
‘यह आना-जाना तो लगा रहता है, आसमां के घर कौन सगा रहता है
कहां कौन लिख कर देता है पर्चियां, हर एक के पहलू में दगा रहता है’
तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी यूं तो जाहिरा तौर पर विपक्षी एका की नई सिरमौर बनने की मशक्कत में जुटी हैं, पर लगता है कि उनके अपने घर को ही दुश्मनों की नज़र लग गई है। दल-बदल की चैंपियन धरती गोवा की ही मिसाल ले लीजिए, लुईजिन्हो फ्लेरियो जो गोवा चुनाव से ऐन पहले टीएमसी में आए, विधानसभा का चुनाव भी नहीं लड़े, सीधे राज्यसभा की ठौर पकड़ ली, इनसे इन दिनों ममता बेहद नाराज़ बताई जाती हैं। गोवा के पूर्व सीएम रह चुके फ्लेरियो ने विधानसभा के सात चुनाव जीते हैं, बावजूद इसके ममता ने उन्हें टीएमसी के गोवा के कोर कमेटी में जगह नहीं दी। ममता को शायद इस बात का इल्म हो चुका है कि फ्लेरियो इन दिनों अपनी ख्वाहिशों पर भगवा रंग चढ़ा रहे हैं, सो राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनावों में उन्होंने टीएमसी से इतर एनडीए लाइन का समर्थन किया, इनके वोट द्रौपदी मुर्मू और जगदीप धनखड़ के समर्थन में गए। ममता को सूचना मिल गई है कि फ्लेरियो बहुत जल्द भाजपा के पाले में जा सकते हैं। सूत्र खुलासा करते हैं कि इसकी एक बड़ी वजह है, फ्लेरियो परिवार का एक बड़ा और आलीशान रिसार्ट कोस्टल क्षेत्र में है, जो कानूनी परिभाषा में अब भी अवैध दर्जे में आता है, सरकार चाहे तो इसे कानूनी परिभाषा के अंतर्गत ला सकती है पर यह प्रक्रिया बेहद जटिल और लंबी है, इसे वैध करने की प्रक्रिया में तीन साल तक का समय लग सकता है। गोवा में भाजपा की सरकार बने अभी छह महीने भी नहीं गुजरे हैं, कांग्रेस के 8 विधायक पहले ही टूट कर भाजपा के पाले में आ चुके हैं, विपक्ष के नाम पर गोवा में एक बड़ा शून्य रह गया है, सो फ्लेरियो अब किसी किस्म का रिस्क नहीं लेना चाहते।
क्या सुष्मिता भी चलेंगी फ्लेरियो की राह
कांग्रेस छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुई असम के एक बड़े राजनैतिक परिवार से ताल्लुक रखने वाली सुष्मिता देव ने भी क्या टीएमसी छोड़ने का मन बना लिया है? दरअसल, सुष्मिता अपने राजनैतिक भविष्य को लेकर चिंता में हैं, जब उन्होंने कांग्रेस छोड़ी थी तो वह राहुल गांधी की कोर टीम की एक अहम सदस्य में शुमार होती थी। सुष्मिता को उम्मीद थी कि ममता कम से कम उन्हें राज्यसभा तो अवश्य दे देंगी। पर ऐसा संभव न हो पाया, सुष्मिता की उम्मीदों को पलीता लग गया। सुष्मिता को इस बात का भी बखूबी इल्म है कि असम में टीएमसी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीतना किसी टेढ़ी खीर से कम नहीं। सो, उन्होंने अभी से संभावनाओं के नए द्वार की पड़ताल शुरू कर दी है, हद तो तब हो गई जब पिछले दिनों गुवाहाटी में टीएमसी के कोर ग्रुप की मीटिंग चल रही थी और सुष्मिता उस मीटिंग में षामिल होने के बजाए असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा से मिलने पहुंच गई। इस पर जब दीदी ने उनकी क्लास लगाई तो सुष्मिता ने बेहद भोलेपन से जवाब देते हुए कहा-’मैं तो सीएम से यह बात करने गई थी कि राज्य में हमारी पार्टी के लोगों पर इतने जुल्म क्यों हो रहे हैं?’ दीदी से भी आगे कुछ बोलते नहीं बना।
