कानून, पहचान और जवाबदेही: आंध्र प्रदेश के SC धर्मांतरण फैसले से मिली सीख

समग्र समाचार सेवा
दिल्ली 2 मई 2025:
आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट का हालिया फैसला, जिसमें कहा गया कि अनुसूचित जाति (SC) के सदस्य यदि ईसाई धर्म अपना लेते हैं तो वे SC का दर्जा खो देते हैं — एक कानूनी निर्णय भर नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और पहचान की राजनीति के केंद्र में एक जलती हुई मशाल है। इस फैसले ने न केवल संवैधानिक प्रावधानों पर बहस को हवा दी है, बल्कि यह भी स्पष्ट किया है कि आरक्षण और संरक्षण की व्यवस्था का उद्देश्य किन्हें लाभ पहुंचाना है।

गुंटूर जिले के कोठापालेम के पास्टर चिंताडा आनंद का मामला इस फैसले की नींव बना। एक दशक से अधिक समय से ईसाई धर्मगुरु रहे आनंद ने अनुसूचित जाति / जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई, जिसमें उन्होंने कुछ लोगों पर जातिसूचक अपमान का आरोप लगाया। लेकिन जब यह मामला हाई कोर्ट पहुँचा, तो यह तर्क दिया गया कि आनंद का ईसाई धर्म में धर्मांतरण उन्हें इस कानून के तहत संरक्षण का हकदार नहीं बनाता।

न्यायमूर्ति एन. हरिनाथ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इसी बिंदु को आधार बनाते हुए निर्णय सुनाया कि संविधान (अनुसूचित जातियों) आदेश, 1950 के अनुसार केवल हिंदू, बौद्ध और सिख धर्म को मानने वालों को ही SC दर्जा प्राप्त हो सकता है — ईसाई धर्म में धर्मांतरण करने पर यह दर्जा समाप्त हो जाता है।

इस फैसले का सबसे अहम पहलू यह है कि इसने एक बहुत जरूरी सवाल उठाया है — क्या कानून केवल कागज़ों पर रह गया है, या क्या उसमें सामाजिक यथार्थ को प्रतिबिंबित करने की ताकत है? अदालत ने साफ किया कि आरक्षण और संरक्षण का लाभ केवल उन लोगों को मिलना चाहिए जो वास्तव में जातिगत उत्पीड़न के शिकार हैं।

धर्म परिवर्तन के बाद भी SC प्रमाणपत्र बनाए रखना, न केवल कानून का उल्लंघन है बल्कि यह उन लोगों के साथ अन्याय है जो वास्तव में इन सुविधाओं के पात्र हैं। यह एक ऐसे प्रशासनिक ढांचे की ओर इशारा करता है जो दस्तावेजों की समीक्षा में सुस्त और लापरवाह है।

फैसले ने पुलिस प्रशासन को भी आईना दिखाया है। बिना जांच के अनुसूचित जाति अधिनियम के तहत केस दर्ज करना लापरवाही नहीं बल्कि कानून की कमजोरी को उजागर करता है। कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि “ड्यू डिलिजेंस” अब एक विकल्प नहीं, बल्कि अनिवार्यता है। इस प्रकार यह निर्णय न केवल न्याय प्रणाली की गरिमा को बनाए रखने की दिशा में एक कदम है, बल्कि यह पुलिस महकमे को भी अपनी जिम्मेदारी का एहसास कराता है।

फैसले में एक सूक्ष्म लेकिन अहम संदेश भी छिपा है — धर्मांतरण केवल एक आस्था का परिवर्तन नहीं है, बल्कि यह सामाजिक पहचान का पुनर्गठन भी है। जब कोई व्यक्ति ईसाई धर्म अपनाता है, जो जातिवाद को नकारता है, तो वह स्वाभाविक रूप से उस जातिगत संरचना से बाहर हो जाता है जिसमें वह उत्पीड़न का शिकार रहा होगा। ऐसे में उसी संरचना में कानूनी संरक्षण की मांग करना विरोधाभासी प्रतीत होता है।

यह निर्णय सरकार के लिए भी एक चेतावनी है — कि अब समय आ गया है जब जाति प्रमाणपत्रों की प्रक्रिया को पारदर्शी और अपडेट किया जाए। धर्मांतरण के बाद वर्षों तक SC प्रमाणपत्र बनाए रखना, इस बात का संकेत है कि सामाजिक कल्याण तंत्र में गहरी खामियाँ हैं। इसके समाधान के लिए समय-समय पर जाँच, विभागीय समन्वय और डेटा प्रबंधन में सुधार जरूरी है।

आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट का यह फैसला एक धर्मगुरु पर आधारित व्यक्तिगत मामला भर नहीं है — यह भारत की सामाजिक न्याय प्रणाली की रीढ़ की हड्डी को मजबूत करने वाला निर्णय है। यह बताता है कि कानून केवल दया या सहानुभूति का माध्यम नहीं है, बल्कि यह न्याय, संतुलन और जवाबदेही का मार्गदर्शक है।

एक ऐसे दौर में जब संस्थाओं पर विश्वास लगातार डगमगा रहा है, ऐसे निर्णय उम्मीद की किरण बनकर सामने आते हैं। यह याद दिलाते हैं कि यदि कानून को उसकी आत्मा के अनुरूप लागू किया जाए, तो वह समाज को न केवल दिशा दे सकता है, बल्कि उसे एकजुट और न्यायपूर्ण भी बना सकता है।

Comments are closed, but trackbacks and pingbacks are open.