अनंत मित्तल।
धौलीगंगा में हिमनद की झील फूटने से प्रचंड बाढ़ आने जैसे खौफनाक मंजर का उत्तराखंड में यों तो एक हजार साल पुराना भूगर्भीय प्रमाण है मगर सन 1894 में अलकनंदा की बाढ़ से उसका लिखित सबूत भी उपलब्ध है. उसके बाद से हिमालय की अलकनंदा और भागीरथी घाटियों में रौ फूटने से आए सैलाब से नींद में ही लोगों के बह कर मरने तथा गांव उजड़ने के छोटे-बड़े सैकड़ों हादसे हो चुके. इनमें उल्लेखनीय मामले 26 अगस्त 1894, 20 जुलाई,1970 एवं 16 जून, 2013 तथा सात जनवरी 2020 के हैं. बीते रविवार को धौलीगंगा में अचानक आई बाढ़ की तरह ही 16 जून 2013 को केदारनाथ मंदिर के ऊपर मंदाकिनी नदी के हिमनद यानी ग्लेशियर सिकुड़ने से बनी झील फूटने से प्रचंड बाढ़ आई थी. केदारनाथ में मंदाकिनी की बाढ़ को तीन दिन मूसलाधार बारिश ने ऐसी आपदा बनाया जिसमें 4000 से ज्यादा लोग मारे अथवा लापता हो गए, 2232 मकान नष्ट हुए, 1520 सड़क टूट गईं और पहाड़ों की जीवनरेखा 170 पुल बह गए थे.
वैसी भीषण तबाही तो गढ़वाल क्षेत्र ने जुलाई,1894 में अलकनंदा नदी में आई बाढ़ में भी नहीं देखी थी. तब 23 सितंबर,1893 को अलकनंदा की सहायक नदी बिरही गंगा में पहाड़ टूटने से करीब 50000 टन मिट्टी और पत्थरों के समा जाने से बांध बन गया था. नदी किनारे खड़े 900 मीटर उंचे पहाड़ से टूट कर गिरे मलबे से बिरही गंगा में 2700 मीटर ऊंची, आधार में तीन किमी चाड़ी तथा सतह पर 600 मीटर चौड़ी झील बन गई. वैज्ञानिकों के अनुमान के मुताबिक 25 अगस्त 1894 को बांध ढहने से जो बाढ़ आई तो 26 अगस्त की सुबह तक जारी रही. बाढ़ के कारण श्रीनगर के आसपास मकानों- खेतों को भारी तबाही झेलनी पड़ी. हरिद्वार तक पहुंची बाढ़ के पूर्वानुमान से जनहानि घटाने में सफलता मिली. अंग्रेज सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर पुलफोर्ड एवं गढ़वाल के जिला सर्वेयर पंडित हरिकृष्ण पंत सहित उनके दल ने बाढ़ग्रस्त होने वाले क्षेत्र का अनुमान लगा कर बिरही गंगा से हरिद्वार तक नया टेलीग्राफ नेटवर्क तैयार कराया. उससे अलकनंदा की निगरानी सूचना का जल्दी एवं सही आदान प्रदान हो पाया.
धौलीगंगा हादसे में भी करीब 200 लोगों की मौत या लापता होने का कयास लग रहा है. केदारनाथ आपदा के बाद कथित विकास के लिए सरकारी रूख और अधीर हुआ है. उत्तराखंड में जनविज्ञान संस्थान के निदेशक रवि चोपड़ा के अनुसार सरकार को 2012 में ही अलकनंदा एवं भागीरथी की घाटियों में बांध बनाने पर रोक लगाने की सलाह दे दी गई थी. उनका दावा है कि वह समूह सरकार द्वारा गठित था जिसमें वह भी शामिल थे. समूह की सलाह में ऋषिगंगा पनबिजली परियोजना भी शामिल थी. उसके बाद केदारनाथ आपदा के बावजूद पनबिजली परियोजनाओं का निर्माण जारी है. अनुमान है कि केदारनाथ हादसे से पहले भी साल 2000 से 2012 के बीच महज 12 साल में 11200 किमी लंबी सड़क पहाड़ों में बनीं. तब तक पहाड़ों की तलहटी में 45 पनबिजली परियोजना चालू थीं एवं 199 परियोजनाएं निर्माणाधीन. इन सबकी धमक भी पहाड़ों को कमजोर करती है.
उत्तराखंड की नदी घाटियों में प्रचंड बाढ़ के 1894 से पहले हुए हादसों के भूगर्भीय सबूत दुर्लभ हैं मगर वैज्ञानिकों के अनुसार श्रीनगर, भैंसवाड़ा एवं देवप्रयाग के पास अलकनंदा घाटी में प्रचंड बाढ़ के 1000 साल पुराने लक्षण मिले हैं.
