भारतीय समाज लिंग असमानता की एक लंबी विरासत से गुजरता रहा है। सदियों से महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखा गया, और इस असमानता को समाप्त करने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। महिला आयोग, यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून, दहेज निषेध अधिनियम, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे अभियान—सभी इस दिशा में मील का पत्थर साबित हुए हैं। लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक में यह प्रश्न धीरे-धीरे उभर रहा है: क्या आज पुरुषों के लिए भी एक समर्पित आयोग की आवश्यकता बन चुकी है? क्या लिंग न्याय केवल महिलाओं तक सीमित रहना चाहिए, या पुरुषों की समस्याओं को भी सुनने का समय आ गया है?
यह प्रश्न न केवल कानूनी और सामाजिक विमर्श को दिशा देने वाला है, बल्कि भारतीय समाज की बदलती संवेदनशीलता का प्रतिबिंब भी है।
पुरुषों की समस्याएं: मौन पीड़ा की परतें
पुरुषों की समस्याएं अक्सर शोर नहीं करतीं। वे आँसू नहीं बहाते, शिकायतें कम करते हैं और सामाजिक अपेक्षाओं के बोझ तले मुस्कुराते रहते हैं। लेकिन जब आँकड़ों पर नज़र डाली जाए, तो तस्वीर अलग दिखती है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, भारत में आत्महत्या करने वाले व्यक्तियों में लगभग 70% पुरुष होते हैं। इसके पीछे प्रमुख कारणों में वैवाहिक तनाव, बेरोजगारी, सामाजिक अपेक्षाएं और भावनात्मक दबाव शामिल हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार, महिलाओं की तुलना में शादीशुदा पुरुष अधिक आत्महत्या करते हैं. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में सुसाइड करने वाले हर 10 में से 7 पुरुष होते हैं. आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया गया कि साल 2021 में 1.64 लाख लोगों ने आत्महत्या की, इनमें से 81,063 लोग विवाहित पुरुष थे, जबकि 28,680 विवाहित महिलाएं थीं. वहीं 2022 में 1.70 लाख से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की थी, जिनमें से 1.22 लाख से ज्यादा पुरुष थे. यानी हर दिन औसतन 336 पुरुष आत्महत्या कर लेते हैं. इस हिसाब से हर साढ़े 4 मिनट में एक पुरुष सुसाइड कर रहा है.
इसके अतिरिक्त, कई मामलों में धारा 498A (दहेज प्रताड़ना) और घरेलू हिंसा अधिनियम का दुरुपयोग सामने आया है। अदालतों ने भी इस पर टिप्पणी की है कि कुछ मामले झूठे आरोपों से ग्रस्त होते हैं, जिनसे निर्दोष पुरुषों और उनके परिवारों को अपमान, कारावास और मानसिक आघात झेलना पड़ता है।
सामाजिक संरचना में बदलाव: भूमिकाएं बदल रहीं हैं
जहाँ एक ओर महिलाएं शिक्षा, रोजगार और नेतृत्व के क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, वहीं पुरुषों से अब भी पारंपरिक भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती है—कमाना, सुरक्षा देना, कठोर बने रहना। ऐसी स्थितियों में यदि वे भावनात्मक रूप से टूटते हैं, तो उनके लिए कोई मंच उपलब्ध नहीं होता।
पुरुषों की भावनात्मक उपेक्षा, उनकी चुनौतियों की उपहासपूर्ण अनदेखी, और कानूनी व्यवस्था में उनकी समस्याओं के प्रति उदासीनता—ये सभी ऐसे कारण हैं, जो ‘पुरुष आयोग’ की आवश्यकता को जन्म देते हैं।
क्या है ‘पुरुष आयोग’ की संकल्पना?