नीतीश के लिए क्या सोचते हैं तेजस्वी
पिछले दिनों बिहार के उप मुख्यमंत्री और राजद नेता तेजस्वी यादव ने अपने घर एक चाय पार्टी रखी और इस चाय पार्टी में अपनी पार्टी के वैसे वरिष्ठ नेताओं को आमंत्रित किया जो अपनी वरिष्ठता के बावजूद बिहार की नई गठबंधन सरकार में जगह नहीं पा सके। तेजस्वी इन नेताओं के साथ अपने मन की बात साझा कर रहे थे कि अचानक मुंगेर से आए एक सीनियर राजद नेता ने तेजस्वी से सवाल किया-’आपने नीतीश कुमार को दोबारा मुख्यमंत्री बनवा दिया जबकि उनका वोट प्रतिशत हमारी पार्टी के आगे बौना ही है, मात्र 10-12 प्रतिशत, और हमारे बूते ही वे 2024 में देष का पीएम बनने का सपना देख रहे हैं। और बदले में आपको क्या मिला है सिर्फ डिप्टी सीएम का पद?’ तेजस्वी ने उस नेता की बातों को ध्यानपूर्वक सुना और धैर्यपूर्वक उनकी बातों का जवाब देते हुए कहा-’आप उम्र और अनुभव दोनों में मुझसे सीनियर हैं, आज जरा समझिए कि बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं। 2024 में 4-6 सीटों पर कांग्रेस और लेफ्ट लड़ेंगे। बाकी बची 34 सीटों में से राजद और जदयू के हिस्से 17-17 सीटें आएंगी, हमारा लक्ष्य है कि इस बार हमें ये सभी 17 सीटें जीतनी है, दम लगा कर। अब यह नीतीश जी के ऊपर है कि वे अपने हिस्से की 17 में से कितनी सीटें जीत पाते हैं, राजनैतिक पर्यवेक्षक बताते हैं कि नीतीश जी की 12 सीटें आ सकती है, तो क्या 12 सीट लेकर कोई प्रधानमंत्री पद का गंभीर उम्मीदवार हो सकता है, यह दिल्ली के मीडिया को भी समझना होगा।’
कौन है अपराजिता सारंगी?
ओडिशा से भाजपा की सांसद अपराजिता सारंगी बिहार से ताल्लुक रखने वाली एक पूर्व आईएस अफसर हैं, माना जाता है कि अपराजिता को धर्मेंद्र प्रधान ही भाजपा में लेकर आए थे। सारंगी 1994 बैच की ओडिशा कैडर की आईएएस अफसर है जो 15 सितंबर 2018 को सेवा निवृत्ति लेकर भाजपा में शामिल हुईं। समझा जाता है कि इस नेत्री की दिली इच्छा है कि भाजपा ओडिशा के आने वाले विधानसभा चुनाव में इन्हें सीएम फेस के तौर पर प्रोजेक्ट करे। जबकि इस लाइन में पहले से धर्मेंद्र प्रधान और जय पांडा भी लगे हैं। पिछले दिनों जब अमित शाह ओडिशा दौरे पर भुवनेश्वर पहुंचे तो वहां का भगवा नज़ारा कुछ बदला-बदला सा था, पूरे भुवनेश्वर में बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगे थे, जिस पर पीएम के साथ अपराजिता सारंगी विद्यमान थीं, बैनर-पोस्टर तक में प्रधान की तस्वीर बेहद छोटी हो गई थी। सो, जब पार्टी में इसको लेकर बवाल मचा तो सारंगी ने भी अपने पैंतरे बदल लिए। आम आदमी पार्टी से जुड़े बेहद विश्वसनीय सूत्रों का दावा है कि पिछले दिनों सारंगी की मुलाकात आप के कई बड़े नेताओं से हुई, सारंगी चाहती थीं कि ’अगर आप इन्हें ओडिशा में अपना सीएम फेस घोषित करे तो वह भाजपा छोड़ आप में आने को तैयार है।’ वहीं आप के इस बड़े नेता ने कथित तौर पर सारंगी से कहा कि ’अभी पार्टी का फोकस गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान है, जब ओडिशा का नंबर आएगा तब उनसे संपर्क किया जाएगा।’ वैसे भी गुजरात के नतीजे आने के बाद ही पार्टी तय करेगी कि और किन राज्यों में पार्टी का विस्तार होना है।
हेमंत सोरेन को अभयदान कब तक?