करंट साइंस पत्रिका में उद्धृत वासन के अनुसार पिछले 600 साल में अलकनंदा के जल ग्रहण क्षेत्र में पहाड़ों के मलबे से कुदरती झील बनने एवं उसके फटने से बाढ़ आने के अनेक लक्षण मिले हैं मगर 1970 का हादसा अधिक घातक था. हालांकि 2013 की केदारनाथ आपदा की प्रचंडता उत्तराखंड में बाढ़ के सभी रिकार्ड तोड़ चुकी. केदारनाथ आपदा से राज्य में पर्यटन उद्योग को 12000 करोड़ रूपए का घाटा हुआ क्योंकि उसके बाद दो साल लोगों ने डर के मारे चार धाम यात्रा का मामूली संख्या में रूख किया. साल 2020 में भी कोविड-19 महामारी के कारण महज तीन लाख यात्री चार धाम यात्रा पर गए जबकि साल 2010 में 33 लाख से अधिक लोगों ने चार धाम यात्रा की थी.
महामारी से घर में बंद मनुष्यों एवं उनकी मशीनों का दखल घटने का नतीजा शहरी घरों में गौरैया की वापसी, हरिद्वार में हरकी पैड़ी पर गजराज के उधम तथा सहारनपुर एवं जालंधर से हिमालय की सुनहली चोटियां साफ दिखाई देने जैसे कुदरती शगुनों के रूप में सामने भी आया. इक्कीसवीं सदी में गर्मी बढ़ने से पहाड़ों में बादल फटने तथा पहाड़ों से भारी मात्रा में मलबा नदियों में गिरने से प्रचंड बाढ़ के हादसे और बढ़े हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार पहाड़ों से मलबा गिरने का अनुपात अब ज्वालामुखी फटने से निकलने वाले मलबे के बाद सबसे अधिक मात्रा में आंका जा रहा है.
हिमालय को वैसे भी अभी युवा और कच्चा पहाड़ ही माना जाता है जिसे भारत की मैदानी सतह लगातार धकेल रही है. इसी वजह से अलकनंदा एवं भागीरथी घाटियों में बादल फटने,, भूस्खलन एवं बाढ़ के हादसे बढ़े हैं. उत्तराखंड से सटे नेपाल में भी हिमालय की तलहटी में ऐसी घटना बढ़ रही हैं.
कोशी नदी के रास्ते में नेपाल में पहाड़ टूट कर गिरने से हिमनदों के दरकने अथवा नदी की राह रोक लेने पर बाढ़ आती रहती है. अलकनंदा घाटी में 20 जुलाई 1970 की रात में पहाड़ों पर चमोली एवं जोषीमठ के बीच बादल फटने से हजारों टन मलबा अलकनंदा नदी में गिरने से हरिद्वार तक गंगा में जबरदस्त बाढ़ आई. बाढ़ में इतना मलबा बह कर आया कि उससे 1894 में बनी गहना झील का बचा खुचा अस्तित्व भी मिट गया.
पीपलकोटी एवं हेलोंग के बीच बेलाकुची नामक बस्ती तथा 30 बस एवं 13 पुल भी बहे थे. हरिद्वार में गंगनहर में 10 किमी तक रेत, मलबे एवं टूटे हुए पेड़ों के चट्टे लग गए जिसे साफ करने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी. उसमें भी अलकनंदा ने सबसे ज्यादा नुक्सान श्रीनगर का किया जिसमें निचला श्रीनगर तो खत्म ही हो गया था. उसी के बाद पेड़ काटने के विरोध में धौली गंगा के ऊपर बसे गांव, रैणी से चिपको आंदोलन शुरू हुआ.जंगलों की कटाई से साल 1970 की बाढ़ के बाद पहाड़ों में अंधाधुंध पर्यटन, वाहनों, हेलीकाॅप्टरों तथा मनुष्यों का बड़ी संख्या में आवागमन एवं पनबिजली परियोजनाओं के लिए पहाड़ों को बारूद से उड़ाने से पोली हुई चट्टानों के भारी तादाद में खिसकने एवं बादल फटने से आई केदारनाथ आपदा में जून 2013 के विनाशकारी प्रचंडतम सैलाब में भुगत चुके. केदारनाथ घाटी में मंदाकिनी नदी का हिमनद फटने से टूटा कुदरत का उतना व्यापक कहर आजादी के बाद भारतवासियों ने कम ही देखा है. केदारनाथ आपदा के रौद्र रूप को याद करके लोगों की रूह कांप तो अब भी जाती है. उसमें जानमाल का नुक्सान उठाने वालों के लिए तो केदारनाथ आपदा आजीवन राक्षसी सपना है. अफसोस यह कि उसके बावजूद उत्तराखंड की विभिन्न नदी घाटियों के पर्यावरण से मनुष्य के सकारथ तालमेल की कोई भी योजना पिछले आठ साल में नहीं बनी. अब भी वही बेशुमार सैलानी हैं, वही पहाड़ तोड़ती बारूदी छड़ें, बुलडोजर और पहाड़ों में आरपार सुरंग काटने वाली बोरिंग मशीन हैं, वही होटल, मकान, चौड़ी होती सड़क और धड़धड़ाती पनबिजली परियोजना बनाने वाले ठेकेदार तथा मुनाफा कमाने को आतुर वही पर्यटन एजंसियां और उनके प्रदूषण फैलाते तेज रफ्तार वाहनों के रेले हैं. इन सबके कंपन को हिमालय की पोली चोटियां बरदाश्त नहीं कर सकतीं.