‘पुरुष आयोग’ एक ऐसा वैधानिक निकाय हो सकता है, जो पुरुषों से जुड़ी समस्याओं की पहचान, समाधान और संरक्षण में सक्रिय भूमिका निभाए। इसका कार्यक्षेत्र महिला आयोग की तर्ज पर निम्न बिंदुओं पर केंद्रित हो सकता है:
•कानूनी सहायता: झूठे आरोपों या वैवाहिक विवादों में फंसे पुरुषों को विधिक सलाह और सुरक्षा।
•परामर्श सेवाएं: मानसिक स्वास्थ्य, वैवाहिक तनाव, आत्महत्या की प्रवृत्तियों से निपटने के लिए काउंसलिंग।
•नीति सुझाव: केंद्र और राज्य सरकारों को पुरुष हितैषी नीति निर्माण में सुझाव देना।
•शिकायत निवारण: एक पारदर्शी और प्रभावी शिकायत समाधान प्रणाली।
•जागरूकता अभियान: समाज में पुरुषों की समस्याओं को मान्यता दिलाने हेतु संवाद और जागरूकता अभियान चलाना।
लिंग समानता बनाम लिंग न्याय: अंतर समझना जरूरी
यह सोचना कि पुरुष आयोग की स्थापना से महिला अधिकारों को कमजोर किया जाएगा, एक सीमित और सतही दृष्टिकोण है। लिंग समानता का अर्थ है कि सभी लिंगों को समान अवसर, सुरक्षा और न्याय मिले। परंतु लिंग न्याय (Gender Justice) उससे भी एक कदम आगे जाकर यह सुनिश्चित करता है कि समाज की हर इकाई की विशिष्ट समस्याओं का समाधान हो—चाहे वह महिला हो, पुरुष हो, या अन्य कोई लिंग।
वर्तमान समय में स्त्री सशक्तिकरण की गति के साथ यदि हम पुरुषों की चुनौतियों को अनदेखा करते हैं, तो यह न्याय की अवधारणा को अधूरा छोड़ देता है।
आपत्तियाँ और आलोचनाएँ: संतुलन की आवश्यकता
‘पुरुष आयोग’ की मांग पर कई बार यह आपत्ति उठाई जाती है कि इससे महिला विरोधी मानसिकता को बढ़ावा मिलेगा या कि इससे महिला सशक्तिकरण की दिशा में रुकावट आएगी। हालांकि, यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि इस आयोग की स्थापना का उद्देश्य किसी वर्ग के खिलाफ प्रतिक्रिया खड़ा करना नहीं, बल्कि पुरुषों की वास्तविक समस्याओं को नीतिगत स्तर पर संबोधित करना है।
यह आयोग तभी प्रभावी हो सकता है जब इसकी संरचना तथ्य आधारित, संवेदनशील और गैर-राजनीतिक हो। इसका उद्देश्य संतुलन हो—प्रतिस्पर्धा नहीं।
वैश्विक दृष्टिकोण: क्या दुनिया में ऐसे उदाहरण हैं?
पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामले केवल भारत की समस्या नहीं है. बल्कि दुनिया भर के कई देशों से ऐसे मामले सामने आ रहे हैं. किंगडम ऑफिस फॉर नेशनल स्टैटिस्टिक्स के डेटा (2022-2023) में सामने आया है कि घरेलू हिंसा के 3 पीड़ितों में से एक पुरुष है. इतना ही नहीं अमेरिका में लगभग 44% पुरुष पूरी जिंदगी में एक बार हिंसा का शिकार होते हैं. वहीं मेक्सिको में घरेलू हिंसा के कुल पीड़ितों में करीब 25 फीसदी पुरुष हैं. भूटान की बात करें तो यहां 2023 में रिपोर्ट किए गए 788 मामलों में से 69 में पुरुष पीड़ित शामिल थे.
कुछ देशों में लिंग तटस्थ कानून या पुरुषों के लिए परामर्श केंद्र मौजूद हैं। ब्रिटेन में “Men’s Advice Line” और अमेरिका में “National Coalition for Men” जैसे मंच पुरुषों की समस्याओं पर काम करते हैं। हालांकि इन देशों में पुरुष आयोग जैसी संस्था नहीं है, लेकिन भारत जैसे सामाजिक रूप से जटिल देश में एक विधिक निकाय की आवश्यकता और अधिक महसूस की जा सकती है।
सरकार की भूमिका और अब तक की पहल:
अब तक पुरुष आयोग के गठन को लेकर कोई ठोस पहल नहीं की गई है, हालांकि विभिन्न मंचों पर इसकी मांग उठती रही है। 2023 में लोकसभा में एक गैर-सरकारी बिल लाया गया था, जिसमें ‘पुरुष आयोग’ की स्थापना का सुझाव दिया गया, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पाया।
सरकार यदि इस विषय पर एक उच्चस्तरीय समिति गठित कर अध्ययन कराए, तो यह कदम समाज के एक बड़े वर्ग को न्याय दिलाने की दिशा में मील का पत्थर हो सकता है।
न्याय का भविष्य समावेशी होना चाहिए :
आज का भारत बदल रहा है—महिलाएं नेतृत्व कर रही हैं, युवा पीढ़ी संवेदनशील हो रही है और समाज संवाद को स्थान दे रहा है। इस बदलाव के बीच यदि हम पुरुषों की आवाज़ को एक मंच नहीं देते, तो यह सामाजिक न्याय की परिकल्पना को अधूरा छोड़ देगा।
पुरुष आयोग कोई विशेषाधिकार नहीं, बल्कि मानवाधिकारों की एक संवेदनशील अभिव्यक्ति हो सकता है। यह संस्था केवल पुरुषों की समस्याओं को हल करने के लिए नहीं, बल्कि एक संतुलित, न्यायसंगत और समावेशी समाज के निर्माण की दिशा में एक ठोस कदम बन सकती है।
अब समय आ गया है कि हम इस पर गम्भीर विचार करें—संवेदनशीलता के साथ, संतुलन के साथ और साहस के साथ।
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