क्या हेमंत सोरेन अपने को देश के एक आदिवासी नेता के तौर पर स्थापित करने में सफल हो गए हैं? उनके मंत्रिमंडल के कई हालिया बड़े फैसले इस बात की चुगली खाते हैं। सोरेन जनता के बीच बहुत हद तक यह नैरेटिव बनाने में भी कामयाब रहे हैं कि देश को एक आदिवासी राष्ट्रपति देने के बाद भाजपा एक आदिवासी सीएम को गद्दी से उतारने के षडयंत्रों में डूबी है। अब इसे सोरेन का मैनेजमेंट कहें या उनकी सफल रणनीति कि इन दिनों भाजपा झारखंड में अपने सबसे कमजोर पिच पर है, न ही उनके पास झारखंड में कोई इतनी माकूल नीति है और न ही कोई बड़ा नेता। शायद सोरेन को भी इन्हीं परिस्थितियों का सहारा मिला हुआ है कि भाजपा चाह कर भी उनकी सरकार को अभी गिरा नहीं पा रही है। क्योंकि झारखंड का असर गुजरात के चुनावों पर भी पड़ सकता है, जहां आबादी के हिसाब से 14.9 प्रतिशत आदिवासी वोटर हैं। साथ ही छत्तीसगढ़ और ओडिशा में भी आदिवासी वोटरों की एक बड़ी तादाद है। यही वजह है कि सोरेन सरकार को फिलवक्त झारखंड में अभयदान मिला हुआ है।
राहुल का असली निशाना क्या है
अपनी ’भारत जोड़ो यात्रा’ की प्रारंभिक सफलताओं से राहुल और कांग्रेस गद्गद् है। राहुल की यह यात्रा 2024 में कांग्रेस के सीटों की गिनती को भी एक भरपूर उछाल देने की मंशा लिए है। 24 के चुनाव को मद्देनज़र रखते राहुल की ’भारत जोड़ो यात्रा’ उन्हीं राज्यों से गुजर रही है जहां कांग्रेस को अपने लिए कुछ उम्मीद की किरण दिख रही है, जहां उनका कैडर है, नेता है, उम्मीद है। जहां उम्मीद नहीं है, जैसे यूपी वहां यात्रा 5 दिनों में ही सिमटा दी गई है। उन राज्यों को भी छोड़ दिया गया है जहां कांग्रेस अपने सहयोगियों के भरोसे है, जैसे तमिलनाडु, जहां कांग्रेस की यात्रा सिर्फ 3 दिन चली, कन्याकुमारी से यात्रा का आगाज़ हुआ और तीसरे ही दिन यह यात्रा केरल पहुंच गई, क्योंकि तमिलनाडु में कांग्रेस की राजनीति इस वक्त डीएमके के भरोसे है। केरल जैसे छोटे राज्य में राहुल की यात्रा 19 दिन चलनी है और कर्नाटक में 21 दिन। तेलांगना में 13 दिन। यानी 148 दिनों की यात्रा में राहुल सिर्फ दक्षिण के उन 3 राज्यों में 53 दिन बिता रहे हैं। उसी तरह अगले साल राजस्थान और मध्य प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने हैं, यहां कांग्रेस अपना पिछला प्रदर्शन बरकरार रखना चाहती है। राजस्थान में राहुल की यात्रा 21 दिनों की और मध्य प्रदेश में 16 दिन की है। पंजाब में 11 दिन की और हरियाणा में 12 दिन की है। वहीं दिल्ली में महज़ 2 दिन में यात्रा सिमट जाएगी। 2019 के लोकसभा चुनाव में 29 ऐसी सीटें थी जहां भाजपा ने मामूली अंतर से कांग्रेस को हरा दिया था, 57 सीटें ऐसी है जहां कांग्रेस से भाजपा की जीत का अंतर एक लाख से कम रहा है। सो, इन 86 लोकसभा सीटों पर इस बार कांग्रेस अपना पूरा जोर लगाना चाहती है और 2019 की अपनी सीटों को कम से कम दोगुना करना चाहती है।
…और अंत में
हाल में संपन्न हुए संघ के रायपुर अधिवेशन में जिसमें शामिल होने के लिए भाजपाध्यक्ष जेपी नड्डा और संगठन महासचिव बीएल संतोष खास तौर पर रायपुर पधारे थे, वहां संघ और भाजपा के रिश्तों के दरम्यान एक तल्खी दिखी। संघ का मानना है कि पिछले कुछ वर्षों में भाजपा का अपेक्षित राजनैतिक विस्तार हुआ है, पर इसकी तुलना में संघ अपने संगठन को वांछित विस्तार नहीं दे पाया है। संघ भाजपा से इसीलिए भी नाराज़ बताया जाता है कि कर्नाटक के सीएम बदलने की प्रक्रिया में संघ को शामिल नहीं किया गया था, जहां आज भाजपा का विस्तार संघ की प्रयासों की वजह से हुआ है। रायपुर की संघ की समन्वय बैठक से पहले जिस तरह से भाजपा प्रभारियों को बदला गया उसमें भी संघ की राय नहीं ली गई। सूत्र बताते हैं कि मोदी व शाह भाजपा के मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के कार्यकाल को 2024 तक विस्तार देना चाहते हैं, जबकि संघ केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी को भाजपा के नए अध्यक्ष के तौर पर पेश कर रहा है।
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