कन्हैया-पप्पू को ‘स्टेज’ नहीं मिला, विपक्ष की स्क्रिप्ट बिगड़ी

परमिता दास
नई दिल्ली, 10 जुलाई:
भारत की तेज़ उथल-पुथल वाली राजनीति में कभी-कभी एक छोटी सी बेइज्जती सौ भाषणों से कहीं बड़ा संदेश दे जाती है। 9 जुलाई को I.N.D.I. गठबंधन के “बिहार बंद” के दौरान कुछ ऐसा ही हुआ, जब कांग्रेस नेता कन्हैया कुमार और पूर्णिया के निर्दलीय सांसद पप्पू यादव एक ऐसे विवाद के केंद्र में आ गए, जिसने विपक्ष की एकता पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है।

बिहार की सड़कों पर राहुल गांधी, तेजस्वी यादव और महागठबंधन के अन्य बड़े नेताओं के साथ जिस ओपन ट्रक पर प्रदर्शन हो रहा था, उसी पर चढ़ने से कन्हैया और पप्पू यादव को सुरक्षा कर्मियों ने रोक दिया। पूरी भीड़ और मीडिया के सामने दोनों को उतर जाने को कहा गया। पप्पू यादव तो इस कदर आहत हुए कि मीडिया के सामने ही उनकी आंखों से आंसू निकल आए — यह तस्वीर हर चैनल और सोशल मीडिया पर वायरल हो गई।

कुछ के लिए बंद, कुछ के लिए खुला मंच

यह मामला सिर्फ दो नेताओं को मंच से रोकने का नहीं है। यह Congress के उस रवैये की याद दिलाता है, जिस पर अक्सर ‘घमंड’ और ‘भीतरघात’ के आरोप लगते हैं। पप्पू यादव भले ही हर किसी के लिए वैचारिक मेल नहीं रखते हों, लेकिन बिहार के बाढ़ प्रभावित इलाकों और हाशिए पर खड़े लोगों के बीच उनका मजबूत जनाधार है। वहीं कन्हैया कुमार, जिसे JNU से निकले एक जुझारू युवा नेता के तौर पर कांग्रेस ने खुद बड़े दावे के साथ पार्टी में जोड़ा था — अब उसी नेता को इस तरह से मंच से उतार दिया गया, मानो कोई अनचाहा मेहमान हो।

विपक्ष की दरारें उजागर

सत्ताधारी बीजेपी ने इस मौके को हाथ से नहीं जाने दिया। जिस बिहार बंद को विपक्ष ने वोटर लिस्ट के विवादास्पद पुनरीक्षण के खिलाफ एकता का प्रदर्शन बताकर उतारा था, वहीं यह पूरा विवाद BJP के लिए बैठे-बिठाए ‘गिफ्ट’ बन गया। बिहार में ही नहीं, तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी जहां ‘सम्मान’ और ‘इज्जत’ की राजनीति बहुत मायने रखती है — यह संदेश गया कि कांग्रेस अब भी क्षेत्रीय नेताओं को बराबरी का सम्मान नहीं देती।

जब कोई स्थानीय नेता खुलेआम अपमानित होता है तो छोटे-छोटे दलों के लिए बीजेपी की छांव कहीं ज्यादा सुरक्षित और सम्मानजनक लगने लगती है। यही तो वो राजनीतिक हकीकत है जिसने पहले भी कई बार विपक्ष को नुकसान पहुंचाया है।

एक चूक जो टल सकती थी

सवाल यही उठता है — आखिर ऐसा करने की ज़रूरत ही क्या थी? क्या कांग्रेस को इस मंच पर कन्हैया कुमार और पप्पू यादव जैसे ज़मीनी नेताओं को जगह देकर क्या नुक़सान होता? इसे सुरक्षा का कारण बताना भी कमजोर बहाना लगता है, जब बाकी नेता आराम से उसी सीढ़ी से चढ़ते दिखे।

2026 जैसे बड़े विधानसभा चुनावों से पहले विपक्ष को एकजुट चेहरे के साथ उतरना है, तो ऐसे ‘ऑपरेशनल ब्लंडर’ उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाते हैं। यह सिर्फ एक प्रोटोकॉल की चूक नहीं थी — यह खुद अपनी ही एकता को चोट पहुंचाना था।

2026 से पहले सबक

राजनीति में आंकड़े और नारों से कहीं ज्यादा तस्वीरों का असर रहता है। पप्पू यादव के बहते आंसू और कन्हैया कुमार का मंच से उतरना लोगों के ज़हन में ज़्यादा देर टिकेगा, नारेबाजी से कहीं ज्यादा। तमिलनाडु जैसे राज्यों में अगर ऐसे अपमान दोहराए गए तो यह स्थानीय नेताओं को बीजेपी जैसे विकल्प की तरफ धकेल सकते हैं, जो उन्हें इज्ज़त और relevance दोनों देने का दावा कर रही है।

अगर कांग्रेस वाकई BJP के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ना चाहती है तो सबसे पहले उसे अपने ही नेताओं के लिए मंच खुला रखना सीखना होगा — इज्ज़त के साथ, भरोसे के साथ और उस हर आवाज़ के लिए जिसके लिए वो खुद को आवाज़ कहती है।

 

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