वरिष्ठ पत्रकार रमण रावल
तमाम नकारात्मक, निराशाजनक, विपरीत और विरोधाभासी खबरों में बीच सीना फुलाकर घूमने वाली, गर्व से झूम उठने वाली खबर की भी हमने अनदेखी कर दी। भारत दुनिया का पहला ऐसा देश है जिसने कोरोना वायरस के सीधे इलाज के तौर पर दवा प्रस्तुत कर दी है। डी आर डी ओ ने रेड्डी लैब के साथ मिलकर 2 डीजी पाउडर तैयार कर प्रयोग के तौर पर चुनिंदा अस्पतालों को दे भी दी है। भारत की इस उल्लेखनीय उपलब्धि की अनदेखी कर एक तबका अभी भी लाशों और सरकार की तात्कालिक गफलत का ही राग आलाप रहा है।
कोरोना के दूसरे दौर ने जो सितम भारत पर ढाए है, उसका दर्द आसानी से नहीं मिटेगा और जख्म से मवाद भी लंबे समय तक रिश्ता रहेगा। अस्पतालों के बाहर सड़क पर,ऑटो रिक्शा, कार, ठेले पर लेटे मरीज। ऑक्सीजन, वेंटिलेटर, इंजेक्शन, दवाओं की कमी से होती मौतें भुलाए नहीं भूलती। एक जगह हालात संभालने के शुभ समाचार मिलते हैं तो दूसरी जगह से रुदन कानों को झंकृत कर देता है। फिर, गंगा जैसी पवित्र नदी के किनारों पर कर दी गई अंत्येष्टि और लाशों को आधे अधूरे तरीके से वहीं गाढ़ देने या गंगा में बहा देने जैसे दृश्य बेहद विचलित करते हैं। यहीं से कुछ अंगुलियों कहीं उठती है तो कहीं आक्रोश, विरोध भी फूटता है। यह उचित ही है। फिर भी क्या हमें सुबह,शाम इन्हीं लाशों का हिसाब चाहिए या ऐसा कुछ भी अब किसी कीमत पर न हो,इसका भरोसा चाहिए? क्या हम इस महामारी के दुनिया में हुए दुष्प्रभावों को पूरी तरह अनदेखा कर हमारे लिए कोई ऐसा तिलस्मी उपाय चाहते है,जहां छड़ी घुमाते ही सब अनुकूल,मनमाफिक,सुकूनदेह हो जाए? सारी गड़बड़ यही है।
मैं फिर दोहराना चाहूंगा कि कुछ गड़बड़ियां भारत सरकार से हुई है और इसमें भारतीय जनता ने भी पर्याप्त आहुतियां डाली हैं। वजह मनुष्य स्वभाव ही है कि सरकार भी किसी को कब तक रोके, टोके और जनता भी कब तक घरों में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। इन्हीं मिलेजुले कारणों से दूसरी लहर के आने पर कोरोना संक्रमण को चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ने का सुनहरा मौका मिल गया। हां,सरकार को सख्ती करना थी,जनता कितनी ही लापरवाह रहे। जो दूसरी चूकें सरकार की रहीं वे टीकों के तेज गति से उत्पादन की व्यवस्था नहीं कर पाना। टीकों की खरीदी राज्यों पर छोड़ना या खुद खरीदकर राज्यों को देने न देने की दुविधा में रहना। विदेशी टीकों की समुचित मात्रा में ससमय खरीदी न करना। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री का 15 अप्रैल के बाद भी चुनावी सभाओं में व्यस्त रहना। वे चाहते तो इसे टाल सकते थे,लेकिन वे राजनीतिक तकाजे थे और उनमें शरीक होकर भी संक्रमण की रोकथाम के लिए और भी तेज प्रयास किए जा सकते थे। तब शायद चुनावी दौरों की उतनी आलोचना नहीं होती। बहरहाल।
