समग्र समाचार सेवा
जम्मू, 18 अगस्त: जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ जिले में हाल ही में हुई बादल फटने की घटना ने न केवल कई लोगों की जान ली बल्कि एक बार फिर हिमालयी क्षेत्रों की आपदा संवेदनशीलता और प्रशासनिक तैयारियों पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
जहाँ इस त्रासदी को प्राकृतिक आपदा करार दिया जा रहा है, वहीं विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों का मानना है कि योजनागत कमियों और लापरवाही ने नुकसान को और बढ़ा दिया।
जलवायु परिवर्तन और बढ़ता खतरा
पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार, किश्तवाड़ की घाटी प्रणाली ऐसी भौगोलिक संरचना वाली है जहाँ संकरी घाटियों में अचानक बारिश से पानी का स्तर तेजी से बढ़ जाता है। इससे आसपास बसे गाँव और अस्थायी ढाँचे सबसे पहले प्रभावित होते हैं।
जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और जीएलओएफ निगरानी समिति के सदस्य डॉ. सुनील धर ने कहा, “जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय में चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ रही है। ऐसे क्षेत्रों में माइक्रो-ज़ोनिंग और वैज्ञानिक मानचित्रण अब वैकल्पिक नहीं, बल्कि आवश्यक है।”
तीर्थयात्रा मार्ग पर अतिक्रमण
विशेषज्ञों ने बताया कि पिछले वर्षों में श्री मचैल माता यात्रा मार्ग के साथ-साथ बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में अस्थायी और अर्ध-स्थायी ढाँचे खड़े किए गए। प्रशासन की अनुमति से इन क्षेत्रों में लंगर (सामुदायिक रसोई) भी लगाए गए। जबकि यह सर्वविदित है कि ऐसे बाढ़ मैदान प्राकृतिक जल निकासी के चैनल होते हैं और इन पर निर्माण से अचानक बाढ़ के दौरान नुकसान का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर 2022 में अमरनाथ गुफा के पास हुए बादल फटने की घटना से सबक लिया गया होता, तो इस बार किश्तवाड़ में नुकसान कम किया जा सकता था।
मौसम पूर्वानुमान और प्रशासन की भूमिका
आपदा प्रबंधन विशेषज्ञों ने यह भी सवाल उठाया है कि क्या प्रशासन ने भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) से समय पर पूर्वानुमान लिया और श्रद्धालुओं को चेतावनी दी।
“अगर मौसम पूर्वानुमान उपलब्ध था तो यात्रा क्यों नहीं रोकी गई? और अगर प्रशासन ने पूर्वानुमान ही नहीं लिया, तो यह योजना में एक बड़ी कमी है।” – विशेषज्ञों का कहना है।
श्रद्धालुओं की सुरक्षा बड़ी चुनौती
हर साल लाखों श्रद्धालु मचैल माता मंदिर जाते हैं। इस बार भी भारी संख्या में तीर्थयात्री मार्ग में थे। विशेषज्ञों ने कहा कि तीर्थयात्रा प्रबंधन केवल भीड़ नियंत्रण तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें भूभाग, मौसम और सुरक्षा का वैज्ञानिक मूल्यांकन भी होना चाहिए।
भविष्य के लिए क्या ज़रूरी है?
डॉ. सुनील धर ने सुझाव दिया कि –
- बाढ़ मैदानों में स्थायी ढाँचे और लंगरों पर रोक लगे।
- तीर्थयात्रा मार्गों का वैज्ञानिक मानचित्रण किया जाए।
- पूर्व चेतावनी प्रणाली और माइक्रो-ज़ोनिंग को अनिवार्य किया जाए।
- आस्था और सुरक्षा के बीच संतुलन की नीति अपनाई जाए।
उन्होंने कहा, “बादल फटना टाला नहीं जा सकता, लेकिन वैज्ञानिक योजना, मज़बूत नियम और समय रहते चेतावनी से इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है।”
किश्तवाड़ की इस त्रासदी ने एक बार फिर याद दिलाया है कि हिमालयी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं। अगर समय रहते वैज्ञानिक उपायों और प्रशासनिक जिम्मेदारी को मजबूत नहीं किया गया, तो ऐसी घटनाएँ आगे भी जनहानि और व्यापक तबाही लाती रहेंगी।
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