भूटान से अफगानिस्तान के बीच भारत सहित हिमालयी क्षेत्र में 15000 हिमनद हैं. गर्मी बढ़ने से एक दशक में यह हिमनद 100 से 200 फुट की दर से सिकुड़ रहे हैं. उनके पिघलने से बचा जल हजारों झीलों में तब्दील हो गया जिनके किनारों पर बर्फ अथवा मिट्टी-पत्थरों के कुदरती बंद बने हैं. इनको जरा सा झटका लगने अथवा इनके छलकने से बंद टूटने पर प्रचंड बाढ़ आ रही है जिसमें जानमाल का भारी नुक्सान होता है. अंतर सरकारी समूह अंतरराष्ट्रीय एकीकृत पर्वत विकास केंद्र के अनुसार हिमनदों से बनी हजारों झील भारत सहित नेपाल, भूटान एवं पाकिस्तान की आबादियों के लिए बेहद खतरनाक हैं. मनुष्य एवं मशीनों के विकट दखल से पीड़ित पहाड़ों के आंसू कभी उनके मलबे तो कभी उन पर जमे हिमनदों की बर्फ और उनमें संचित जल के सैलाब के रूप में आ टपकते हैं. रवि चोपड़ा के अनुसार वे 20014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित वैज्ञानिकों की उस समिति में भी थे जिसने परा हिमनद क्षेत्र यानी 7000 फुट से अधिक उंचाई वाले घाटी क्षेत्र में बांध नहीं बनाने की भी सिफारिश की थी. सुप्रीम कोर्ट को नजरअंदाज करके सरकार ने विष्णुगाड़ एवं ऋषिगंगा पनबिजली परियोजनाओं को बनने दिया जो 7000 फुट से ऊपर वाले क्षेत्र में हैं.
क्या उत्तराखंड की निर्वाचित सरकार यह भी भूल गई कि धौली गंगा के मुहाने पर बसे उसी रैणी गांव से जंगल बचाने का विश्वप्रसिद्ध ‘चिपको आंदोलन’ शुरू हुआ था जिसके निवासियों ने सात जनवरी की प्रचंड बाढ़ में जानमाल का नुक्सान उठाया है. चिपको आंदोलन से प्रेरित होकर ही बस्तर के आदिवासियों ने अपने पेड़ों से लिपट कर उस दानवी बोधघाट पनबिजली परियोजना को 19900 के दशक में रद्द करवाया था जिसमें उनके अनेक पीढ़ी पुराने घर, उनके हमजोली पेड़ और सदियों पुरानी उनकी संस्कृति भी डूब जाने वाली थी. चिपको आंदोलन की तरह केरल के आदिवासियों ने अपने पेड़ों का प्यार से आलिंगन करके उस साइलेंट वैली के बहुमूल्य पर्यावास को बचाया था जिसकी जैव विविधता पूरे विश्व में दुर्लभ है. धौली गंगा की प्रचंड बाढ़ में जिन विष्णुगाड़ एवं ऋषिगंगा पनबिजली परियोजनाओं की कंक्रीट की दीवारें तथा पाये नष्ट हुए हैं उन्हें रद्द करवाने के लिए स्वामी सानंद अर्थात प्रोफेसर गुरूदत्त अग्रवाल ने महात्मा गांधी के सत्याग्रही उपवास के जरिए 11 अक्टूबर,2018 को अपना जीवन बलिदान कर दिया था. उसके बावजूद सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी. तो क्या अब उन परियोजनाओं को अपनी प्रचंड बाढ़ में बहाने को आतुर दिखी धौली गंगा के गुस्से को उनके बलिदान का कुदरती इंसाफ माना जाए.
ताज्जुब है कि पहाडी बाशिंदों ही नहीं मैदानी सैलानियों को भी वनों, नदियों, घाटियों आदि के प्राकृतिक रूप में संरक्षण के लिए प्रचुरता में उपलब्ध प्रचार साधनों एवं सबसे लोकप्रिय व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के जरिए समझाने के बजाए हमारी सरकार उपभोग को बढ़ा रही हैं. क्या धौली गंगा में प्रचंड बाढ़ के बाद इन बेहद संवेदनशील घाटियों में चौड़ी सड़क बनाने और नदी के चलते पानी को टिहरी की तरह बांध में रोक कर अथवा उसके बहाव पर ही पानी को सुरंग से गुजार कर विशाल पनबिजली परियोजना बनाने के खटराग पर सरकार पुनर्विचार करेगी. क्या जलवायु परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय समिति की इन घाटियों में हिम-भूस्खलन, बादल फटने और प्रचंड बाढ़ के हादसे और तेज होने की चेतावनी पर उपयुक्त सुरक्षात्मक उपायों के बजाए हमारी निर्वाचित सरकारें उपभोग की हवस में ऐसे ही धृतराष्ट्र बनी रहेंगी.
अनंत मित्तल (वरिष्ठ पत्रकार)
(साभार- hindi.news18.com)
Comments are closed.