बावजूद इसके कि एक भी मौत या इलाज के लिए हुई परेशानी को कम नहीं आंक सकते, हमें दुनिया के परिदृश्य पर भी नजर डाल लेना चाहिए। क्या आपको मालूम है कि इस समय भी अमेरिका में सक्रिय मरीज 63 लाख 57 हजार हैं? वह भी तब जब उसने 33 करोड़ की आबादी में से 27.7 करोड़ को टीका लगा दिया है। इनमें से 15.92 करोड़ को एक डोज और 12.5 करोड़ को दोनों डोज लगाए हैं। भारत में दूसरी लहर के कहर के बावजूद सक्रिय मरीज केवल 37 लाख ही हैं।वहीं ब्राज़ील में 10.56 लाख, फ्रांस में 6.98 लाख और रूस में 2.68 लाख मरीज है। भारत में 20 मई तक कुल 18.6 करोड़ टीके लगाए गए हैं, जिनमें से 4.22 करोड़ को टीके के दोनों डोज लग चुके हैं। इस समय औसत 20 लाख टीके प्रतिदिन लगाए जा रहे हैं, जो थोड़े कम हो सकते हैं,निराशाजनक नहीं। आप इनकी गिनती आबादी के मद्देनजर करेंगे तो कम लगेंगे, लेकिन टीकों की गिनती के लिहाज से देखेंगे तो कतई निराश नहीं होंगे। हमने दुनिया में सबसे तेज़ 16 करोड़ टीके लगाए हैं और अगर रफ्तार धीमी हुई है तो इसके लिए कच्चे माल की कमी कारण रही, जो दूर कर ली गई है। अभी हम प्रतिमाह 6 करोड़ टीकों का उत्पादन कर रहे हैं, जो जुलाई में 16 करोड़ तक हो जाएगा। याने डेढ़ माह बाद फिर से हम संतोषजनक स्थिति में होंगे। क्या तब तक हम धैर्य,एहतियात नहीं बरत सकते? याने कुछ ताला बंदी,कुछ राहत,कुछ परस्पर दूरी, कुछ गैर जरूरी भीड़भाड़ से बचाव और कुछ अपने आप को जिम्मेदार बनाने की कोशिश।
कोरोना से हो रही मौतों को लेकर भी बेवजह हौव्वा खड़ा किया जा रहा है। अभी तक अमेरिका में 6 लाख, भारत में 2.90 लाख, ब्राज़ील में 4.37 लाख, फ्रांस में 1.08 लाख, रूस में 1.16 लाख, ब्रिटेन में 1.27 लाख,इटली में 1.24 लाख, स्पेन में 80 हजार मौतें हुई है। भारत को छोड़ इनकी कुल आबादी होती है 92.64 करोड़, जहां मौतें हुई हैं 15.92 लाख। इनकी तुलना में भारत की आबादी 139 करोड़ में से मौतें हुई है 2.80 लाख। इसे दुगनी 6 लाख भी कर लें तो तो उन तमाम विकसित, समृद्ध, शक्तिशाली देशों के मुकाबले हम कितने सुरक्षित रहे हैं, आप खुद तय कर लीजिए। यदि आनुपातिक तौर पर देखें तो उन सात देशों की आबादी हमारे बराबर 139 करोड़ करें तो उन देशों की मृतक संख्या 25 लाख हो जाएगी। याने हम अपनी मृतक संख्या दुगनी करने के बाद भी उनसे फिर भी चार गुना कम ही होंगे। ऐसा तब है,जब हमारे अपने लोगों की गैर जिम्मेदारी का अभी भी कोई अंत नहीं है । लोग अभी भी टीके नहीं लगा रहे हैं। टीकाकरण वालों को भगा देते है। मेलजोल, शादी, समारोह, मैय्यत, खरीदारी की हड़बोम से बाज नहीं आ रहे।
हर लिहाज से असामयिक मौत किसी की भी हो पीड़ादायक होती है।स्वाभाविक मौत भी विचलित करती है, चाहे मृतक सौ साल का भी क्यों न हो।ऐसे में जब किसी बीमारी, दुर्घटना या लापरवाही के चलते किसी की जान जाती है तो वह बेहद मर्मांतक है। महामारी के दुष्परिणामों को हमें इससे अलग रखना चाहिए। महामारी की प्रकृति भिन्न होती है, सूचना देकर नहीं आती, क्या कहर बरपाएगी, यह सुनिश्चित नहीं होता। महामारी में होने वाली जनहानि के लिए हम एकतरफा किसी पर दोष मढ़ दें तो कोई आपको रोकेगा तो नहीं,लेकिन यह न्यायसंगत नहीं कहलायेगा।
वरिष्ठ पत्रकार रमण रावल
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