरा काफी छोटा और दूसरा सिरा काफी बड़ा (लगभग 10 इंच) होता है। कर्नाटक संगीत में इसका उपयोग अधिक होता है। इसका इस्तेमाल गांवों में कीर्तन गीत गाने के दौरान किया जाता है।
7. चिमटा:
लगभग एक मीटर लंबे लोहे के चिमटे की दोनों भुजाओं पर पीतल के छोटे-छोटे चक्के कुछढीलेपन के साथ लगाकर इस यंत्र का निर्माण किया जाता है। इसे हिलाकर या हाथ पर मारकर बजाया जाता है। अधिकतर इसका उपयोग नाथ साधु किया करते हैं।
8. तुनतुना:
यह एक से दो फुट लंबा वाद्य यंत्र होता है जिसमें मोटे डंडे पर एक तार दो सिरों के बीच कसा होता है तथा इसके एक सिरे पर तार को कसने के लिए गुठली बंधी होती है और दूसरे सिरे पर एक खोखला नुमा बर्तन। इसे उंगलियों से बजाया जाता है।
9. घाटम:
घाटम मिट्टी का बना एक बर्तन होता है। इसका सबसे ज्यादा प्रयोग दक्षिण भारत के सांस्कृतिक संगीत में होता है। इसे हाथ की थाप मारकर बजाया जाता है।
10. दोतार:
यह लकड़ी की आसान बनावट का एक ऐसा वाद्य यंत्र होता है जो किसी न किसी रूप में भारत के हर हिस्से के लोक संगीत में पुराने समय से ही शामिल रहा है।
11. तबला:
इस वाद्य यंत्र का प्रयोग शास्त्रीय संगीत से लेकर हर तरह के संगीत में किया जाता है। महाराष्ट में भोज की गुफाओं में 200 ई. पू. की मूर्तियों में महिलाएं तबला बजाते और नृत्य करते हुए अंकित की गयी हैं।
(लेखिका स्वतंत्र स्तंभकार हैं)
✍🏻साभार भारतीय धरोहर
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