झारखंड मुक्ति मोर्चा संस्थापक शिबू सोरेन का निधन, आदिवासी राजनीति का एक युग हुआ समाप्त

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 04 अगस्त: आज, सोमवार सुबह, झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के संस्थापक और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का निधन हो गया। वे लंबे समय से बीमार चल रहे थे और दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में नेफ्रोलॉजी विभाग में भर्ती थे। सुबह 8:48 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। 81 वर्ष की आयु में उनका निधन एक युग की समाप्ति के समान है।

उनके निधन की खबर ने पूरे आदिवासी राजनीति और झारखंड की जनता को सदमा पहुँचा दिया है।

राजधानी से रिपोर्ट: बीमारी से जूझते हुए

शिबू सोरेन को लम्बे समय से गुर्दे (किडनी) से संबंधित समस्याएं थीं। अस्पताल में भर्ती कराने पर उन्हें अत्यधिक देखरेख में रखा गया था, लेकिन अन्य शारीरिक परेशानियों की वजह से उनकी स्वास्थ्य स्थिति और गंभीर हो गई थी। 81 वर्ष की उम्र में उन्होंने समर्पित जीवन जीने के बाद विदा ली।

जीवन और आदिवासी राजनीति में योगदान

शिबू सोरेन ने 1970–80 के दशक में आदिवासी पहचान और अधिकार के लिए संघर्ष की नींव रखी। उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया और आदिवासी जनता को राजनीतिक रूप से संगठित किया। 2000 में झारखंड राज्य गठन के बाद वे राज्य के मुख्यमंत्री बने और आदिवासी विकास, शिक्षा, तथा भूमि अधिकारों की आवाज बने रहे।

हेमंत सोरेन ने सोशल मीडिया पर जताया दर्द

झारखंड के मुख्यमंत्री और उनके पुत्र हेमंत सोरेन ने सोशल मीडिया पर भावुक पोस्ट लिखी:
“आदरणीय गुरुजी हम सभी को छोड़कर चले गए। आज मैं शून्य हो गया हूँ.”

इस संदेश से स्पष्ट होता है कि वे न केवल एक पिता बल्कि राजनीति जगत का मार्गदर्शक भी खो चुके हैं।

PM मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जताया शोक

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शोक संदेश में लिखा:
“शिबू सोरेन एक जमीनी नेता थे, जिनका जन-समर्पण और आदिवासी वंचितों के प्रति समर्पण सराहनीय था।”

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बड़े आदर से कहा:
“शिबू सोरेन आदिवासी अधिकारों के प्रबल समर्थक थे। उनका निधन झारखंड ही नहीं, बल्कि देश के आदिवासी आंदोलन में बड़ी क्षति है। मेरी संवेदनाएं उनके परिवार एवं समर्थकों के साथ हैं। ओम् शांति।”

आदिवासी गौरव की विरासत

शिबू सोरेन का जीवन आदिवासी सम्मान और राजनीति की वह कहानी है जो न केवल जातीय पहचान से जुड़ी थी, बल्कि सामाजिक न्याय और स्वाभिमान की लड़ाई भी थी। वे आदिवासी राजनीति को राष्ट्रीय परिदृश्य में स्थापित करने वाले पहले नेता थे।

उनकी विरासत अब राजनैतिक पुस्तकों में अंकित हो चुकी है। लेकिन उनकी खोई आवाज को केवल उनके अनुयायी ही नहीं, बल्कि झारखंड और भारत की युगों की जनता मिस करेगी।

शिबू सोरेन के बिना आदिवासी राजनीति का वह सार्थक रूप अधूरा ही रहेगा, लेकिन उनके संघर्ष का दीपक आज भी जलता रहेगा।

 

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